Book Title: Dharmratna Prakaran
Author(s): Manikyamuni
Publisher: Dharsi Gulabchand Sanghani
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'दीपचंदजी केसरचिंदात्मज लूणिया के स्मरणार्थ धर्मरत्न प्रकरण सार अर्थात् कथा सहित श्रावक के २१ गुण व बारह व्रतों का वर्णन और पक्खी अतिचार संस्कृत टीका के आधार पर लेखक – मुनि माणक्य प्रसिद्धकर्त्ता रामलाल ( रामचन्द्र ) लूनिया नया बाजार, अजमेर. डॉक्टर धारसी गुलाबचन्द संघाणी H. L. M. S. के प्रबंध से जैन सुधारक प्रेस, अजमेर में मुद्रित हुआ, वीर संवत् २४४२ । प्रथमावृत्ति १००० सन् १६१६ } { मूल्य सदुपयोग Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना धर्म रत्न प्रकरण का मूल और गुजराती भाषांतर पालीताणा विद्यो - सारक वर्ग ने छपाया है जिसमें मार्गांगुसारी के ३५ गुण और कथा, भावक के २१ गुण और कथा, श्रावक के १२ व्रत, साधु के और पांच महावत का वर्णन अच्छी तरह है उसके हिंदी भाषांतर की बहुत आवश्यकता थी तो भी द्रव्य की संकीर्णता से थोड़े में अधिक लाभ हो इस तरह योजना कर संस्कृत मा गधी जो विवेचन गाथाओं के साथ मूल ग्रंथ में है उनका सार लेकर यही ग्रंथ तैयार किया है । केसरीचंद जी लूणिया एक विद्या प्रेमी प्रसिद्ध पुरुष जैन में है जिनका सुपुत्र दीपचंद जी के स्मरणार्थ श्रावक के २१ गुणों का वर्णन छाने का उनका विचार होने पर भी नीचली बातें बढाई है । - श्रावकों का १२ का वर्णन सातवें व्रत के १४ नियम जिसमें लक्ष्मीचंदजी घीया की किताब का आधार लिया है और अंत में आत्मानंद जैन पुस्तक प्रचारक मंडल की पंच प्रतिक्रमण की पुस्तक के अतिचार की की है जिससे श्रावकों को यह पुस्तक बहुत उपयोगी होगी । इस ग्रंथ का सब खर्चा श्रीयुत केशरीचंदजी लूलिया ने दिया है जिस को चाहिये वह मंगा लेवे. पताः केशरीचंदजी लूणिया नया बाजार अजमेर वांचक वर्गसे प्रार्थना. प्रमाद बश दृष्टि दोष और प्रेस मैन और प्रेस की गलती से व भाषा की अज्ञानता से जो अशुद्धिऐं रह गईं हैं उनमें कितनीक का शुद्धिपत्र दिया है. उस शुद्धि पत्रको प्रथम पढकर किताब सुधार के पढ़े. और जहां समझ न पड़े बड़ों से पूछ कर पढ़ें. मुनि माणक लाखन कोटड़ी, अजमेर । Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री * ॥ धर्मरत्न प्रकरण || श्रेयांसो भवतां सदाऽभिलपितं कुर्यात्स्व चित्तेधृतो मान्यो यत् शिव बांध निशि दिने कारुण्य राशिविंभुः तंनत्वा सुगुरुं तथा मुनिवरं पन्यास हर्ष मुदा कुर्वे रत्न समंगुणा नुकथनं श्राद्धार्थ सौ ख्यावहं . १ जिस पुरुष को भली बुरी वस्तु का ज्ञान है, जो संसार में जन्म मरण व्याधि के संताप से पीड़ित हो, और जिस को कुछ अंश में कोमल भाव प्रकट हुआ हो, ऐसे भव्य जंतु को स्वर्ग मोक्ष के सुख और संपदा देने वाला रत्न समान अमूल्य जैन धर्म आराधन करने योग्य है. धर्म रत्न को प्राप्त करने में गुरु महाराज के सुबोध की आवश्यकता है. • इसलिये परम गुरु श्रीजिनेश्वर ने गणधर भगवंतों द्वारा सिद्धांत सागर में वाक्य रत्नों का ढेर रक्खा है, उससे वर्तमान समय के अनुसार धर्म रत्न प्रकरण नाम का ग्रंथ श्री शांति सूरि महाराज ने मागधी गाथा और संस्कृत माटीका कथा के साथ बनाया है, और आत्मानंद जैन सभा भावनगर ने छपवाया है, उस ही का सार लेकर सद्गुरुपन्यास हर्ष मुनिजी की कृपा से हिंदी भाषा में श्रावक के गुणों का कथा के साथ वर्णन करता हूँ । वीर प्रभु जो हमारे शासन नायक हैं उन्हीं से हमें धर्म " रत्नकी" प्राप्ति हुई है और हमारे गुरु भी उन्हीं का ध्मान करते हैं जिसका बरि ऐसा मंत्र सुनते ही पाप और विघ्न सब दूर होजाते हैं उन्हीं का स्मरण कर भव्या त्माओं के हितार्थ मैं उस ग्रंथ का आरंभ करता हूं । Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) . ८४ लाख जीव योनि में घूमते २ जीवों को महापुण्य से ही मनुष्य योनि प्राप्त होती है और मनुष्य जन्म में भी जन्म मरण का त्रास दूर करने वाला सुधर्म रत्न प्राप्त होना बहुत मुश्किल है। .. जैसे पुण्य रहित जीवों को चिंतामणी रत्न, कल्प वृक्ष, काम धेनु वगैरह प्राप्त होनी मुश्किल है ऐसे ही निष्पुण्य गुण रहित जीवों को धर्म रत्न की प्राप्ति भी दुर्लभ है, धर्म रत्न प्राप्त होने के पहिले इतने गुणों की आवश्यकता ज्ञानी भगवंतों ने बताई है सो कहता हूं यद्यपि मुक्ति के लिधे साधु का सर्व विरति धर्म श्रेष्ट है किंतु श्रावक प्रथम सद्गृहस्थका देश विरति धर्म को प्राप्त करके साधु धर्म अच्छी तरह पाल सक्ता है इस लिये प्रथम श्रावक के गुणों का वर्णन करता हूं कि उनको अच्छी तरह समझ कर देश विरति और सर्व विरति धर्मपाल सिद्ध पद पाकर जन्म मरण के बंधन से मुक्त होवे । श्रावक के २१ गुणों के नाम. (१) अक्षुद्र (२) रूपवान, ३ प्रकृति सौम्य, ४ लोक प्रिय, ५ अकर ६ पाप भीरु, ७अशठ ८ सुदाक्षिण्य, लज्जावान, १० दयालु, ११ मध्यस्थ सौ. म्य दृष्टि, १२ गुणरागी, १३ सत्कथक, १४ सुपक्ष युक्त, १५ सुदीर्घदर्शी, १६ बिशेषज्ञ १७ वृद्धानुग, १८. विनीत, १६ कृतज्ञ, २० परोपकारी २१ लब्ध लक्ष्य--इन २१ गुणों का वर्णन करता हूं अक्षुद्र (गंभीर, तुच्छता से रहित ) जो क्षुद्र होता है वो तुच्छता से बात बात में झगड़ा करता है, गुरु महाराज उसे कुछ हितके लिये कह तो वो विना समझ ही अयोग्य उत्तर देकर गुरु का निंदक होकर हित शिक्षा प्राप्त नहीं करेगा, बच्चोंको प्रथम बुद्धिका विशेष विकाश न होने के कारण उनको मा बाप वा गुरु की आज्ञानुसार ही बर्तन करना चाहिये. - ऐसेही धर्म रहित जीवों को प्रथम निस्पृ ही निर्लोभी ज्ञानी पुरुषों के बचन पर विश्वास रखकर धर्म रत्न प्राप्त करना चाहिये इस लिये प्रथम गंभीरता को धारण करने की आवश्यकता है और गुरु महाराज को सम Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३ ) झाने में तकलीफ न होवे इस लिये कुछ बुद्धि विकाश की भी आवश्यकता है नहीं तो अज्ञानता से नियम करने वाले एक जड़ बुद्धि की तरह धर्म के बदले अधर्म का भागी होगा। ___ एक जड़ बुद्धि ने नियम लिया कि बीमार साधु को औषध देकर पीछे रोटी खाऊंगा, किसी समय पर बीमार साधु न.पाया तो वो जड़ बुद्धि पश्चात्ताप करने लगा कि मैं कैसा निर्भागी हूं कि आज कोई साधु बीमार नहीं होता ! उस की आंतरिक अभिलाषा दुषित न थी तो भी अज्ञान दशा से साधुओंकी बीमारीकी उत्पत्ति की चिंतवना से उसकी अभिलाषा दषित हो गई पापका भागी हुश्राऔर जो उसे कुछ भी बुद्धि का विकाश होता तो ऐसा नियम न लेता और लेता तो ऐसी कुभावना मन में नहीं लाता, इस लिये गंभीरता उसही में है जो कुछ बुद्धि विकाश वाला भी हो। यहां पर छोय दृष्टांत कहता हूं। एक युवति छोटी उम्र में धनाढ्य के लड़के को दी गई थी परंतु जब यह कन्या सुसराल को गई तब उस धनाढय के धन नहीं रहने से दुःख. देखकर पीयर चली गई, बाप ने कुछ न कहा, थोड़े वर्ष बाद उसका पति बुलाने को आया तो वो युवति बाप की शर्म की खातिर सासरे चली परंतु रास्ते में पानी लाने के बहाने पति को कूवे में गिरा कर बाप के घर चली आई, तो भी बाप ने कुछ न कहा, न पूछा, थोड़े रोज बाद पति को फिर आया देख वो घबराने लगी परंतु पति ने इशारे से समझा दी कि मैंने किसी को तेरा कर्त्तव्य नहीं कहा है, तू संतोष से मेरे साथ चल, इस समय युवति की उम् बड़ी हो जाने से और लोगों की शर्म से वह पति के साथ चली गई। ___ पतिके साथ घर जाकर एक दिन पति से पूछने लगी कि आप कैसे बचे और मेरा इतना अपराध होने पर भी आप मुझे क्यों चाहते हो ? और मेरा विश्वास कैसे करते हो ? पतिने कहा धर्म के प्रभाव से मुझे किसी का भय नहीं है, वो सुनकर युवति उस दिन से पति पर सच्चा प्रेस धरने वाली होगई. लोगों में उसकी इज्जत बढ़ी, और दोनों के सच्चे प्रेम से घर में लक्ष्मी भी बढ़ने लगी लड़के भी हुए बड़े होने पर उनकी शादी होने से बहुरें भी आई और वे सब स्वर्ग का सुख भोगने लगे। Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४ ) एक दिन बाप ने एकांत में बेटों को समझाया कि तुम लोग घर में गंभीरता रख कर सब से मिलकर रहो बात वात में स्त्रियों के साथ मत झगड़ों छोटी उम्र की स्त्रियों में सुशीलता कम होती है, तुच्छता ज़्यादा होती है. मैंने जो आज तक सुख पाया है सो झगड़ा नहीं करने का ही फल है, और उसी से आज तुम भी आनंद से राज्य रिद्धि भोग रहे हो ! लड़कों ने पूछा के आपने पूर्व में क्या किया था सो सुनाओ ? कम नसीब से बापने वो बात को जो कोई भी नहीं जानता था सो सब बात उसने लड़कों को सु नादी उस समय छुप कर एक लड़के की बहु ने सब बात सुनली और अपनी क्षुद्रता से मनमें विचारने लगी कि कव सासुजी को यह वात कह कर उसको मेरे वश में लाऊं और सब में प्रधान हो जाऊं इस तरह सासू को दबाने की खातिर रात को एकांत में उसने अपनी सासू को कहा कि आज तक आप मुझे शिक्षा देने के समय चाहे ऐसे बोलती थीं किंतु आज से खयाल रखें कि मैं भी आप की पोल सब जानती हूं सासूने कहा कि मुझे तू कैसे दवाती है घरमें जो सीधी न रहेगी तो तेरे हित के खातिर मुझे कहना भी पड़ेगा बहू बोली ठीक है बोलना, सुसराजी की बात मैं भी प्रकट कर दूंगी इतना सुनते ही सासू चुप हो कर निकल गई और रात में ही आत्म हत्या कर अपनी बात छिपी रखी किंतु सासू के मरने से लोगों में बहू को कलंक लगा और सर्वत्र सासू हत्यारी प्रसिद्ध हुई इस दृष्टांत से प्रत्येक पुरुष या स्त्री को शिक्षा लेने की है कि मार्मिक बात किसी को न कहेनी चाहिये. . पतिने गंभीरता से सुख पाया और तुच्छ बहूने मार्मिक बचन कह कर सासू की हत्या कराई इस लिये सब के साथ गंभीरता रख कर दीर्घ दृष्टि पहुंचा कर बोलना चाहिये। . लोकोत्तर दृष्टांत. चेदि देश में श्रोति मति पुरी में तीरकदंबक नाम का वेदपाठी एक सुशील ब्राह्मण लड़कों को पढ़ाता था, राज पुत्र वसु तथा उस ब्राह्मण का पुत्र पर्वत और नारद तीनों सब विद्यार्थओं में बड़े और उपाध्याय को प्रिय थे, मुंनिओं ने पंडित के घर पर गोचरी आने के समय परस्पर वार्ता की कि इन तीन विद्यार्थियों में दो नरक गामी हैं, एक सद्गति में जाने वाला Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५ ) है साधुओं के वचनं सुनकर और विश्वास करके परीक्षा की खातिर तीरक दंबक ने उनको कृत्रिम बकरा बना कर दिया और कोई न देखे वहां जाकर मारने को कहा, जो नारद दीर्घ दृष्टिवाला था उसने एकांत में जाकर उसे मारने का विचार किया, किंतु विचार करने लगा कि ज्ञानी, तारे बा देवता सबको सर्वत्र देखते हैं, मैं भी देखता हूं इससे तो गुरुका अभि माय बकरे को नहीं मारने का है, गुरु के पास जाकर उसने सब वात सुनाई गुरु ने विचारा कि यह सुगति में जावेगा राज पुत्र का तो नरक में जानेका संभव है किंतु मेरा पुत्र नरक में कैसे जावेगा ? ऐसां विचार कर अपने पुत्र को बुलाकर बैंसाही बकरा मारने को कहा वो विचारा कम अक्ल था, जाकर मार आया पिता ने पूछा, कैसे माराया ? क्या वहां देव नहीं देखतेथे अथवा तू नहीं देखता था ? तब बोला, मेरी ऐसी बुद्धि कहां से होवे, गुरु ने सोचा कि अज्ञानता से यह अर्थ का अनर्थ कर नर्क में जावेगा ऐसा ही वसु का मालूम हुआ, उपाध्याय को संसार से खेद हुआ दीक्षा लेकर सद्गति को प्राप्त हुआ. पर्वत पीछे उपाध्याय हुआ तो भी अर्थ का अनर्थ करने लगा, नारद जो पढ़कर चला गया था वो एक दिन पर्वत मित्र से मिलने को आया और जिस समय पर्वत ने छात्रों को पाठं दिया उस समय आजका अर्थ यज्ञ में पुराणी व्रीहि अनाज के बदले बकरे का अर्थ किया, तब नारद ने समझाया परंतु वो मंद बुद्धि था और अधिक गुस्से वाला भी था जिससे अपना अपमान समझ झगड़ा करने लगा, और दोनों ने निश्चय किया कि बसु राजा जो अपने साथ पढ़ता था और सत्यवादी होने से अधर बैठता है उसके वचन पर विश्वास करना, पर्वत की मा ने सुना तब उसको सच्चा अर्थ मालूम होने से पर्वत को उसने कहा कि ऐसी आपस में हठ क्यों करते हो ? मित्र भाव से जो मित्र मिलने आया है उससे झगड़ा नहीं करना चाहिये, पर्वत बोला, मेरा इसने अपमान किया है इसलिये मैंने इसके साथ प्रण किया है कि जो झूठा होवे उसकी जीभ काटी जाबे, मा सुनकर चमक गई एकांत में बेटे को बुलाकर कहा मंद भाग्य पुत्र ? इतना झूठा घमंड कर अपना क्यों Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाश करता है, मुझे भी याद है कि एक समय तेरे पिता ने अज का अर्थ पुराणे व्रीहि अनाज ही किया था, इसलिये नारद के पास क्षमा मांगले, परंतु हठी पर्वत नहीं मानता था, जिससे पुत्र की रक्षा की खातिर माता ने एकांत में जाकर वसु राजा को समझाया और गुरु पुत्र की जीभ बचाने को कहा वसु बचनमें आगया राज्य सभामें पर्वत और नारदने आकर अपनी बात सुनाकरन्याय चाहा तव वसुने झूठाही कहदिया कि अजका अर्थ बकरा कहाथा नजदीक में जो रहे हुए देव थे उनको यह बात अच्छी न लगने से उन्होंने उस वसु राजा को जमीन पर गिरा कर मार डाला, नारद की जय हुई। पर्वतका लोगों ने बहुत तिरस्कार किया वहां से निकल कर वो मांस भक्षण के स्वादु ब्राह्मणों को मिलकर पवित्र वेदों में हिंसामय स्मृतियें बढ़ाकर हजारों जीवों की हिंसा का रास्ता बताकर नर्क में गया. इस दृष्टांत से यह हित शिक्षा दी है कि जो मंद बुद्धि हैं वे आप सत्य बात जो गंभीर आशय की है बो नहीं समझ सक्ने और अपनी अज्ञानता से अर्थ का अनर्थ कर भोले जीवों को फंसाकर दुर्गति में जाते हैं, इसलिये धर्म योग्य पुरुष गंभीर और तीक्ष्ण बुद्धि वाला समयज्ञ होना चाहिये, यह श्रावक का प्रथम गुण है श्रावक का दूसरा गुण. पुरुष वा स्त्री रूपवान् होना चाहिये अर्थात् शरीर के अंग उपांग संपूर्ण होना चाहिये, पांच इंद्रिय पूरी होना चाहिये शरीर बंधारण यथा योग्य सुंदर होना चाहिये ऐसा पुरुष धर्म पाकर अनेक जीवों का तारने वाला प्रभाविक हो सक्ता है । यदि कदापि कोई कुरूप हो वो विकलांग वा विकल इंद्रिय बाला हो तो भी धर्म तो पा सके किंतु साधु पना नहीं पा सके अथवा कुरूप होवे तो उन्नति नहीं कर सक्ता, लोगों में प्रभाव नहीं पड़ता, अथवा शठ पुरुष उसकी हांसी कर धर्म की निंदा करेंगे, अथवा खुद साधु गुस्से होकर टंटा करके जैन धर्म की हीलना करावेगा और वजू ऋषभ नाराच संघयण बिना मुक्ति भी नहीं हो सकी। यहां पर कुरूप संबंधी हरि केशी मुनि का दृष्टांत देकर कोई शंका करेगा कि बे रूपवान् नहीं थे तो भी वे पूजनीक क्यों हुए ? उसका समाधान : Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७ ) यह है कि सर्वत्र देवता सहायक नहीं होता, और उनकी चारित्र वृत्ति क्षमा गुण अति प्रशंसनीय था, इस लिये ऐसे गुणवाले तो बिना रूप भी स्व पर को तार सक्ते हैं और ज्ञानी गुरु कुरूप को भी धर्म देते हैं परंतु विकलांग लंगड़ा, अंधा, रोगी, अशक्त चाहे तो भी संपूर्ण धर्म नहीं पा सक्ला, जैसे उ. त्तम फल का पेड़ चाहिये तो बीज उत्तम जमीन में ही वोना चाहिये तीर्थंकर चक्रवर्ती बलदेव वासुदेव वगैरह माननीय पुरुष जन्म से ही अधिक रूपवान् ही होते हैं ऐसे ही धर्म प्रभावक पुरुष आचार्य वा साधु वा श्रावक भी जन्म से ही सुंदर होते हैं गुरुके पास जाते ही बे अपनी मुख मुद्रा से गुरु को प्रसन्न कर देते हैं । यथा रूपं तथा गुणाः रूप भी एक पुण्य प्रकृति है और पुण्यवान् ही धर्म पा सकता है किसी ने पूर्व भव में रूप का मद किया हो और पीछे पश्चताप किया हो वो ही कुरूप में दूसरे भब में धर्म पा सकता है इसलिये रूप का मद नहीं करना किंतु रूप भी धर्म साधन में सहायक होवे तो अति प्रशंसनीय है । वज्र स्वामी का चरित्र. वजू स्वमी बड़े रूपबान् थे उन्हों ने दक्षा ली और जहां बिहार करके जाते थे बहां ही उनकी महिमा होती थी एक कन्या तो साध्वीयों के पास उनके गुणों की प्रशंसा सुनकर प्रतिज्ञा कर बैठी कि उनके साथ ही बिवाह करूंगी वो लड़की बड़ी हो जाने से और वज्र स्वामी का पता न लगने से बाप ने उसे समझाया कि बेटी ऐसी हठ करना तुझे योग्य नहीं युवति के युवावस्था में बाप के घर रहने से इज्जत घटती है किसीके साथ शादी करले ! पुत्री ने कहा हे तात ! ऐसा नहीं हो सक्ता कि मैं बज्र स्वामी को छोड़ दूसरे से शादी करूं कर्म संबंध से वज्र स्वामी आगये बाप ने कन्या और करोड़ों का द्रव्य ले जाकर उनसे कहा हे वज्र स्वामी ! जगत में पुण्य वृक्ष के फल उसी भव में खाने वाले आप ही जगत पूज्य अद्वितीय पुरुष हैं कि देव कन्या और लक्ष्मी देने को मैं आया हूं आप शीघ्र स्वीकार करें वज्र स्वामी ने स्थिर चित्त से कन्या और उसके पिता को संसार की असारता समझा Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८) कर कहा कि हे महा भाग ! जो संसार की असारता और भोगों की रूप की क्षण भंगुरता नहीं समझते वही देवांगना बा स्वर्ग की वांछा करते हैं किंतु जिसे ज्ञान है वे ऐसे फंदों में नहीं पड़ते उनके अथाग रूप और तेजस्वी कांति देख कर प्रथम से ही शांत हो गया था और जब ऐसे शांति प्रिय मधुर वचन सुने तब तात और कन्या दोनों ने कहा तब हमारे क्या करना बजू स्वामी ने कन्या को दीक्षा देकर उसी धन से उसका दीक्षा महोत्सव कराया ! __ ऐसे ही अनाथी मुनि से श्रेणिक राजा ने बोध पाया और समय सुंदर जी महाराज ने जो सज्झाय वनाई है वो ही यहां पर लिख देते हैं। श्रेणिक रयबाड़ी चडयो, पेखीयो मुनिएकांतवरकांत रूप मोहियो, राय पूछे कहीने वृतांत, श्रेणिक राय हूंरे अनाथी नि ग्रंथ । तिणमें लीघोरे साधुजी को पंथ श्रे-- १ वसंत ऋतुमें जिसवक्त राजा श्रेणिक राज ग्रही नगरी के उद्यान में फिरने को गया था उस समय युवतियों के मन के मनोरथ पूर्ण करने वाला एक अतीव रूपवान् देव कुमार जैसा युवक को देख कर राजा को अत्यंत आश्चर्य हुआ कि अहो कैसा सौभाग्यवान् सुंदर कुमार है परंतु वो इतना सुंदर होने पर भी साधु क्यों हो गया है । साधु तो वह ही होता है जो सब बात से दुखी हो ! ऐसा विचार कर राजा वहां जाकर वोला कि आप कौन हैं और साधु क्यों हो गये हैं ! ऐसी युवावस्था में ऐसे वन में तो युवतियों के साथ युवक ही क्रीड़ा करने को वसंत ऋतु में आते हैं __ मुनि ने कहा- मैं अनाथ हूं मेरा कोई रक्षक नहीं है इस लिये साधु हुअा हूं। राजा-यदि आप को ऐसा ही दुःख से साधु होना पड़ा है तो मैं आप का नाथ होकर आश्रय देने को तैयार हूं। मुनि-आप स्वयं अनाथ हैं, मेरे नाथ कैंसे होंगे। राजा को गुस्सा आया कि वो मुझे अनाथ कहकर क्यों अपमान करता . है ? मैं कैसे अनाथ हूं? और प्रकट वोला कि-हे मुने! साधुको ऐसा उचित नहीं Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ह) है कि सस्य वचन बोल कर दूसरों का अपमान करे ? मुनि ने कहा, हे नरेन्द्र । जरा धैर्य रखो, आप उस वचन का परमार्थ नहीं समझे ? जिसको पर लोक का ज्ञान नहीं पुण्य पाप मालूम नहीं वो अनाथ है क्योंकि इस भव में पूर्व के पुण्य से सुख भोग कर जन्म हार जाता है और दुर्गति के दुःख अनाथ होकर भोगेगा परंतु यहां पर भी पूर्व के पापों के उदय से कष्ट भोगना पड़ता है । ★ श्रेणिक आप को भी कष्ट पड़ा है ? मुनि - मेरा चरित्र थोड़ा सा सुनो- इस संबी नगरी वसे, मुझ पिता परिगलधन, पुरिवार पुरे परिवर्ये। हू छू तेहनो पुत्र रतन ! श्रे - २ एक दिन मुझ बेदना, उपजी ते न खमाय । मात पिता भूरी मरे, परण किये समाधिन थाय, ३ ॥ बहु राज्य वैद्य बोलाविया, किधा कोडी उपाय | बावना चंदन चरचीयां, पण किरणे समाधिन थाय थे, ४ ॥ गोरडी गुणमणी औरडी, चोरडी अबला नार । कोरडी पीडा में सही, कोने कीधी न मोरडी सार थे, ५ ॥ मैं कोसंबी नगरी में रहने वाला नगर श्रेष्टि का पुत्र हूं, और राज्य रिद्धि और परिवार से स्वर्ग का सुख वहां भोग रहा था, और रात दिन किस तरह जाते हैं वो भी मालूम न था । एक दिन शरीर में शूल का रोग हुआ अग्नि ज्वाला की तरह शरीर भीतर में जलने लगा, तब मैंने पुकार करना शुरु किया, मात पिता भी रोने लगे, बड़े बड़े राज्य वैद्य आकर बावना चंदन से लेप करने लगे, मेरी औरत जो रूप सुंदरी थी वो भी रोने लगी किंतु मेरी पीडा किसीने न ली, न कोई सहायक हुए, न मुझे समाधि हुई इसलिये मैं अनाथ होगया था. और मेरा नाम मैंने नाथ रक्खा | जग मेंको केनो नहीं, तेभणी हूंरे अनायें । वीत रागना धर्म सारीखो, नहीं कोई बीजो मुक्तिनो साथ, ६ - ॥ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) बेदना जो मुझ उपशमें, तो लेउ संजम भार । एम कहेता वेदन गई, में प्रतलीधुं हर्ष अपार श्रे, ७ ॥ हे भूपते ! आप भी समझे होंगे कि में अनाथ कैसे होगया. और रोगों से वा दुःख से बचाने वाला कौन है ? इसलिये मैंने मन में धर्म का शरण लिया कि यदि जो रोग मिटे तो साधु हो जाऊं ! इतना विचार से ही शांति होने लगी और मैं साधु हुआ हूं।' कर जोडी राजा गुणस्तवे, धन धन मुनि अरणगार। श्रेणिक समकीत पामीयो, वांदी पहोंतो नगर मझार श्रे, ८॥ मुनि अनाथी गावतां, टूटे कर्मनी क्रोड । गणि समय सुंदर एहना, पाय वांदेरे बेकर जोड ॥६॥ मुनिकी बात सुनकर धर्म बोध पाकर हाथजोड़ राजाश्रेणिक शहरमें आया समय सुंदर कहते हैं कि ऐसे मुनि के गुण गाने से करोड़ों कष्ट दूर होते हैं, मैं भी उनके दोनों चरण में नमस्कार करता हूं। इसलिये साधु रूपवान् स्वपर का अधिक उपकारक है. श्रावक का तीसरा गुण। प्रकृति से सौभ्य दृष्टि (शांति प्रकृति) जो पुण्यात्मा इस लोक में जन्म से ही शांत मुद्रा वाला होता है वो अपन आत्मा को वार वार क्रोध से नहीं जलाता न दूसरों को सताने की इच्छा करता, इस लिये वो जहां जाता है. वहीं दूसरों को शांति देकर आप भी अंत में प्रशंसनीय हो जाता है। - अंगर्षि का दृष्टांत। __चंपा नगरी में अंगर्षि और रुद्रक दोनों विद्याथीं कौशिक आचार्य के पास विद्या पढ़ते थे रुद्रक स्वभाव से क्रोधी कपटी प्रमादी था. और अंगर्षि सरल शांत सर्वदा श्रममादी था. जिससे गुरु दोनों के गुणानुसार उनकी इज्जत करता था अंगार्ष की प्रशंसा सुनकर रोज रुद्रक जलता था, और रोज उसके छिद्र दूंडला था, एक दिन दोनों लकड़ी लेने को जंगल में गये, Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११) परंतु रुद्रक तो रास्तमें खेलनेको लग गया, और अपना कर्तव्य भी भूल गया दूसरा लकड़ी लेकर दुपहर को उसी रास्ते आया जहां रुद्रक खेल रहा था ___रुद्रक उसको दूर से देख कर घबराया, और लकडी लाने को चला रास्ते में एक बुट्टी स्त्री को देखी जो अपने छोटे बच्चे को नदी के किनारे पर शीतल हवा में बैठा कर रोटी खिला रही थी, पास में एक लकड़ी की भारी भी पड़ी थी जिस को वो बिचारी प्रातःकाल से अटवी ( जंगल ) में जाकर बड़े परिश्रम से ले आई थी, पड़ा हुवा मुफ्त का माल देख कर रुद्रक वहां शीघ्र जाकर, और वहां किसी को न देख कर, उस बिचारी बुट्टिया को मार डाली, और उस के बच्चे को रोते हुये वहीं छोड़ लकड़ी का भारा उठा कर तेजी से चला, और दूसरे रास्ते से निकल कर गुरु के पास जाकर बोला हे गुरुजी ! आपके माननीय छात्रके कर्त्तव्य सुनो, जिसकी आप रोज प्रशंसा क. रते हो ! मैं तो प्रभात में ही बन में जाकर इतना श्रम करके लकड़ी ले आया हूं; आप का प्रिय छात्र दोपहर तक तो खेलता रहा और जब मुझे लकड़ी का बोझा लाते देखा तब वो घबराया, और तब वो अटवी (जंगल ) में जाने लगा, रास्ते में एक रंक (गरीब) वृद्ध स्त्री को मार उस की लकड़ी का बोझा उठा कर अब धीरे धीरे चला आ रहा है, और कम नसीब बुद्धिया का लड़का वहीं रो रहा है। उन की बातें हो ही रही थी कि अंगर्षि आ पहुंचा । उपाध्याय ने क्रोधित हो कर उस से कहा, हे दुष्ट ! तेरा काला मंह कर यहां से चला जा । बिना कारण ऐसा कठोर वचन गुरु के मुंह से सुन कर वो रोने लगा क्योंकि गुरु के सिवाय वहां पर उस का कोई भी रक्षक न था, वह दूर देश से पढ़ने को आया था, तो भी गुरु को दया नहीं आई, और वह अंगर्षि रोता २ चला, उस की प्रकृति सौम्य होने से उस ने किसी का दोष नहीं निकाला परन्तु गांव के बाहिर दरवाजे से थोड़ी दूर जाकर वृक्ष की छायां में बैठ कर बिचारने लगा। अहा ! चन्द्र की किरणों से अग्नि निकले ऐसे शांत गुरु के मुख से कठोर वचन निकले हैं, मेरा कुछ भी अपराध हुवा होवेगा, जिसे मैं नहीं जानता हूं; अहा ! ऐसे शांत गुरु को क्रोधी बनाने वाले मुझ को धिक्कार है । धन्य है ! ऐसे शिष्यों को कि जिन्हों ने अच्छे कर्त्तव्य से अपने गुरु को प्रसन्न किये हैं। धन्य है उन्हों को ! जो Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२) किसी जीव को कष्ट नहीं पहुंचाते । इस तरह पर गुणरागी और अपने दोषों की निन्दा करने वाले अंगर्षि का शुद्ध भाव बढ़ने लगा, आत्मा में अपूर्व शां. ति होने लगी मोहनीय कर्म क्षय होने लगा, विशुद्ध भाव बढ़ते बढ़ते क्षेपक श्रेणी में आरूढ़ होकर केवल ज्ञान को अन्तर मुहूर्त में प्राप्त कर सर्वज्ञ सर्व दर्शी हुये, और देवों के आसन कं पायमान हुये और वे अवधि ज्ञान से देख कर अंग ऋषि की महिमा करने को आये देव, दुं दुं भी आकाश में बजने लगी, और नगर में आवाज होने लगी कि हे मनुष्यों सुनो ! रुद्रक छाः त्र ने छोटे बच्चे की माता को मार कर उस की हत्या का पाप अंगर्षि के ऊपर. डाला है, इस लिये उस पापी से आप का बोलने का भी धर्म नहीं है । ऐसी आकाश बानी और मधुर ध्वनी सुन हजारों लोग गांव के बाहिर यह आश्चर्य देखने को आये, और वह उपाध्याय भी आया और उसने अपने छात्र को झूठा कलंक दिया था जिसकी उसके पास क्षमा मांगी और उस छात्र से जैन धर्म को प्राप्त किया, और लोगों से अत्यंत तिरस्कार पाकर गुद्रक भी अंग पी से क्षमा मांगने को आया, और आज तक किये हुये पापों की सच्चे भाव से तमामांगकर पश्चात्ताप करने लगा, जिससे उसके सब पाप दूरहोने पर उसको भी केवल ज्ञान प्राप्त हुआ इस दृष्टांत से ऋषि अंगर्षी की तरह मनुष्य प्रकृति सौम्य होना चाहिये । ॥लोक प्रियता ॥ श्रावक को प्रथम तो लोक प्रियता प्राप्त करनी, और अपने कर्त्तव्य से दूसरों को लाभ पहुंचाना चाहिये। रास्ते में चलते कोई भी बड़ा वा छोटा मनुष्य मिलेतो उससे मधुर बचन से बोलना. अपने घर आवे तो आसन दे. ना, उठके सामने जाना, खाने पीने की खातिर करना चाहिये ऐसे कृत्यों से सब प्रसन्न होते हैं; और जो दुराचारी, कुव्यसनी, बदमाश होता है, उससे सब लोग नाराज होते हैं, किसीकी बिना अपराध झूठी निन्दा करना झूठा कलंक देना ऐसा श्रावक का कत्तेव्य नहीं है,और पर लोक विरुद्ध कार्य यह है कि जिसमें त्रसकाय को अधिक पीडा हो, राज्य लोभ से रंक ( गरीब ) लोगों को लूटना या सताना, पक्षियों को वा निर्दोषी जीवों को अपने शौख की खातिर दुःख देना, मारना, परस्पर लड़ाना,ऐसे अनर्थ एंड के सब कृत्य परलोक Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विरुद्ध है, ऐसे कृत्य श्रावक को छोड़ कर दूसरों को सुख देने वाले कार्य करना चाहिये किन्तु ये सात व्यसन तो दोनों लोक विरुद्ध होने से छोड़ने ही चाहिये। पतंचमांसंच सुराच वेश्या । पापाधि चौर्य पर दार सेवा ॥ एतानि सप्तव्यसनानि लोके । पापाधि के पुंसि सदा भवन्ति ॥१॥ जुआ, मांस, मदिरा, वेश्या गमन, शिकार, चोरी, और पर स्त्री गमन ये सात बातें अधिकतर पापी पुरुष में होती हैं ऐसे पाप छोड़ लोक प्रियता के कारण दान, विनय शील में दृढ़ होना चाहिये। दानेन सत्वानि वशी भवंति । दानेन वैराण्यपि यान्तिनाशम् ॥ . परोपि बंधुत्व मुपैति दानात् । तस्मादि दानं सततं प्रदेयम् ॥ दान से प्राणी वश होते हैं, दान से वैर नाश होता है दान से दूसरे जनभी बन्धुओं की तरह कर्त्तव्य करते हैं, इसलिये योग्यतानुसार दान जीवोंको अवश्य देना चाहिये, जिससे, आप धर्म पाकर दूसरे जीवों को भी धर्म का भागी बनाता है। ॥सुजात कुमार की कथा ॥ चंपा नगरी में एक मित्र प्रभ नामका राजा था, और वहीं एक धन मित्र नगर सेठ था, और उसकी भार्या धनाश्री थी इनके एक बड़ा तेजस्वी पुत्र उत्पन्न हुवा, लोगों ने वा स्त्रियों ने उसे जन्म से ही प्रसन्न होकर "सजात" सुजात कह कर बुलाते थे इसलिये उसके मा बापों ने भी उसका सुजात ही नाम रक्खा सुजात कुमार शुक्ल पक्ष के चन्द्रमा की तरह बढ़ने लगा जब जवान हुवा तब भी कुचाल न चलकर अच्छे भले समान बय के लड़कों को साथ लेकर परोपकार करने लगा, भगवान् के मंदिर में सब के साथ जाकर वीतराग के गुण गाने लगा और अपने अंगसे, कंठ से, धनसे पूजा सेवा करके आत्मा को पवित्र करने लगा, कभी २ धर्माचार्य के पास जाकर तत्त्व ज्ञान की धर्म कथायें सुनता कभी २ एकांत में बैठ कर धर्म चितवना करता, बाप से खर्च के लिये रुपये पैसे लेता उससेभी वह सुजात कुमार अनेक गरीबों का कष्ट निवारण करता था इससे सर्वत्र उसकी माहिमा होने लगी परन्तु वह तो Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४ ) यही कहा करता था कि यहसब जैन धर्मका प्रताप हैं ! इससे उसके अनुयायी होकर अनेक पुरुष जैन धर्म से राजी होकर देव मंदिर में जाना, गुरु सेवा करना, परोपकार करना, वगैरे उत्तम काय्यों में तत्पर हुये, सर्वत्र उसी की प्रशंसा लोगों के मुंह से निकलने लगी, उस नगर में धर्म घोष मंत्री की भार्या प्रियंगु नाम की थी उसने दासियों के द्वारा उसकी प्रशंसा सुनकर उनको कह दिया कि जिस समय सुजात को रास्ते में देखो उस समय मुझे खबर देना एक समय पर सुजात के उधरसे आने पर दासीओं ने उस सुजातको प्रियंगु को बताया उसने और परिवार ने सुजात को देख कर औरउस की रहनी करनी से सन्तुष्ट होकर सब परिवार सुजातकी प्रशंसा करने लगा जब मंत्री घरमें आया तब सब के मुख से सुजात की बातें सुनकर मंत्री ने मन मैं सोचा कि उस दुष्ट सुजाते ने आकर मेरे घर में भी कुचाल की है ! तो उसका उपाय अवश्य करना चाहिये यह सोचकर मंत्री ने राजा को एक अजान मनुष्य के साथ एक ऐसी चिट्ठी भिजवाई जिसके पढ़ने से राजा के मन में ऐसा खयाल आ - या कि सुजात राजद्रोही है, परन्तु अपने शहर में उसको मारने से तो फिसाद पैदा होगा ऐसा विचार करके उसने विदेश का कार्य प्रसंग निकाल कर सुजात को भेज दिया और साथ में पत्र दिया जिसमें लिख दिया था कि अवसर आने पर मार डालना सुजात उस पत्र को लेकर विदेश चला गया और वहां जाकर राजा को पत्र दिया; परन्तु वहां जो हाकिम था वो बड़ा दयालु था उसने एकांत में सुजात को ले जाकर कहा कि तेरी मृत्यु स है परन्तु मैं एक शर्त पर तुझे वचाऊं यदि तू मेरी भगनी के साथ शादी करे, कर्म के फल बिना भोगे नहीं छूटते यह कर्मफल मान सुजात नें मंजूर किया और शादी होगई, उसकी पत्नी के कोढ का रोग था तो भी सुजात ने पति धर्म पाल कर उसपत्नी की सेवा अच्छी तरह से कर समाधि से उसको धर्म रक्त वनादी, इसकी पत्नी ने मरने के समय तक शुभ कामना कायम रक्खी जिससे स्त्री मर कर स्वर्ग में देव हुई और स्वर्ग से आकर अपना उपमारी जो सुजात था उसे हाथ जोड़ कर कहने लगा कि, नाथ ! आपकी इच्छा क्या है सोही मैं करूं ! सुजातने कहा कि मेरा मिट जावे और मैं इज्जत से बाप से मिलूं तो फिर दीक्षा लेऊंगा । देवता ने मित्र प्रभ राजा के नगर में जाकर उसके शहर का नाश करने Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५) को आकाश में एक बड़ी शिला तैयार की राजा ने उपद्रव देख हाथ जोड़ कर प्रार्थना की कि नगर का नाश न होवे, देवता ने कहा कि जो सुजात निर्दोष है और तूने झूठा कलंक देकर निकाला है अगर तू उसे पीछा बुला कर उसकी इज्जत करेगा तो सब बचेंगे, राजा ने शीघ्र बुलाने का प्रबन्ध किया सुजात को देवता ने उद्यान में लाकर रक्खा, और राजा ने उसे बड़ी इज्जत से घर को पहुंचाया, माता पिता का दर्शन करके थोड़े रोज बाद ही सुजात ने जैन धर्म की महिमा बढ़ा कर दीक्षा ली, और मुगति में गया इस लिये लोक प्रिय होना प्रत्येक श्रावक श्राविका का धर्म पाने में अनमोल गुण है। (५) अकरता पंचम गुण । कर पुरुषको क्रोध ज्यादा होता है मानभी अधिक होता है, दूसरों के छिद्र - शोधकर गुणीको भी दोषी बनाकर अपने आप धर्म प्राप्ति नहीं कर सका है। इस लिये सुगुरुभी उसे धर्म नहीं बताते हैं, और गुरु महाराज दयासागर होकर बतातो वो अच्छी तरहसे नहीं समझसक्का बार समझे तोभी अपनी अशांतिसे उसका अनुष्ठान विधि अनुसार नहीं करता है कदाचित धर्मका अनुष्ठान विधि पूर्वक करभी लेवें ताभी अपनी अभ्यन्तर शांति बिना उसे समाधि नहीं मिलती और बिना समाधि के वह मोक्ष प्राप्त नहीं कर सक्ता इस लिये श्रावक धर्म पालने वालों में अकरता का गुण होना चाहिये। ____दृष्टांतः-एक ब्राह्मण कार्य प्रसंगात् गाड़ी लेकर माल लेने को दूसरे गांव में गया, रास्ते में रेतीली नदियें आती थीं ब्राह्मण ने बैलों की शक्ति बिना बिचारे ही एक दम बहुत सा माल भर लिया और लौटा, रास्ते में थोड़ी रेती वाली नदी में तो बैल पार कर गये परंतु घुटनुं रेती वाली नदी में बैल थक गये, ब्राह्मण ने बैलोंको मारना शुरू किया, बहुत मारने से भी बैल न बढ़े, और मारने से उनके शरीर में लोहू की धाराएं चलने लगी, और बह ब्राह्मण भी थक गया, लेकिन प्राण बैलों के निकले वहां तक उसने मारे, पीछे घर को गया तब घर वालों ने उसे पूछा कि आज इतनी देरी क्यों हुई ? बो क्रोध में बोला कि बैलों ने मुझे बहुत सताया है। मेरा माल खा Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६ ) कर मुझे ही दगा दिया है, घर बालों से सब बात सुनाई और पीछे कहने लगा कि अब कसाइयों को ले जाकर इनकी चमड़ी उतराऊंगा, घर वालों ने उसका ऐसा दुष्ट स्वभाव जान कर घर वाले सब चमक गये और उन्होंने ने विचारा कि कोई दिन हमारी भी ऐसी ही दशा करेगा, इस लिये उन्हों जाति के लोगों को बुला कर सब बात जाहिर करदी, जाति वालों ने ब्राह्मण की जगह चांडाल समझ कर जाति से बाहिर कर दिया। इस लिये क्रोधी, कर पुरुष को धर्म की प्राप्ति होनी दुर्लभ है कितने ही जन घर में दूसरों को बात ही बात में सताते रहते हैं और घरवाले उसकी मृत्यु चाहते हैं कि कब इस पापी से हमारी मुक्ति होवे ऐसा विचारा पामर कहां से धर्म पा सके ? कितने ही साधुप में भी अत्यंत क्रोधी होकर झगड़े करते फिरते हैं और गुरुजी प्रश्चात्ताप करते हैं कि ऐसे दुष्ट को दीक्षा देकर सिर्फ कर्म बंधन ही सिर पर लिया है इस लिये प्रत्येक पुरुष को क्रूरता छोड़नी चाहिये । अभ्यास से से ही आदत सुधर सक्ती है । ( ६ ) पाप भीरुता श्रावक का छठा गुण है । इस लोक में राज्य दंड और लोकापवाद को प्रत्यक्षं देख कर परलोक में पापों की शिक्षा अवश्य होवेगी ऐसा विचार ने वाला, श्रद्धालु पापभीरु पुरुषही धर्म पा सक्ता है और विवेक से विचार कर प्रत्येक कार्य करता है जिस से वह धर्म की अच्छी तरह से आराधना का और सुगति का भागी हो सक्ता है। राजा कि मगध देश में राज्य करता था उस समय राज ग्रही नगरी में काल सुरीक नाम का एक कसाई हजारों जीवों की हत्या कर धन बढ़ाता था किन्तु साथ साथ सातवी नार की में जाने के लिये पाप पुंज की ग ठड़ी बांध रहाथा, मरने के थोड़े समय पहिले उसके अनेक रोग हुये, और अग्नी में जलने की तरह उसके शरीर में पीड़ा होने लगी, उस कसाई का लड़का सुलस पूर्व पुण्य से सुशील और दयालु था, जिससे बाप के दुष्ट कृत्यों से घृणा करता था तो भी उस बाप की अंतिम अवस्था में समाधी होवे इस लिये सुलसने अनेक शांति के उपाय किये किन्तु बाप के पाप के उदय से उन उपायों से अधिक से अधिक पीड़ा हुई जिससे लड़का घबराया और Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " ( १७ ) और उसने अपना मित्र जो अभय कुमार नाम का राज पुत्र था और बड़ा, मंत्री था उससे पूछा कि अब मैं क्या करूं ? लड़के की बात सुनकर अभय कुमार ने कहा कि तेरे बाप ने जो पाप किये हैं उसका कुछ फल यहां भोग रहा है उसे चंदन के लेप से शान्ति नहीं होवेगी, किन्तु जो दुर्गंधि का लेप करे तो शान्ति होवे, बेटे ने बाप की बिना इच्छा के ही शांति के लिये अ शुचि पदार्थ का लेप कराया, इससे बाप को कुछ शांति हुई, तब वो शांति से मरा, और अपने कृत्यों का फल भोगने को नर्क में गया. सुलस कुमार ने बाप का धन्धा छोड़ दिया और दूसरा धन्धा करने लगा, रिस्तेदारों ने उसे समझाया कि बाप का धन्धा मत छोड़ उसने कहा कि पाप का फल कौन भोगेगा ? लोगों ने कहा अपन सब बांट लेवेंगे । यह सुनकर सुलस ने अपने पैर पर कुहाड़ा मार कर घाव कर लिया और जोर से बोला आके भाइयों मेरा दुःख बंटालो ! किसी ने दुःख नहीं लिया और बोले कि हम चाहते हैं कि वांटले परन्तु लेने का कोई उपाय नहीं है, तब सुलस ने कहा कि यहाँ देखते हुये भी दुःख नहीं ले सक्ने तो परलोक में लेने को कैसे आवोगे ! ऐसा कह कर उस सुलस कुमार ने वीर प्रभु के पास जाकर जैन धर्म पाकर श्रावक के व्रतों को लेकर निर्दोष जीवन वृति को निर्वाह करके वो स्वर्ग का भागी बना । बाप बेटों और रिस्तेदारों के दृष्टांत से आप लोगों को खयाल रहे कि धर्म पालने से पहिले इस पाप भीरुता गुण को प्राप्त करो । ॥ सातवां शठता ॥ अशठ पुरुष निर्मल स्वभाव का होता है वो किसी को ठगता नहीं जिससे लोग उसकी प्रशंसा करते हैं और उसके बचन पर विश्वास करते हैं, 'और जो कपटी शठ होता है वो कोई दिन अपराध न करे तो भी उसकी रोज की बुरी आदत से लोग उस से डर कर उसका विश्वास नहीं करते, जैसे कोई को सर्प न काटे तो भी सर्प के काटने के स्वभाव से ही उससे डरते हैं कपटी ऊपर से मीठा भी बोले तो भी सब डर कर उससे दूर भागते हैं हंसी ठट्ठा समझ कर उसका विश्वास नहीं करते, गुरु महाराज भी उसको व्रत पचलाया देते डरते हैं, इस लिये ऊपर से भी उचित वचन बोले श्रौ . Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८) भीतर भी को निष्कपटी होवे वो तो धर्म रत्न का भागी हो सक्ता है कहा है कि दूसरों को मीठी बातों से रंजन कर, ऐसा सीधे चलने वाले बिरले ही मिलेंगे। ... एकं प्रधान और राजा सच्चे गुरु की शोध में फिरते २ एक उद्यान में पहुंचे वहां एक मौन धारी दिगम्बर परि ब्राजक बैठा था जिसके समीप में रक्षा के ढेर के सिवाय कुछ भी नहीं था और उसकी आसन की स्थिरता देख दोनों प्रसन्न होकर नमस्कार कर धर्म सुनने की इच्छा से बैठ गये, परन्तु त्यागी ने कुछ भी उत्तर नहीं दिया न बात की, तब राजा को अधिक भाव हुवा और प्रधान से पूछा कि इन्हें क्या देवें वा ऐसे महात्माओं की किस प्रकार सेवा करें ! प्रधान को उस परिव्राजक की स्थिति कुछ मालूम हो जाने से उत्तर दिया कि हे भूपते ! आपका कहना सच है कि ऐसे उत्तम पुरुषों की योग्य पर्युपासना करनी ही चाहिये ! परन्तु वे मुंह से नहीं बोलते, न कुछ वस्त्रादि रखते, न उन्हें उनके शरीर की भी परवाह है, यदि उनके ध्यान बाद वे कुछ लेवें ऐसी.. राह देख कर बैठे तो भी निश्चय नहीं, कब उनकी समाधि पूरी होगी ! अथवा वस्त्र होता तो रत्न बांध कर जाते, ! और योंही छोड़ जावें तो कोई बदमास उठाकर चला जावे ! इसलिये मैं भी विचार में पड़ा हूं ! राजाने कहा तब चलो ! समय व्यर्थ क्यों बरबाद करना ! इतना कह कर चलने लगे कि परिब्राजक ने मुंह फाड़ा ! और इशारा से सूचना दी कि आप इसमें डालो ! मंत्री ने थोड़ी रक्षा लेकर उसके मुंह में डाल कर बोला कि हे ठग शिरोमणी ! आपकी पर्युपासन रक्षा से अच्छी होगी, त्यागी को रत्नों के फन्दे में पड़ने की आवश्यकता नहीं है । मंत्री ने राजा को समझाया कि यह कोई पूरा ठग है जो त्यागी का वेष करके भोले लोगों को ठगता है, नहीं तो रत्नों की क्या आवश्यक्ता थी यदि जो रत्नों की जो आवश्यकता थी तो फिर वस्त्रादि त्यागने की क्या जरूरत थी ! इस दृष्टांत से आजसे बदमास बेष धारियों से न ठगाना, न बदमास वृत्ति से मनुप्य जन्म हार जाना किन्तु अशठता धारण कर धर्म रत्न को प्राप्त करना, लौकिक कथा भी है किः Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६) एक लड़का बात ही बात में हंसी कर करके आनन्द मानता था, तो भी लोग उसे बच्चा जानकर उसकी बातों पर ख्याल नहीं करते थे, लेकिन बड़े होने पर भी उसकी बुरी आदत न छूट सकी, एक दिन नौकर होकर जंगल में भेड वरीयें चराने लगा और दोपहर को जोर से बूम पाड़ २ कर बोला, शेर आया २ ! चोतरफ से लोग दौड कर आये और पूछने लगे कि शेर कहां है ! वो हंसकर बोला ! यह तो मेरी आदत है ! लोगों ने उसे पागल समझ विना कहे ही चले गये, परन्तु एक रोज जब सच्चा शेर आया उस दिन लडके ने कई बूमें पाडी तोभी लोगों ने उसकी हंसी की आदत समझ कर उसकी मदद कोई भी नहीं आये कमनसीब लडके की बकरी भेडीयों का नाश हुवा और उनको बचाने को खुद गया तब शेर ने उसे भी मार डाला. इसलिये बच्चों की हंसी की आदत भी छुड़ानी चाहिये । (८) सुदाक्षिण्य. जो बडे लोग अच्छी बातों के करने की कहे उसकी करने को आदत. रखनी और अपना स्वार्थ बिगडे तो भी दूसरों का भला करना । ॥ क्षुल्लक कुमार की कथा ॥ · अयोध्या नगरी में राजा पुंडरीक राज करता था, और उसका छोटा भाई कुंडरीक था, यशोभद्रा नाम की उसकी देवांगना जैसी भार्या थी, राजा ने उसको देखकर प्रसन्न होकर उससे कुमार्ग में वर्तन करने की इच्छा से दासी के साथ बुलाई, छोटे भाई की बहु ने इस बात की उपेक्षा की तो भी राजा ने दुष्टता से उसके पति को मरवा दिया, अपने पति का मृत्यु जानकर छोटे भाई की बहु सतीत्व की रक्षा करने को देशांतर में भाग गई वहां जाकर रास्ते में साध्वीओं को देखकर उनके पास जाकर अपना दुःख सुनाया साध्वीओं ने संसार की असारता पर कुछ समझाया जिससे यशोभद्रा ने दीक्षा की प्रार्थना की परन्तु यशोभद्रा के उदर में थोडे दिन का गर्भ था उसकी सूचना उनको नहीं दी, थोडे दिन बाद जब गर्भ के चिन्ह प्रगट दीखे तब साध्वीओं ने पूछा कि ऐसा कपट तैंने क्यों किया है ! यशोभद्रा ने कहा मेरा , Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०) गुना क्षमा करो, आप दीक्षा नहीं देते और मेरे पीछे यदि दुष्ट राजा के आदमी आते तो मेरे सतीत्व का नाश होता इस हेतु से मैंने इस बात को गुप्त रक्खी थी............साध्वीओं ने एक दयालु पुण्यात्मा श्रावक जिस ने उनको ठहरने के लिये घर दिया था उसे बुलाकर समझाया उसने सब इंतजाम करके उसके गर्भ की रक्षा की और कुछ दिन बाद पुत्र का जन्म हुवा पुत्र के जन्म के होने पर साध्वी ने फिर प्रायश्चित ले करके साध्वी के भेष में ही रही और लड़का श्रावक के पास ही रह कर बड़ा हुवा, और फिर वो क्षुल्लक नामसे प्रसिद्ध हुवा आठ बर्ष का होने पर साधुओं ने उसे समझाकर साधु बनाया, वो पीछे १२ वर्ष बाद युवावस्था की दुर्दशा से पतित होनेको तैयार हुवा. तबमाता ने समझा कर दाक्षिण्यता से साधु भेष में ही रक्खा दूसरे वक्त माता की गुरुणी ने तीसरी वक्त आचार्य ने समझाकर रक्खा, तो भी संसार की पासना दूर न हुई और वो अपने घर को जाने को तैयार हुवा तब माता ने उसको समझाने के लिये रत्न कंवल और राज्य चिन्ह की मुद्रिका जो श्रावक के घर में रक्खी थी वो दिलवा कर बेटे को कहा कि तुझे जो राज्य की ही इच्छा हो तो सुख से इन दोनों बस्तुओं को ले कर जा, अयोध्या में तेरे पाप का बड़ाभाई तुझे राज्य देगा. वो कुमार चलाऔर कोई दिन श्याम के वक्त अयोध्या में राज्य मैदान में आया जहां पर नटणी नाटक कर रही थी और राजा वगैरा सब देखने को आये थे नटणी की सुन्दरता से और नृत्य से मन तृप्त नहीं होने से राजा इनाम नहीं देता था और रात्रि अधिक जाने से लड़की थक कर समाप्त करना चाहती थी और पग की आवाज भी धीमा करने जगी उसकी माता ने देखा कि सब किये हुये खेल का नाश होवेगा इस लिये मधुर स्वर से एक गाथा वोली जिसका अर्थ यह था कि इतनी देर श्रम उठा कर जो लाभ का मौका प्राप्त किया है और इस समय जो बो देवेगी तो वो व्यर्थ आयगा और फिर जिन्दगी सक रखडना पड़ेगा. क्यों कि राजा आने का मोका कचित् होता है। इस लिथे प्रमाद छोड़ कार्य चालु रख, नटणी ने नृत्य चाल रक्खा उस समय जो राज कुमार माम्बामा उसको इस प्रथा से इतना आनंद होगया था कि माय मर्यादा चोद काम Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०) भ (पृष्ट २१ वें में आठवां गुण का वर्णन पूरा कर उसे पड़ो।) ॥ श्रावक का नवमा गुण लज्जालुता ॥ जो लज्जालु होता है वो थोड़ा भी अकार्य नहीं करेगा, सदा चार का आदर कर उसे अच्छी तरह पालन करता है, और प्राणांत का आने पर भी उसे छोड़ता नहीं हैं। ' एक नगर में चंड रुद्र नाम के आचार्य आये वे चारित्र में दृढ़ होने पर भी क्रोधी अधिक होने से निरंतर एकांत में बैठ सूत्र पठन और स्मरण में रहते थे एक दिन एक शेठ का पुत्र रात को मित्रों के साथ साधुओं के पास आया उस वक्त नव विवाहित युवक के मित्रों ने वाल चेष्टा से कहा साधुनी महाराज ! हमारा यह मित्र वैरागी होकर आपके पास दीक्षा लेने को आया है आप उसे साधु बनादो । चेले समझ गये कि ये ठट्ठा करते हैं उत्तर नहीं दिया वारंवार मित्रों ने चेलों को सताये अतएव शिष्यों ने कहा कि आप हमारे गुरु महाराज के पास ले जाओ ऐसा सुन वे भीतर कमरे में जाकर गुरु जी से भी वही कहने लगे, गुरु जी चुप रहे किंतु मित्रों ने परणे हुए लड़केको आगे कर लीजिये महाराज! इसे चेला बनाइए! तो भी गुरुजी न बोले तब उन्होंने धक्का देकर उस युवक को गुरु के पास भेजा गुरु ने लड़के को पूछा क्यों तू दीक्षा लेना चाहता है ? उसने कहा हां, तब ठीक है ऐसा कह कर एक दम गुरु ने क्रोधित हो उसे पास बैठा कर लोच करना शुरू किया मित्र पकराये और भागे जाते जाते बोले कि हम तो हांसी करते थे. आप उसे छोड़दो गुरुजी ने लोच करके कहा यदि हांसी की है तो उसका यह दंड है अब जैसी तेरी इच्छा, नव युवक विचार ने लगा कि अब घर को किस तरह जाऊं? मा बाप भी क्रोधी होंगे मैंने साधुओं को व्यर्थ सताये तो अब घर को क्यों माउं? मुंद होकर लोगों को मुंह कैसे दिखाऊं ? और जो गुरु के सामने दीक्षा लेनी स्वीकार किया है तो उसे पार उतारना ही चाहिये। - सज्जन पुरुषों के वचन पत्थर में खुदे हुए लेख की तरह अमिट होते हैं ऐसा निश्चय कर वो बोला कि हे गुरो ! आप उन लड़कों के कहने पर स्याल न कीजिये मैं तो सच्चा ही आपका शिष्य हुआ हूं और वो पार Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२.) व उतारूंगा आप अब यहां से बिहार करें क्योंकि आपने मुझे चक्रवर्ती के पदसे भी अधिक उत्तम पद पर स्थापन किया है किंतु संसार में रक्त मेरे मा बाप और सासु सुसरे को यह बात नहीं रुचेगी वे बिघ्न कर मुझे घर को ले जायेंगे और जैन धर्म की हीलना करेंगे गुरुने कहा अंधेरे में मुझे दीखता नहीं है वो बोला मैं उठा लेता हूं दोनों उप करण लेकर चले रास्ते में गड्डे आने पर चेला ठोकर खाने लगा तब पीड़ा होने से गुरु ने उस के माथे पर मारना शुरू किया तो भी लड़का हिम्मत रख चलने लगा फिर ठोकर खाने पर गुरु ने उसे अधिक पीट कर कहा हे दुष्ट ! ऐसा टेढ़ा रास्ता क्यों लेता हे ! तो भी चेला मन में विचारने लगा ? कि मैं कैसा अधम हूं गुरु की सेवा के बदले ऐसे दुख देने को टेढ़े रास्ते में ले जाता हूं ? इस तरह पवित्र भावना में चलते हुये और ठोकरें खाने से पग में लोहू नीकल ने से और लोच किये हुये मस्तक में मार पड़ने से बहुत पीडित होने पर भी क्रोध न करने के कारण उसने थोड़ी देर में तपक श्रेणिक प्राप्त की और केवल ज्ञानी हुआ तब सब प्रत्यक्ष दीखने से वह सीधा चलने लगा गुरु बोले अब कैसे सीधा चलता है ! उसने कहा आपकी कृपा से मुझे दीखता है गुरु वोले मुझे क्यों नही दीखता वो बोला कि आपके प्रताप से, ज्ञान हुआ है गुरू ने पूछा कि केवल ज्ञान हुआ है! उसने कहा हां गुरू नीचे उतर कर पश्चात्ताप करने लगे कि मैं ने कैसा अधम कृत्य किया है ऐसे उत्तम पुरुष को व्यर्थ दंड दिया है। क्या यह साधुता थी कि ऐसे कोमल लोच किये हुए सिर पर मैं ने पीटा ऐसा पश्चात्ताप करने से उनको भी केवल ज्ञान हुआ दोनों जगत्पूज्य हो आठ कर्म का नाश कर क्रम से मुक्ति को गये इस दृष्टांत से यह बताया है कि लज्जालु पुरुष अनर्थ नहीं करता, और कदाच भूल से दूसरों को पीडक होजावे तो भी पीछे इस सुशिष्य की समान अनेक कष्ट आने पर भी अपना दोष समझ भविष्य में दूसरों को पीडक नहीं होता व्यवहार में भी जो जो वचन मुंह से निकाले वो पूर्णतया विचार कर निकाले और निकल बाद उसे बराबर पार उतारे क्योंकि उसके वचन से दूसरे पुरुष विश्वास कर दूसरों से व्यवहार करते हैं उस वक्त जो वो कह देवे कि मैंने तो हांसी में कहा था तो दूसरे अच्छे पुरुष बीच में फंस जाते हैं। ... .. Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१) दे दिया उसने जहां रत्न कंवल फेंका कि फिर औरों ने भी दान दिया तब राजा को बिना इच्छा ही दान देना पड़ा और नटणी का भाग्योदय खुल गया राजा ने दान देकर उसी समय मर्यादा उलंघन करने वाले कुमार को पकड़ कर प्रभात में लाने, की आज्ञा दी. आते ही राजा ने पूछा कि तू कौन है ! और हमारे पहिले दान देकर मर्यादा भंग क्यों की थी ! वो बोला कि मैं आपका भतीजा हूं और मेरी माता जो साध्वी हुई है उसने मुझे यहां भेजा है । और प्रथम दान देने का सबब यह है कि वर्षों तक चारित्र मैंने पाला और अब थोड़ी अवस्था वाकी रही है ऐसे समय में उसे छोड़ चारित्र भ्रष्ट करने के लिये राज्य के लोभ में आया था अब इस गाथा से मुझे शिक्षा मिली है कि थोड़े में चारित्र का लाभ क्यों हारना जो चारित्र मुक्ति तक पहुंचाने वाला है । राजा बोला कि तू आया है तो अब राज्य ले, अाग्रह करने पर भी उसको स्पृहा न हुई तव राजा चुपरहा दूस रों को पूछा कि आपने क्यों दिया ! एक बोला कि मै दुष्टों से मिल आप का द्रोह करना चाहता था किन्तु उस गाथा से मुझे बोध हुवा कि आज तक राजा का निमक ख कर अब आखिर अवस्था में यह क्या करता हूं, और दूसरे दोनों ने ही अपने दुष्ट कृत्योंकी समालोचना की, और तीनोंने चुलक कुमार के पास से दक्षिा लेने को राजा से आज्ञा मांगी और आज्ञा मिलने पर दीक्षा लेकर सुगति के भागी हुयें. इस दृष्टांत से यह बोध लेना चाहिये कि जो कोई बड़ों के दाक्षिणता से भी धर्म में रक्त रहता है और बिना इच्छा भी धर्म पालता है वो कोई दिन सीधा मार्ग पर आ सकेगा और दूसरों को भी तार सकेगा। . (१०) दयालुता. धर्म का मूल दया है उस दया के लिये ही सब महावत है जिनेश्वर के सिद्धांतों का रहस्य यही है कि और जीवों को मन, बचन, काया से अपनी तरफ से शांति उपजानी, और दयावान् मनुष्य ही धर्म पाकर उस की रक्षा · करेगा इसलिये धर्म रुचि का दृष्टांत कहते हैं एक जागीरदार का पुत्र गृहवास में जीवों को दुःख देना देखकर दयालुता से वैरागी होगया था. तापसा Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२) होने से अपने निर्वाह के लिये बन में जाकर जमीनमें से कंद खोदकर लाना पडता था, जमीन बोना पडता था, बगीचे में पानी डालना पड़ता था पेड़ों को काटने पडते थे वो देखकर उन हरी बनस्पति में जीव जानकर उन को दुःख होता देखकर वहां से भी घबराया और विचारने लगा कि कब सब जीवों को शांति देने वाला होजाऊं! चतुर्दशी के दिन सबने उपवास किया और बनस्पति हरी को दुःख नहीं देने की सब को आज्ञा हुई उसको अत्यन्त आनन्द हुबा कि ऐसा सदा ही होवे तो बहुत अच्छा, फिर और साधुओं को उस रास्ते से देख कर बोला कि आप आज बन में क्यों जाते हो ! आपने आज सब जीवों को अभयदान दिया है और आप घन में क्यों जाते हो ! एक साधुने कहा हे भद्रक ! हम साधु हैं हम बन में जाकर हरीयाली वगैरह किसी को दुःख नहीं देते ऐसा सुननेसे उसको बहुत ही आनन्द प्राप्त हुआ फिर वो साधुओं को कह कर उनके पास साधु धर्म स्वीकार किया, साधूओं ने उसे कहा साधु तपस्वी की तरह फल नहीं खाते हैं वे तो ग्रहस्थी की दी हुई रोटी ऊपर ही सन्तोषसे दिन गुजारते है. ऐसा प्रत्यक्ष देख कर निरंतर साधुधर्म की प्रशंसा कर सद्गति का भागी हुआ इसलिये श्रावक को प्रथम दयालुता स्वीकार करनी चाहिये पीछे श्रावक के व्रत लेने चाहिये जिससे अर्थ दंड और अनर्थ दंडे का विवेक रख सकेगा, एक पत्ते की जरूरत हो तो दूसरा कदापिन तोड़ना चाहिये क्यों कि इसमें भी जीव हैं और जीवों को दुःख नहीं देना यही धर्म है. कितनेक आदमी जान बूझकर विना समझे हरीपर चलते हैं, पानी में कूदते है। आग लगाते है, काड़ी देकर घास फूस को नलाते हैं उनकी जरा गमत में हजारो छोटे जीवों का नाश होता है.। श्रावक का ११ वा गुण मध्यस्थ सौभ्य दृष्टि। जिसे कोई भी दर्शन धर्म का आग्रह नहीं है वो पुरुष सत्य असत्य जान सक्ता है, और विवेक चक्षु से अनेक मतों का रहस्य जान उस में सार खेंच सका है, और सार खेंच कर गुणों का अनुरागी और दोष का त्यागी हो सत्ता है। और सत्य पक्ष को स्वीकार करके भी दूसरे मत वालो पर टेप Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३) छोड़ कर के उन पर भी सोम दृष्टि रख उनको शांति देता है आज के समय में जगत में अपने मंतव्य को सच्चा मान दूसरों के खंडन के आक्षेप के ट्रेक्ट निकाल कर परस्पर देष वढाते हैं वो बहुत बुरा है सरकार उन्हें दंड करती है, कितावों को रद्द कर दी जाती जाती है, समय जौर धन का नाश होता है, बुद्धि का दुरुपयोग होता है, इस लिये भव्यात्माओं को ऐसे झगड़ों से हमेंशा दूर रह कर आत्महित करना चाहिये इस गुण ऊपर । सोमवसु ब्राह्मण की कथा ॥ सोमबसु ब्राह्मण को परिवार के गुजारा के लिये दुकाल में एक शुद्र का धन लेना पड़ा उससे उसे भी बड़ा पश्चाताप हुवा और उसका प्रायश्चित लेने को गुरू शोधने को चला रास्ते में एक बावा मिला उसे पूछा कि आप क्या तत्व मानते हैं. बो मठवासी बाबा बोलाकि गुरू महाराज जब मरगये तब उन के पास हम दो शिष्य थे, उस समय गुरूजीने हमें कहाथा कि मीठा खाना, सुख से सोना और लोक प्रिय होना, किन्तु हम दोनों उनसे अधिक पूछना चाहते थे किन्तु इनका देहान्त होगया जिससे हम दोनों अलग हो गये, मैं तो यहां रहता हूं और दूसरा शिष्य दूसरी जगह है, मैं यहां रह कर मंत्र, औषध से लोगों का चित प्रसन्न करता हूं, जिससे वे मीठे भोजन देते हैं, और मैं खाकर सुख से सोता हूं, सोमवम् को वो बात अच्छी न लगी जिसके गुरू के बचन में क्या परमार्थ है वो ढूंढने को उसके गुरू भाई का पता पूछा उसमें बताया और वहां से सोमवसु चला, वहां जाकर उससे पूछा उस समय कोई गृहस्थी उसे नोता देकर जीमने को बुलाने को आया था तो बो बोला कि आज हमारे यहां एक अतिथि पाया है गृहस्थी बोला उसे भी ले चलो, दोनों साथ गये मिष्टान्न खाकर आए और रात को शास्त्र पढ़ कर आनन्द से सो गये प्रभात में सोमवसु को समझाया कि मैं एक दिन मीठा भोजन खाता हूं और दूसरे दिन उपवास करता हूं गुरू के बचनानुसार मीठा खाता हूं और उपवास से भूख भी दुसरे दिन अच्छी लगती है जिससे सादा भोजन भी मीठा लगता है और किसी के पास कुछ लेता नहीं जिससे लोग प्रिय हो गया हूं सोमघसु को उससे पूरा संतोष नहीं मिला जिससे पाटली पुत्र ( पट.. Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४ ) रा) में त्रिलोचन नाम का पंडित के घर आया और दरबाजे पर सिपाई से पूछा कि पंडित जी हैं ! उत्तर मिला अभी मिलने का मोका नहीं हैं, तब खड़ा रहा उस समय एक लड़का बगीचा से फूल दांतण लेकर आया था एक आदमी ने उससे दांतरण मांगा, लड़के ने नहीं दिया और घर के अंदर जा पीछा कर फूल बगैर : वांटने लगा उस लड़के के जाने बद सिपाहि से पूछा कि लड़के ने प्रथम क्यों नहीं दिये, और पीछे दिये इसका क्या कारण उसने उतर दिया कि प्रथम स्वामी के सत्कार के लिये सब उसे अर्पण कर दिये, पीछे जो बाकी बचे सो सब को बांटना चाहिये। वो उसनें बांट दिये । थोडी देर में दूसरे घर पर दो आदमीने एक औरत से पानी मांगा. औरतने एक को घर में से लोटा लाकर दीया, दूसरे को धोबे से पानी पिलाया, सिपाई से पूछा कि औरत ने ऐसा भेद क्यों रक्खा ! उत्तर मिला कि एक उसका पति दिखता है दूसरा कोई मामुली आदमी है, इसलिये पति का सत्का र करना पत्नी का धर्म है. थोड़ी देर बाद एक पालखी में बैठ कर छोटी युबति आई जिसके आगे कितने ही आदमी उसकी प्रशंसा करते थे । सिपाई से पूछा कि यह क्या है? उत्तर दिया कि यह पंडित की लड़की विदुषी ( पढ़ी हुई ) है राजा के अंतःपुर में आज समश्याएं पूछी उसमें यह लडकी उत्तीर्ण हुई वहां से सिरपाव लेकर राज्यमान से आई है. सिपाई से पूछा क्या समस्या थी उत्तर मिला किंतेन शुद्धेन शुद्धयति यह समश्या के तीन पद और ब नाओ. पीछे लडकीने इस तरह उत्तर दिया है वह सुनो. यत्सर्व व्यापकं चित्तं मलिनं दोष रेणुभिःसद् विवेकांवु संपर्कात्, तेन शुद्धे न शुद्धयति ॥ ॥ सोमवसु विचार मेंपड़ा कि जिस पंड़ित का द्वारपाल सिपाई और लडकी भी ऐसे विद्वान हैं तो पंडित कैसा भारी विद्वान होगा ? थोडी देर में पंडित जी के मिलने का समय हुआ और वो भीतर गया और पंडितजी से मिला Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२५) ---11. और उनके वचनों का परमार्थ पूछा. उसी समय एक छात्रने पंडित जीसे पूछा कि मैंने अपने गुरुजी की स्त्री का स्पर्श किया उसका क्या प्रायश्चित है? पंडित जीने कहा कि गरम लोहेकी पुतली से स्पर्श ( आलिंगन) करो। गरम पुतली मंगाकर जहां लड़का स्पर्श करने लगा कि तुर्त पंडितजीने रोका कि बस । हो. गया प्रायश्चित । लड़के की धैर्यता की सब प्रशंसा करने लगे। सोमवसु भी पूछने लगा कि मेरा यह दोष है उसका मुझे प्रायश्चित दो, और पूर्व के तीन वचनों का परमार्थ समझावो कि मिठा खाना, सुख से सोना लोगप्रिय होना वो क्या है। पंडितने उत्तर दिया कि देखो यह मट्टी के दो गोले है उनमें भीतको को न लगता है? सूखा वा गीला? सोमबसु बोला कि गीला! पंडितने कहा कि ख्याल रखो कि इस तरह संसार में ममत्व से पाप होता है इसलिये राग छोड़ो सोमवसु बोला ठीक, चारित्र लूगा अब तीन बचनों का परमार्थ सगझावो, पं. डित बोला कि । जो सर्वथा त्यागी है, उसके पास दीक्षा लो वो समझायेगा. तो भी सोमवसुंने पूछा तब पंडित बोला कि जो राग द्वेष रहित आरंभ पाप के त्यागी शुभ ध्यान में रक्त होकर सोता है वो सुख से सोता है, और भंवराकी तरह गोचरी लाकर निर्दोष वृत्ति से जीवन गुजारने से परभवमें सद्गति के सुख भोगता है, और जडीबूटी मंत्र चमत्कार बिना ही परलोकके हितार्थ रक्त रहता है वो सब उत्तम लोगोंको माननीय बंदनीय और प्रिय होता है न किसी के घ. न मालकी वांछा करता है! ऐसे गुरुकी शोध में सोमवसु पंडितकी रजा लेकर चला, रास्ते में एक उद्यान में सुघोष गुरु मिले, उनहे मिल बात चित की गुरु ने समझाया रात्तको उनके पास ही सोगया मधरात के समय वैश्रमण (कुबेर) लोगपाल आया और सुघोष आचार्य को वंदन कर बोला कि आपने जो मूत्र पढा उससे मेरा चित्त प्रसन्न हुआ है। इसालये आज्ञा करो कि मेरा क्या प. योजन था! क्या चाहते हैं, आचार्यने कहा कि प्रयोजन नहीं हैं. सिर्फ सूत्रोंको याद करना और उसमें रात्रिका निर्वाह करना इसलिये सूत्र पहा था आपको धर्म लाभ हो, कुबेर वंदन कर अदश्य हुआ. प्राचार्य की निस्पहता देख सोमवसु को स्थिरता होगई और परिचय से मालूम भी होगया कि जैसे बोलते हैं वैसा पालन करने वाले भी हैं. उसने वहां ही दीक्षा ली और सद्गतिका भागी हु. Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६) आ, इस दष्टांत से यह बताया है कि प्रथम अच्छे गुरुका शोध करने में मध्यस्थता गुण चाहिये कदाग्रही प्रथम से ही आग्रह रखकर रागी होकर दोष नहीं देखता है और पीछे गुरु के दोष शिष्य को दुःख दायी होते हैं. इसलिये निर्दोपं ज्ञानी गुरु के चरणकी सेवा करने पहले मध्यस्थ सौम्य दष्टि होना आवश्यक है. किंतु अच्छा धर्म पानेबाद दूसरोंको कटाक्ष वचन नहीं कहना संतोष से समजाया न समझे तो भी आप कोध न करें। (१२ ) गुणानुरागी होना .. श्रावक धर्म पाने पहले गुणानुरागी होना चाहिये. जिससे वो गुणी का ही पक्ष कर गुण रहित की उपेक्षा करे, और पीछे गुणों को लेकर उसकी रक्षा करके दिन प्रतिदिन गुणों की वृद्धि करे। कोई ऐसा भी कहते हैं कि शत्रोरपिगुणा ग्राहया, दोषा वाच्या गुरोरपि । अर्थात् शत्र से भी गुण लेना, और गुरु के भी दोष को प्रगट करना इस बचनानुसार दूसरोंकी निन्दा करनाभी ठीक है उनको यह उत्तर हैकि निन्दा करने वाला जितना समय व्यर्थ करेगा उतने समयमें निन्दा न करनेवाला अधिक गुण प्राप्त कर लेवेगा और निन्दकको पीछे व्यर्थ क्लेश भी बढता है इसलिये समाधि वांछक पुरुषों को दूसरों के दोषोंको देख उसकी उपेक्षा करनी चाहिये, जैसे कि कर्म वशात् किसी ने दुराचरण किया उसे समझाना ठीक है न समझे तो जगह २ उसकी निन्दा न करनी न उसका संग वा प्रशंसा करनी उसे उपेक्षा कहते हैं वो उपेक्षा धारण करनी क्योंकि- ' सन्तोप्य सन्तोपि परस्प दोषा, नोक्ताः श्रुता वा गुणमाव हन्ति । वैराणि धक्तुः परिवर्धयन्ति, श्रोतुश्च तन्वन्ति परां कुबुद्धिं ॥ - और भी अधिक दोषी जनों को देखकर मन में चिंतबना करे कि “अ. नादि काल से जीव दोषों से भरा है, किन्तु जो गुण पाना वोही दुर्लभ है इसलिये किसी में गुण देखने में आये वोही आश्चर्य है ! दोष तो हैं ही ! उस में निन्दा क्या करनी ! बालक में मंद बुद्धि होना आश्चर्य नहीं है किंतु उसमें Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२७) 4 वीक्ष्ण बुद्धि होना ही आश्रर्य जनक है । कुबुद्धि होना मुश्किल नहीं है, सुबुद्धि प्राप्त होना ही मुश्किल है ऐसा समझ दोषों की उपेक्षा कर गुणानुरागी होना, लौकिक में गुल ये हैं कि दूसरों का विनय करना और दूसरों का भला करना है वे ही लोकोत्तर गुण होते हैं और त्याग वृति, तथा सम्यक दर्शन प्राप्त कर और निरीह होकर मोक्षार्थ के लिये ज्ञान पढ चारित्र लेना इसलिये लौकिक लोकोत्तर गुण जिसमें अधिक हो उसका संग कर आत्महित करना चाहिये ऋषभदेव प्रभु का जीव जो धनासार्थवाह था उसने मुनिराजों को सेवा करके दान देकर गुणानुराग कर सम्यक्त्व प्राप्त किया, बाद में तीर्थंकर पद पाकर अनेक जीवों को बोध देकर इस अव सर्पिणी काल में प्रथम धर्मोपदेशक होकर मोक्ष में गये जिनको जैन वा जैनेतर ऋषभदेव नाम से स्मर्ण करते हैं. हेमचंद्राचार्य भी लिखते हैं कि आदिमं पृथिवीनाथ, मादिमं निष्परिग्रहं । आदिमं तीर्थनाथं च वृषभ स्वामिनं स्तुमः ॥ १ ॥ ( १३ ) सत्कथक. जो आदमी अशुभ कथा करेगा उसका विवेक रत्न नष्ट होगा और मन में मलिनता होगी इसलिये स्त्री, भोजन, देश और राज कथा छोडनी चाहिये. स्त्रीयों की कथा करने से दुराचार की बृद्धि होती है, भोजन की कथा से घर के भोजन में संतोष नहीं होता, देश कथा से सर्वत्र घूमने की इच्छा होती है राज्य कथा से राजद्रोह का प्रसंग आता है, इस लिये ऐसी कथाओं को छोड़ भव्यात्मा को धर्म कथा में राग धरना जैसे कि तीर्थं करोंने परोपकार के लिये राज्य बैभव को भी छोड़ दीक्षा अंगीकार की है. और दुष्टों ने अनेक दुख दिये तो भी उन पर क्रोध नहीं किया जिससे केवल ज्ञान पाकर मोक्ष में गये आज तक उनका ध्यान दरेक मोक्षाभिलाषी पुरुष करता है, मंदिरोंमें लाखों रुपये खर्च करे धनाढ्य धर्मी श्रावक मनोहर शांत मूर्ति स्थापन कर उनका पूजन करते हैं मुनिराज भी उनका दर्शन कर आत्मा को पवित्र करते हैं पहाड़ों पर उन्होंने जिस जगह मुक्ति पाई है वहां संमेत सिखर में २० तीर्थं करके मंदिर आज भी मौजूद है और उन पवित्र प्रभु के जन्म से Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८ ) ही देवता इन्द्र बहुमान करते हैं उनका च्यवन ( गर्भ में खाना ) जन्म, दीक्षा, केवल ज्ञान और निर्वाण (गोक्ष गमन) कल्याण रूप होने से पांच कल्याणक माने जाते हैं उन दिनों में गुणार्थी, तपश्वर्या कर जाप करते हैं चैत्र सुदी १३ के दिन महावीर प्रभु का जन्म होने से जंगह जगह महावीर जयंती होती है पोष वदी १० को पार्श्वनाथ प्रभु का जन्म होने से बहुत से लोग एकाशना मावीका तप करते हैं, श्रावण सुदी ५ के दिन नेमिनाथ प्रभु का जन्म Fit से लोग उपवास करते हैं, उन जिनेश्वरों के कल्याणककी तिथिऐं याद रहे इस लिये कल्याणक तिथिओं की टीप छपाकर मंदिर वगैरह में लगाते हैं वा घर में रखते हैं, जिससे ख़्याल रहता है कि अहो ! आज उन जिनेश्वर कल्याणक है ! धन्य है मेरामनुष्य जन्म ! कि मैं आज उन पवित्र पुरुष का स्मरण कर रहा हूं । ( कल्पसूत्र का हिंदी भाषान्तर पढो ) जैन में तीर्थ दो प्रकार के हैं एक स्थावर तीर्थ, और दूसरे जंगम तीर्थ. साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका, धर्म के अंग होने से और उनमें रह कर तिरना होता है इसलिये उसे तीर्थं कहते हैं ऐसे ही जहां तीर्थ कर का कल्याण क हुआ हो, वा जहां पर उन्हों ने ध्यान किया हो उपदेश दिया हो वहां पर मंदिर बनाते हैं वहां जाकर भव्यात्मा अपने आत्मा को पवित्र करते हैं उससे भ्रातृप्रेम बढ़ता है तीर्थों की यात्रा में आने वाले मुनिराजों का दर्शन और धर्म व भी होता है घर से निवृति होती है पाप व्यापार छूट जाता है, इससे महाँ जा कर भव्यात्मा तिरते हैं । इस लिये उसे स्थावर तीर्थ कहते है. ऐसे तीर्थं लौकिक में भी हैं परंतु जैनों मैं वैराग्य दशा अधिक होने से वीतराग की जहां मूर्त्ति वा चरण हो वहाँ ही जाकर • ध्यान करने का गुण होने से उनके तीर्थ लोकोत्तर कहे जाते हैं जैसे कि अष्टापद गिरनार, संमेत शीखर शत्रुंजय सार । पंचे तीरथ उत्तम ठाम, सिद्ध थया तेने करूं प्रणाम || इसके सिवाय और भी तीर्थ महात्म्य की किताबों में उनका वर्णन है शास्त्रों में भी लिखा है कि ऐसे तीर्थो में जाने से भव्यात्माओं का दर्शन निल होता है अर्थात धर्म श्रद्धा अधिक होती है । Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्रावकों को सत्कथा निरंतर श्रवण करने को मिले इस लिये गणधर भगवतों ने प्रभु के पास जो जो वचन सुनेथे उनमें महान पुरुष के चरित्रों को भी सूत्रों में लिखे हैं ज्ञातासूत्र कथाओं से विभूषित है साथ साथ इस दृष्टांत का सार लेना भी बताया है विपाक सूत्र में धर्मी और पापियों के १०-१० दृष्ठां त बता कर पुण्य पाप के यहां पर बा दूसरे भव में क्या फल भोगने पड़ते हैं वो अच्छी तरह बताये हैं रायपसेणी सूत्र में सूर्याभ देव का दृष्टांत बता कर उसका तीन भव का वर्णन बताया है धर्मोपदेश के मुख्य अधिकारी साधु होने से वे साधु गांव २ शहर २ फिर कर धर्म सुनाते हैं। __इनकी गेरहाजरी में उत्तम श्रावक भी धर्मोपदेश के ग्रंथ सुना सके इस लिये अनेक चरित्र वा रास भी बनाए हैं आंबिल की ओली में श्रीपाल चरि त्र सुनाते हैं जिसमें मयणा सुंदरी ने कोढिया पति का भी सम्मान कर सतित्व पाल कर धर्म के प्रताप से पति को निरोगी बनाकर पति को धर्म में जोड़ कर उसका बापका राज्य पुनः दिला दिया है, और जिसने अपने पापको भी अपने उत्तम वर्ताव से चकित किया है उन बातों से चाहे ऐसा कठोर हृदय बाला पुरुष वा स्त्री भी धर्मी हो जाते हैं इस लिये ऐसे उत्तम कथा के ग्रंथ रत्न रूप होने से उनकी बहु मान्यता कर जो पढते हैं वा सुनते हैं वे ही धर्मभागी हो सक्ते हैं क्योंकि उनके विवेक चक्षु खुल जाते हैं। (१४ ) सुपक्षयुक्त __धर्म रक्त सदाचारी परिवार वाला पुरुष विना विघ्न धर्मपाल सका है और उसे धर्म कार्यमें उसका परिवार सहायक होने से अच्छी तरह आराधना होने से मुक्ति तक पहुंच सक्ता है। अर्थात् घर में नोकर भी सदाचारी होना चाहिये और अपने लडके लडकी का संबंध भी सदाचार धर्मात्मा गृहस्थाओं के लड़की लड़के के साथ करना चाहिये कि पीछे पश्चात्ताप करना न पड़े। . पुंड वर्धन नगर में दिवा कर सेठ रहता था उनकी भार्या. ज्योतिमति से प्रभाकर पुत्र हुआ उनका धर्म बुद्ध का बताया हुआ था जिनमें मॉस Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३०) खाने का प्रचार भी था एक वक्त प्रभाकर पुत्र हस्तिनागपुर को व्योपार्थे गया जौर जिनदास सेठ के घर को ठहरा उसकी भार्या पद्मश्री थी, और जिनमति नाम की पुत्री थी उतका जैन धर्म था, व्योपार से मभाकर का जिन दास से मिलना हुआ, और जिनमति के गुणों से रंजित होकर उसको उस के बाप से मांगी सेठ ने धर्म भिन्न होने से ना कही तब वो प्रभाकर साधु के पास जाकर कपटी श्रावक, बन कर धर्म कथा सुनने लगा वारह ब्रत लेकर यथा योग्य भक्ति कर साधुओं को प्रसन्न किये जिससे जिनदास भी उसे धर्म बंधु जान अपनी पुत्री दी वो एक दम विवाह हो जाने बाद सेठ की रजा ले कर अपने बाप को मिलने को स्वदेश गया वहां जाने से जिनमति को अत्यन्त कष्ट होने लगा क्योंकि धर्म बौद्ध होने से बे मांस भक्षण बगैरह भी कर सक्के थे, जैनों में जीव दया प्रधान होने से मांस का नाम भी नहीं लेते थे, उसका मन रोज रोज खेदित हुआ, परन्तु कपटी पति को दया नहीं आई और मांस का धुंवां भी लेने को जिनमति नहीं चाहती थी, जिससे पति भी घबराने लगा कुटुंब में क्लेश रहने से घर की संपत्ति भी नाश होने लगी प्र भाकर ने बौद्ध गुरू से कहा उसने कुछ मंत्र बल से जिनमति को भृष्ट करना चाहा तो भी जिनमति न डरी, न मांस को पकाया न खाया, न मांस भक्षी बौध साधुओं का सम्मान किया किंतु अपने जैन धर्म के साधुओं से जाकर कहा कि अब क्या करूं ? गुरु ने नबकार मंत्र का ध्यान बताया जिससे पति भी सुधर गया और सासु सुसरा भी मांस भक्षी बौध धर्म छोड़ जीवदया प्रधान जैन धर्म के पालक हुए जो उस समय जिनमति डर जाती तो महा अनर्थ होता इस लिये जहां तक बने वहां तक सत्संगति सत्यत करना चाहिये कि जिससे ऐसा रोज का घरमें क्लेश न होवे न असमाधि होवे। ( १५ ) दीर्घ दी का वर्णन जो दीर्घदर्शी पुरुष होता है, वो कार्यको नहीं. बिगडने देता है और थोडा बीगडे तो भी सुधार सक्ता है और थोड़े खर्च से ज्यादा लाभ मिलाता है और हजारों मनुष्यों को दुःख से और पाप से बचा सका है। Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३१) महाधन नामका एक सेठ राजग्रही नगरीमें रहता था उसकी भार्या सुभद्रा नाम की थी उसके चार सुशील पुत्र धनपाल, धनदेव, धनगोपं, धनरक्षित नाम के थे. वे सभी ७२ कला युक्त होने पर भी अपनी सौजन्यता से लोगों को प्रसन्न करने वाले थे तोभी बृढा सेठ विचारने लगा कि भविष्य में उनकी भार्या उनका धनका दुरुपयोग न करे और सब मिलकर घर में शांति में रहे इसलिये उनकी परीक्षा कर उनके घर का भार देना चाहिये ऐसा निश्चय कर अपने रिस्तेदारों को एक दिन नोता देकर जिमने बुलाया वे सभी आये तब जिमा कर उनके सामने पुत्र बधुओं को बुलाकर मुंठी मुंठी अनाज दिया कि उनको रखो जब कार्य पडेगा तब मैं तुम्हारे से पीछा लूंगा जो "उझिता"थी वो विचारने लगी कि ऐसा अनाज घर में बहुत भरा है, क्यों रखना, उसी समय घर में जाकर अनाज को फेंक दिया दूसरी "भक्षिका" नाम की थी वो बिचारने लगी कि अनाज को व्यर्थ क्यों फेंकना ! घर में जाकर खा गई, तीसरी रक्षिका थी उसने विचार कर संदक में संभाल कर रख दिया चौथी जो रोहिणी थी उसने विचार कर अपने बाप के वहां बोने को भेज दिया। - थोड़े वर्ष जाने बाद इसी तरह रिस्तेदारों को जिमा कर सब के सामने बहूओं के पास वोही अनाज मांगा चार बहूओं ने पास आकर अनाज देने के समय तीनोंने एक एक मूठी पीछा दिया किन्तु चोथी बहू बोली यदि आप को अनाज पीछा चाहिये तो मेरे बाप के वहां से मंगालो किन्तु गाडे भेजकर मंगाना सेठने चारों को सत्य २ बात कहने को कहा उनका उत्तर सुनकर उनके योग्य घर में कार्य दिया और कहा कि जो आप उसे उलंघन करोगे तो मेरे धन का मालिक नहीं हो सकोगे ! उज्झिता को घर का कूडा निकाल फैंकने को दिया, भक्षिका को रसोई बनाने का, और रक्षिकाको घरको घेना हीरामाणिक वगैरह दिया और रोहिणी को घर की स्वामिनी बनाकर उसे सब अधिकार दिया इस दृष्टांत से मालुम होगा कि दीर्घदर्शीपना जिसमें ज्यादा था उस बधू को सत्र का स्वामित्व मिला ऐसे ही दीर्घदर्शी पुरुष : इस लोक में धर्म पाकर कीर्ति बढाता है परलोक में मुक्ति का अधिकारी होता है ! Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३२) - - ( १६ ) विशेषज्ञ गुण का वर्णन विशेषज्ञ प्राणीयोंका वा जड़ पदार्थों का गुण दोष जान कर विचार पूर्वक उनका उपयोग करता है, जिससे वो धर्म पा सकता है, और अनर्थ दंडवा पाप से बच सक्ता है. और पक्ष पाती कदाग्र ही के जाल में नहीं फँसता, म धर्म भ्रष्ट होता है, न दूसरों को फंसाता है। एक चौर का दृष्टांत । एक पुरुष पाप के उदय से चोरी करने लगा, और जहां तहां जाकर दव्य ढूंढने लगा एक समय पर तीन विदेशी पुरुष धन कमा कर स्वदेश में जाते थे उनके पीछे पीछे वो चला और उनके समान व्यापारी बनकर मित्र होगया, थोड़े दूर जाने के बाद व्योपारी विचारने लगे कि लूटारों का जंगल में गये बिना नहीं चलेगा और वे लूट लेंगे तो प्रथम उपाय करना ठीक है सबने द्रव्य व माल को बेच रत्न लिये, और तीनों ने अपनी जांघ में चीरा लगा कर उनमें रन रखकर सरोहिणी औषधि से घाव अच्छा कर लिया. चौथे ध्योपारी के पास इतना द्रव्य नहीं था जिससे वो उनका रक्षक हुआ और ध्योपारियों ने भी कहा कि तुझे हम देश में जाकर कुछ हिस्सा देंगे चोर विचार ने लगा कि मुझे तो सभी के रत्न लेने हैं अब अच्छा हुआ कि वे सब मेरा विश्वास भी करने लगे हैं। 'रास्ते में लटारों के स्थान में एक तोता आश्चर्य कारी था उसने कहा कि हे लूटारे ! आओ ! धन आ रहा है ! लूटारों ने व्यापारियों को पकड़े और कहा धन दे दो, और मुख से चले जाओ ! उन्होंने इंकार कियाऔर कहा कि हमारे पास कुछ नहीं है तव उनकी तपास कर छोड़ दिये तो भी तोता पुकार ने लगा कि मत जाने दो ! उनके पास धन है, तब उनको मारने का विचार किया तब चोर ने विचार किया कि यदि वे उनको पादित मारेंगे और रत्न निकाल लेंगे तो मैं बिना रत्न का भी मरूंगा, अब मृत्यु तो आया है। मरने के समय भी कुछ धर्म करूं । ऐसा विचार कर बोला कि हे लुटारे ! यदि जो आपको तोते का ही कहना सच्चा लगता है तो ये मेरे बड़े भाइयों को पीछे मारना मुझे ही पहिले मारदो ! Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३३) आपकी खात्री हो जाये । पीछे उनको भी मारना. लूटेरों ने उसी समय उसकी जांघ चीरी, धन नहीं मिला, दूसरी जांघ चीरी, तो भी धन नहीं मिला. हाथ भी काटे तब भी कुछ नहीं मिला तब लूटेरों ने उसकी दुर्दशा देख दया आई. तोतेकी गरदन पकड़ मारकर फेंक दिया और अपने स्थान में उदासीन होकर बैठे। तीन व्योपारी छोड़ दिये वेचलेगये किन्तु चोरके हृदय में उनके पर क्रोध नहीं आया जिससे समीप में रही हुई क्षेत्र देवता ने उसी बक्त चोर की सहाय, कर उसे अच्छा बना कर कहा कि जगत में तेरे समान क्या क्या उपकार करूं ? चाहे सो मांग ले ? बो वोला कि तोते को अच्छा बनादो? जो इस समय तडफ रहा था. उसे अच्छा बनाया, फिर देवी बोली कि. और क्या करू ? वो बोला ! साधुओं का मिलाप करादे। अब धर्म पाकर पूर्व पापों का प्रायश्चित लेकर पवित्र होकर कर्म के फंदे से छूट जाउं ? देवी ने वैसा ही किया बो विशेषज्ञ होने से सब को बचा कर लूटेरों को भी सुधारने वाला होकर साधुओं के पास जाकर मुक्ति का भाजन हुआ, इस लिये जो विशेषज्ञ होता है वोही धर्म पा सक्ता है । • श्रावक का वृद्धा नुग (१७) वा गुण जो पुरुष बड़ें। के मार्गमें चलता है वो ही इस लोक में सुखी होता है अथवा छोटी उम्र में लड़कों की बुद्धि विशाल न होने से दुष्ट लोग उनको फसाते हैं. इस लिये प्रत्येक कार्य करने में मा बाप बड़े भाई वगैरह को पूछ कर कार्य करने से अधिक लाभ होता है वैसे ही धर्म कार्य में भी जो बड़ों के पीछे जाते हैं. वे धर्म पा सक्ते हैं क्योंकि बड़ों को ज्ञान है कि पाप का फल दुःख और पुण्य का फल सुख है और अनुभव से भी वे जानते हैं कि इस तरह से बड़ों के कहने में रहने से इतना लाभ हुआ है. इस लिये बड़ों के पीछे चलना ठीक है। .. . दृष्टात ___एक राजा को जवान और बूढे मंत्री थे. राजा को एक दिन जवान ने कहा कि आप काम नहीं करने वाले बूढों को तनखा क्यों व्यर्थ देते हो। राना ने कहा, ठीक है ? कल परीक्षा कर योग्य करूंगा. दूसरे दिन सभा में Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३४) राजानेकहा कि मेरे शिर पर पैर देने वाले को क्या करना । एक युवान शीघ्र बोला के हे राजन! उस दुष्ट की इसी समय जान लेकर प्रत्यक्ष बताना चाहिए कि राजा के शिर में पैर लगाने से क्या फल मिलता है! राजा ने बूढे मंत्रीओं से पूछा कि आप की क्या राय है ? वे बोल विचार कर उत्तर देंगे. राजा की रजा लेकर वे सभी एकांत में जाकर परस्पर विचार कर राजा को कहा महाराज ! उसकी योग्य वस्तुओं से पूजा सत्कार होना चाहिये. राजा ने युवानों को बुलाये और पूछा कि क्यों आप समझे ? वे बोले नहीं. तब राजा की आज्ञा से एक बृद्ध मंत्री ने उन्हें समझायाकि राजा का प्रबल प्रताप से कौन उसके शिर पर पैर लगा सकता है । विचारो कि एक तो राजा जी अपनी मा के चरण में शिर झुकाते हैं उस माला का पेर लगने से आप उस को मार सक्त हो ? वे चुप होगये! एकही बात में युवक शांत होकर बृद्धों के चरणों में पड़े और अपनी तुच्छता छोड़ प्रत्येक कार्य में उनकी राय लेने लगे उत्तम जन की संगति से जैसे पारस पत्थर से लोहा भी सोना हो जाता है वेसे ही निर्गुणी भी गुणवान हो जाता है इस लिये गुण में भी जो बड़े हैं उनकी भी अधिक संगति करना और पाप से बचना । श्रावक का १८ वा विनय गुण । ___ सर्व गुणों का मूल विनय है, और सम्यक् दर्शन ज्ञान, चारित्र, जयेलोकोत्तर प्रधान गुण हैं उनका भी मूल है, इस लिये मोक्ष का मूल भी बिनय हैं इस लिये बिनीत पुरुष सर्वत्र प्रशंसा करने योग्य है। . एक छोटे गांव में एक नमीदार को लड़का कोमल स्वभाव का और बाप की आज्ञा में रहने वाला था. प्रभात में उठते ही उसके चरणों में शिर झुकाता था और हर समय “जीकार" से बडी इज्जत. से काम पडने पर बाप को बुलाता था. एक दिन उसके बाप ने गांव के जार्गारदार को आता देखकर उसे नमस्कार किया. लडका ने भी उसे शिर झुकाया जागीरदार ने छोटी उम्र में विनीत देख अपने पास रखा. एक समय जागीरदार उसे राज ग्रही नगरी में ले जाकर राजा श्रेणिक की सभा में खडा किया राजा को उस जागीरदार ने नमस्कार किया तब लडके ने भी नमस्कार किया.श्रेणिक Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३५) राजा भी प्रसन्न होगया और अपने पास उस लडके को रखा. एक समय राजा महावीर प्रभु को वंदन करने को गया, और जब महावीर प्रभु को श्रेणिक राजा ने नमस्कार किया उसी समय लडके ने भी नमस्कार. किया. उसकी विनीत प्रकृति से प्रभु ने उसे धर्म समझाया उसने कहा मैं आज से आप की सेवा करूंगा और शस्त्र लेकर हाजर रहूंगा. प्रभु ने कहा कि कर्म शत्र को जितने में और शस्त्र की आवश्यकता नहीं है. रजोहरण मुहपति से ही कार्य सिद्धि होती है, मात पिता की आज्ञा लेकर उसने प्रभु के पास दीक्षा ली इस लिये विनय गुण वाला ही धर्म भागी हो सकता हैं। श्रावक का १९ वा कृतज्ञता गुण । जो कृतज्ञ होता है वो तत्व बुद्धि से परमार्थ समझकर धर्मोपदेशक गुरु का बहुमान करता है और प्रति दिन गुरु महाराज उसे नयी २ हित शिक्षा देते हैं, इससे उसमें गुणों की वृद्धि होती है इस लिये धर्मका अधिकारी कृतज्ञ हो सक्ता है। तगरा नगरी में रतिसार नाम का राजा जैन धर्म पालने वाला था, उस का पुत्र भीमकुमार था. उसने सब कलाओं का समूह सीख कर विविध क्रीडाओं में रक्त होकर समय बिताने लगा जिससे राजा ने पुत्र को कहा बेटा ! अभी तुझे कला सीखनी बाकी है तो क्यों समय खेलने में खो रहा है ! उसने कहा कौनसी कला सीखने की है । बाप बोला धर्म कला, उस कला बिना सब कला व्यर्थ हैं. कुमार ने उसी समय धर्म कला सीखने को पिता की आज्ञा मांगी, बाप ने साधु के पास ले जाकर साधुजी से सोप कर लड़के को कहा उनकी सेवा कर पढ. लडके ने उस दिन से विनय पूर्वक धर्म शास्त्र पढना शुरू किया जिन मंदिर में जाकर चैत्य वंदन नमुत्थुणं जावंती चेइ आई, जावंत केविसाहु उवसग्ग हरं जयवीयराय स्तुति स्तोत्र पढ कर निरंतर द्रव्य पूजा भाव पूजा में रक्त रह कर विधि अनुसार सब क्रिया करने लगा और सामायिक प्रतिक्रमण जीव विचार नव तत्व श्रावक के योग्य पढने के जितने छूटे छूटे प्रकरण हैं वे पर कर आनंद मानने लगा, और अपने Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३६) बाप ने ऐसे साधु की संगति कराई इस लिये निरंतर बाप का भी अत्यंत उपकार मानने लगा, श्रावक के बारह वृत लेकर ग्रहस्थी धर्म पालने लगा. . एक समय उसके बापने एक सेठ की लडकी खुबसुरत देख मोहित होकर उस कन्या के बाप से मांगी कन्या के पिता ने ना कही, राजा ने कारण पूछा तब उत्तर मिला कि मेरे दोहिते को भीमकुमार के सामने राज्य नहीं मिलेगा, जिससे बाप चुप होगया भीम कुमार ने वो बात सुनकर ब्रह्मचर्य की जीवन पर्यंत की प्रतिज्ञा लेकर सेठ को समझाकर राजा को कन्या दिलवाई वो रानी से पुत्र भी हुआ और भीम ने उसे बंधु जानं कर सब विद्या पढाकर राज्य के योग्य बनाया, और उसे राज्य भी समय पर दिलाया और भीम प्रतिज्ञा पूरी होने से निर्भय होकर श्रावक धर्म और ब्रह्मचर्य को पालन करने लगा एक दिन इंद्र ने सभा में उसकी प्रशंसा की बह एक द्वेषी देव को सहन नहुई जिससे परीक्षा करने को आया भीमकुमार के सामने एक वृद्ध स्त्री आकर बोली हे भीम ! तू दयालु शिरोमणि है जगत् माननीय है, तेरे गुण सुन कर मेरी यह लडकी जो गुणिकापुत्री हैं और सब कला में चतुर है वो तेरे गुण पर प्रसन्न होकर प्रतिज्ञा कर आई है इस लिये तू उसे अपनी स्त्री बनाले ! जो तू मंजूर नहीं करेगा तो तेरे सामने यह कन्या जीतीं जलेगी ! जिससे स्त्री हत्या का निरर्थक महापाप लगेगा। भीम चुप रहा तब बुढिया बोली जगत् जीव हितकारी कुमार, यदि जो तुझेब्रह्मचर्य बास्त्री संग का नियम हो तो उसे दो मधुरवचनों से संतुष्ट कर कि जिससे शंगाररस के वचन सुनकर वो भी कामाग्नि शांत करे । भीम मौन रहा बुढिया फिर बोली हे नरेन्द्र कुल दीपक । एक समय उस तरफ स्नेह दृष्टि से तो देख कि बिचारी मरती समय भी कन्या शांत होकर दुगति में न जावे । भीम ने उत्तर दिया कि हे भद्रे । विषसे संजीवन डोरी बढती नहीं इस लिये धर्म प्रिय मुक्ति का मार्ग शोध ! यहां पर रोम में भी संसार वासना नहीं है ! बुढिया ने अनेक उपाय किये तो भी बो वृत भंग नहीं करता देख देव रूप में होकर भीम को कहा जैसी इंद्र ने तेरी प्रशंसा की थी, वैसा ही तू है इस लिये तुझे धन्य है, तेरे धर्म में मैंने विघ्न किया है उसकी क्षमा चाहता हूं, देव गया बाद भीम ने ब्रत पाल सद्गति प्राप्त की इस लिये कृतज्ञ होता है वोही धर्म पाकर उसे अच्छी तरह पाल सक्ता है। Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३७) श्रावक का २० वां गुण परहितार्थ कारी । पर हितकारी होता है वो धर्म अच्छी तरह समझ निरीह चित्त वाला हो कर लोगों में धन्यवाद पाता है और महा सत्यवान् होने से दूसरों को भी धर्म में लगा सकता है। परोपकारैक रतिनिरीहता, विनीतता सत्यम तुच्छ चित्तता। ... विद्या विनोदोऽनुदिनं न दीनता, गुणा इमे सत्ववतां भवन्ति ॥ परोपकार में ही आनंद, निरीहपना, विनय, सत्य, गंभीरता, रोज विद्या से विनोद और अदीनता इतने गुण सत्यवान पुरुष में होते हैं। उसपर द्रष्टांत. विजय वर्धन नगर में विशाल सेठ का पुत्र विजय नाम का था जिसने गुरु के पास सुना था कि परहित में तत्पर रहना और समा को प्रधान रखना. षडा होने पर भी उसने वह बात याद रखी. एक दिन वो सुसराल में गया और बहु को लेकर आता था रास्ते में पानी निकालने के समय पति को कुवे में पत्नी ने गिराया और पीयर चली गई तो भी पति ने गुरु के बचन से क्रोध नहीं किया. दूसरी बक्क भी वो इज्जत के खातिर लेने को गया और वहां जा कर इशारे से पत्नी को समझा कर शांत कर घर को ले आया लड़के भी हुए और उन लडकों की उम्र बड़ी होने पर एक. लडके ने बाप से पूछा कि आप सब जगह क्यों कहते फिरते हो कि क्षमा करना बहुत अच्छा है बापने उसे उसकी माता की बात कही, लडका ने चकित होकर माता से पूछा। माता ने उसी समय लज्जा के मारे पास छोड दिये पीछे विजय सेठ को बडा दुःख हुआ साधु के पास जाकर प्रायश्चित् मांगा गुरु ने कहा साधु हो जाना चाहिये सेठने पूछा परहित कैसे होगा गुरु ने समझाया कि साधु समान और परहित किसी से नहीं होता, सुन साधु देख के चले, विचार के बोले, देख के गोचरी लेवे और खावे देख कर उपकरण ( पात्र वगैरह ) लेवे और रखे, और पेशाव मल थूक वगै Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३८) रह ऐसी जगह पर डाले कि जिससे कोई भी जीव को पीडा न हो इसलिये कहा है कि जो मास मास में एक हजार गायों को दान देवे उससे भी अधिक पुष जो साधु कुछ भी नहीं देता है उसे साधु व्रत पालन से ही होता है क्यों कि साधुओं में कोई भी जाति की स्पृहा नहीं होने से वे हितोपदेश ही करते हैं और सभी जीव को रक्षा कर उनको सुमार्ग में ले जाते हैं इतना सुनकर विजय सेठ साधु हो गया इस लिये परहित गुण धारण करने वाला ही धर्म पा सक्ता है। . श्रावक का २१ वा गुण लब्ध लक्ष्य · धमकृत्यों को अच्छी तरह समझ करके पालने में लल्य लक्ष्य पुरुष योग्य होता है क्योंकि वो चतुर होता है, जिससे गुरू महाराज की थोड़ी भी वात उसे अधिक लाभदायी होती है, और गुरू महाराज के थोड़े प्रयास से और थोड़े समय में वो अधिकाधिक शास्रज्ञ होता है। आर्य रक्षक मुनि की कथा. दशपुर नगर में सोमदेव ब्राह्मण की स्त्री रुद्र सोमा से आर्थ रक्षित पुत्र हुआ वो पाटलि पुत्र में और दूसरी जगह पढ कर १४ विद्या का पारंगामी होकर आया. राजा ने और नगरवासियों ने उसका बहुत आदर किया घर में आने पर सब परिवार ने भी उसे मान दिया किंतु माता तो कुछ भी बिना बोले चुप रही तो भी माता के पास जाकर उसके चरणों में सिर झुकाकर वंदन किया, तब माता ने आशीर्वाद दिया किंतु विद्या का सत्कार का कुछ भी लक्षण न वताया, जिससे माता से पूछा कि मेरे पढने पर और लोग इतना गौरव करते हैं और तू माता होने पर भी खुश नहीं होती उसका क्या कारण है, माताने कहा, हे वत्स! तूं जो विद्या पडा है उससे तूं यज्ञ कराकर निदोष पशुओं की धर्म के नाम पर हिंसा करावगा और पाप बढावेगा और भविष्य में दुर्गति में जावेगा इसलिये मुझे आनंद नहीं होता, पुत्रने कहा, अब में क्या करूं? माता बोली, स्वपर हित चिंतक जैन धर्मका और दूसरे धमौका तत्व स्वरूप बताने वाला दृष्टि वाद अंग पढ जिससे सुगतिका भागी हो Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३६) वे तो मुझे आनंद होवे, माताको पूछा, कि उसे कोन पढावेगा? माताने कहा तोशलिपुत्र नामके आचार्य तेरे इक्षुका गुड बनाने का घर में ठहरे हैं वहां जा, माताको कहा, मैं प्रभात में वहां जाकर पढ तेरे चित्तको प्रसन्न करूं गा. सूर्योदय के पहले ही उठ कर माताका आशीर्वाद लेकर चला रास्ते में शकुन भी अच्छे हुए, और उसका आगपन सुन एक मित्र इक्षु के सांठे लेकर दूसरे गांव से देने को आयाथा वो सामने मिला लडके ने ललिये गिने तो साठे नवथे. माताकी शांति के कारण उसने मित्रको वेही सांठे अपनी माताको देने के लिये पीछेदिये और उस मित्र के साथ कहलाया कि मैं शुभ श. कुन से जाता हूं जिससे मुझे दृष्टिवाद अंग पढने को मिलेगा, माताने भी इलु गिन कर निश्चय कियाकि पुत्र साडेनव पूर्व की विद्या पढेगा. आचार्य के पास जाने पर आर्य रक्षितने विचारा कि जैन साधु के पास मैं कभी नहीं गया तो वहां जाकर किस तरह वंदन करूं और क्या बोलं? इतने में एक श्रावक बांदने को आया उसी के पीछे जाकर उसकी तरह उसके शब्द सुन कर वं. दन किया किन्तु बड़े श्रावक को वंदन करना वो दूसरा श्रावक न होनेसे प्रथम के श्रावकने नहीं किया इतनी बुधी आर्य रक्षित में देख कर गुरुने उसे वहेवार से अजान किंतु तीक्ष्ण बुद्धि वाला जान पूछा हे भद्र! धर्म माप्ति तुझे कहां से प्राप्त हुई है वो बोला, इस श्रावक से, गुरु-कब वो बोला अभी ही. इस समय एक शिष्य जो गतं दिन की बात जानता था उसने सब बात गुरुको कह सुनाई, गुरुने अधिक प्रसन्न होकर कहा हे भद्र! तूं राज्य मान पाचूका है; अब तेरा विशेष सत्कार क्या करे? वो बोला, मुझे श्राप दृष्टिवाद अंग पढाये। ___ गुरु ने कहा कि संसार में जो विषय लोलुफ ( स्वादु), जीव है. उससे वो नहीं पढा जाता इसलिये तू साधु झेकर पढ वो बोला दीक्षा दो में साधु होता हूं आचार्य ने कहा सजादि की आश चाहिये वो बोला मुझे ताण कामी पढने में विलंब होवे सो अच्छा नहीं लगता ! मेरी माता के मुंझे पढने को भेजा है उसके उत्तम लक्षण व्यवहार और निपुण कुद्धि देख कर प्राचार्य ने दीक्षा दी उसका विशेष अधिकार आवश्यकादि सूत्रों से जानना Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४०) इस दृष्टांत से ज्ञात होगा कि उस आर्य रक्षितमें लब्ध लक्ष्य गुण था तो माता के आचरण की बात समझ विद्वान् और धर्म प्रेमी होगया इस तरह श्रावक धर्म पाने पाले में यह गुण होगा तो प्रत्येक कार्य थोडे कष्ट में पार उतारेगा। ऊपर कहे हये २१ गुणों का वर्णन सूत्रानुसार कह बताया है और मिसमें ये गुण हैं वो ही धर्म रत्न सुख से प्राप्त करेगा अर्थात् २१ गुण धारक पुरुष शीघ्र धर्म पासक्ने हैं। ___२१ गुणों को वर्णन समाप्त यदि किसी में जो २१ गुण न हो तो बोधर्म पासके वानहीं इस बारे में कहते हैं कि यदि जो २१ गुण पुरे न हो तो जितने कम, इतने अंश में उसे क.म लाभ मिलेगा ११४ चोथा हिस्सा कम हो तो मध्यम, और आधा होतो जघन्य, और उससे भी कम गुण होतो वो पुरुष कंगाल की गिनती में है, अर्थात् जैसे निर्धन रंक पुरुष इच्छा करे तो भी उसे लोकमें कोई रत्न नहीं देता अथवा वो खरीद नहीं कर सका ऐसे ही गुण रहित पुरुष धर्म प्राप्ति नहीं कर सक्का इसलिये धर्म रत्न के अर्थिओंको प्रथम उपरोक्त २१ गुण प्राप्त करने का उद्यम करना चाहिये जैसे कि उत्तम जमीन में वोया हुआ बीज अधिक उत्तम फल उत्पन्न करता है तथा स्वच्छ भूमी में खेंचा हुआ चित्र अच्छी शोभा देता है। द्रष्टांत. साकेत ( अयोध्या ) में महाबल राजा था उसने एक दूत से पूछा कि मेरे राज्य में सब वस्तु है वा नहीं दूत ने कहा कि एक चित्र सभा सिवाय सब वस्तु है, राजाने उसी समय मंत्री को कह कर एक बड़ा विशाल मकान चित्र सभा के लिये तैयार कराया और विमल और प्रभास नाम के दो चितारों को बुलाये दोनों चितारे आने पर दोनों मंडप में भिन्न भिन्न दोनों को बैठायें और परस्पर विना देखे अपनी बुद्धि अनुसार उत्तमोत्तम चित्र बनाने का कहा, उन्होने Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४१) - छै मास तक कार्य किया बाद राजा देखनेको आया बिमलके कियेहुए चित्रको प्रथम देखकर राजा प्रसन्न हुआ पीछे प्रभास के खंड में गया वहां पर कुछ भी चित्र न देखा तब राजा ने पूछा आपने इतने दिन क्या किया ! बो बोला हे नरेन्द्र मैंने प्रथम छै मास तक चित्र के लिये जमीन बैपार की है आप कृपा कर उसके पास जाकर देखो भींत में आप स्वयं अपना रूप बिना चितरे भी देखोगे. राजा ने वहां समीप जाकर देखा तो अपना प्रति बिंब अच्छी तरह पडा देख आश्चर्य होगया क्योंकि राजा को संपूर्ण आभूषण वस्त्र के साथ संपूर्ण शरीर जैसे आयना में दीखता था वैसाही इस भीत में दीखता था चितारे की ऐसी सफाई देख बिना चित्र भी राजाने प्रसन्नता प्रकट कर इनाम दिया और कहा तेरे कृत्य की अधिक क्या तारीफ करुं ! चितारा बोला कि महाराज! अभी जमीन तैयार की है उसमें जो चित्र होंगे उसकी प्रभा अधिक होगी, और चिरकाल तक चित्र रहेंगे राजा बोला ठीकहै जैसा योग्य लगे बैसा करो इस दृष्टांत से यह सूचित किया है कि श्रावक धर्म पाने वाले पुरुषों के हृदय में ऊपर के २१ गुण आ जायेंगे तो गुरु का उपदेश विना भी गुरु के दर्शन से धर्म का स्वरूप जान जावेगा और थोडा बताने पर भी अधिफ अधिक ज्ञान होता जावेगा। धर्म का स्वरूप। धर्म दो प्रकार का है ( १ ) श्रावक धर्म ( २ ) साधु धर्म । श्रावक धर्म के भी दो भेद हैं देशविरित, अविरति, श्रावक के और लक्षण भी शास्त्र में बताये हैं। अमूल्य मनुष्य जन्म पाकर सद्गुरु की शोध में रहकर धर्म स्वरूप अच्छी तरह समझकर यथा शक्ति ब्रत पच्चक्खाण कर सब संसारिक कार्य भी कोमल भाव से करे, और जीव अजीव का स्वरूप समझकर जीवों को म्यर्थ दुःख न होवे इस लिये अनर्थ दंड छोडे और अर्थ दंड में भी यतना से बर्तन करे जैसे अपनी रक्षा करे ऐसे और जीवों को भी पीड़ा न होवे इस तरह संभाल से चले। Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४२) साथ. साधुः धर्म के लक्षण भी बताये हैं किजो साधु होने वाला हो उसके मनमें निरंतर यह ख़्याल रहे कि मनुष्य जन्म जैन धर्म, धर्म पर श्रद्धा और धर्ममें शक्ति (वीर्य) का उपयोग करना, के चारबातें बहुत दुर्लभ हैं, उन चारों ही प्राप्त होने पर भी जो मैं प्रमाद करूंगा तो फिर इस दुनियां में अनेक जन्म मर्ण करने पर भी चारों बात एक साथ मिलना मुश्किल हो जावेगी इस लिये इंद्रियों के विषयों की सुंदरता बदलने में देर नहीं लगेगी और शरीर में अब शक्ति बुढापा आ जाने पर धर्म पालना मुश्किल होगा इंद्र भी स्थिर न रहे तो मनुष्य आयु का क्या भरोसा है ? हीरा को छोड कांच के टुकडे मे कौन बुद्धिमान पुरुष राचेगा ! ऐसी वैराग्य भावना से बारंबार गुरुके चरणों में शिर झुकाकर वोलता है हे गुरो ! हे तारक ? हे कृपा सिंधो ! भव भयसे डरा हुआ यह रंक अनाथ को चारित्र धर्म की शरण देकर जन्म जरा मरण रोगादि के भयों से बचाओ हे प्रभो ! सच्चे माता- पिता नरेन्द्र रक्षक, पालक. पोपक तारक के सभी गुण आप में विद्यमान हैं । आप संसार दुःख सागर से मेरा उद्धार करो ? हे प्रभो ? चिंता मणि रत्न कल्प वृक्ष काम धेनु काम कुंभ जैसे चमत्कारी पदार्थों से भी मोक्ष नहीं मिलता, न जन्म मरण रोग के दुःख मिटते किंतु एक ही दुनियां में सब रोंगों के भयों का और पीडाओं का मूल यह मेरा शरीर है जिसके भरोसे मैं आज तक बैठा रहा हूं उसीका प्रथम मोह छोड वीत राग भाषित तत्व ज्ञान संपादन कर उसी उदारिक शरीर के जरिये सब कर्म बंधों तोडने का प्रयास करूंगा इस लिये हे. नाथ ! जहां तक जरा नाम की जम दूती आकर मेरे वाल धोले न बनावे, शरीर की इंद्रियों की शक्ति की क्षीणता न करे वहां तक मुझे आपका साधु भेष शीघ्र दो ! अहाहा ! वो क्षण कब आवेगी कि मैं जीवों को अभय दान देने वाला,सब जीवों पर मैत्री भाव रख ने वाला और मुझे दुख देने वाले जंतुओं पर भी सम भाव रखने वाला प्रात्म हित चिंतक लोह सुवर्ण में चंदन वांसी पर सम दृष्टि वाला राग देष छोड बीत राग दशा में सकाम निर्जरा करने वाला होऊंगा ! इत्यादि कोमल भावना से आंख में आद्रता प्रकट करने वाला, पुनः पुनः चारित्र की प्रार्थना करने Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४३) बाला ही साधु धर्म के योग्य प्राणी बताया है, पीछे गुरु महाराज उसकी यथा योग्य परीक्षा कर साधु धर्म वा श्रावकधर्म देते हैं चाहे अणुव्रत देवें वा महा व्रत देवें । श्रावक और साधुका संबंध. जैन धर्म में स्याद्वाद मार्गका वर्णन है, अर्थात जितनी अपेक्षाएँ जहाँ घटे वहां उतनी घटानी चाहिये. उसे स्याद्वाद कहते हैं. इस स्याद्वाद रीतिसे श्रावकके भिन्न भिन्न गुण बताये हैं. यहां पर साधु धर्मोपदेशक है और श्रावक उस धर्म के ग्राहक ( लेने वाले ) हैं उनका पर स्पर क्या संबंध है वो बताते है स्थानांग सूत्र में लिखा है. कि ( १ ) मात पिता समान, भाई समान, मित्र समान, शौक ( संमान - चार प्रकार के श्रावक होते हैं. 2 > (२) साधुओं का चारित्र निर्मल रहेगा तो वे सिद्धांत को अच्छी तरह पढें कर हमें लाभ देंगे इसलिये जैसे मात पिता रात दिन बैटे की प्रतिपालना करते हैं. उसी तरह साधुओं की रात दिन यथों चित भक्ति करें. वे मात पिता समान श्रावक हैं. ( ३ ) भाई समय समय पर भाई की चिंता करे. और उसे सहाय दे इस तरह समय मिलने पर साधु की खबर लेकर उसकी यथो चित सेवा करे वे भाई जैसे श्रावक हैं. ( ४ ) पर्ब दिन में मित्र पर स्पर मिल कर खबर पूछते हैं. ऐसे ही पर्व के दिनों में साधुओं की सेवा करें वे मित्र जैसे श्रावक हैं. (५) सोक जैसे परस्पर छिद्रों को शोध और गुणों को छिपा कर उसको अपमान से खुश होता है वैसे ही साधुओं के गुणों को छूपा कर जरा भी भूल होने पर लोक में निंदा करे और साधु का अपमान करे वो सौक जैसा श्रावक है, यथा योग्य भक्ति कर अपनी शक्ति अनुसार से गुरु के पास धर्म सुन और आदरे वो उत्तम श्रावक है. Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४४) - समय मिलने पर सेवा करे, धर्म सुने और करे वो मध्यम श्रावक है. प4 दिन में जो सेवा करे, धर्म सुने और करे वो जघन्य श्रावक है. साधु के वारंवार जरा भी प्रमाद से दोष देख कर, उसका अपमान कर आप न धर्म कथा सुने, न सुनने देवे, बीच में विघ्न करे वो अधर्मी श्रावक है. ___ यहां पर कहने का यह है कि साधुमें दोष देखनेमें आवे तो विनयपूर्वक एकांत में कह कर सुधारना वो तो अच्छा है और गुणज्ञ साधु ऐसी बातों सुन कर सुधर जाता है और न सुधरे तो मिष्ट वचनों से पीछे श्रावक प्रकट भी कह सकता है और इतने से भी न सुधरे और अनाचार से दूसरों को पतित करे जैन धर्म की हीलना करावे तो ऐसे साधु को श्री संघ ( श्रावक धाविका साधु साध्वी ) मिल कर उसे दूर भी कर सक्ने हैं किंतु अल्प दोष से वारंवार साधु का जाहिर अपमान करना अनुचित है साधु के उपदेश सुने इस अपेक्षा से चार प्रकार के श्रावक बताते हैं. (१) गुरुने कहा वो संपूर्ण सुन कर हृदय में धार लेवे. वो आयना स मान श्रावक है क्यों कि आयना में पूर्ण रूप पड़ता है. ऐसे ही वो श्रावक में धर्मोपदेश का पूर्ण असर होता है - (२) साधु के पास सुन फिर भूल जावे वो पताका समान, पताका (ध्वजा ) पवन से बार बार हालता है ऐसे ही वो श्रावक धर्म पा कर फिर फिर मिथ्यात्व में मूढ हो कर धर्म को छोड़ देता है. (३) विनय न करे किंतु निंदा भीन करे और धर्म सुने किंतु करे नहीं वो स्थाणु (पेडका सूखा लकड ) माफक है. (४) खरट्टक समान श्रावक उसे कहते हैं कि स्वयंशिथील ( ढीला) होने पर भी अशुचि द्रव्य जरा ठोकर लगते उछल कर कपड़ा बिगाड़ता है. ऐसे ही वो श्रावक को जरा भी साधु उपदेश देवे कि दश बीस अनुचित शब्द सुनाकर साधु का अपमान कर धर्म नहीं पा सक्ता । - ऐसे और भी दृष्टांतों से समझ श्रावक को प्रथम कुछ भी गुण प्राप्त " करना चाहिये। Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४५) भाव श्रावकके और लक्षण । ब्रतकी मन में अभिलाषा रखे, सदाचारी होवे, गुणवान् होवे, निष्कपटी व्यापार करने वाला हो, गुरु भक्त हो, प्रवचन (शास्त्र ) श्रवण में कुशल हो ये भाव श्रावक के लक्षण हैं। ... प्रथम गुरु की बात सुने, उसे समझे यथा शक्ति लेबे, उसे पाले, जो गुरुका विनय बहुमान कर सुने तो उसे अधिक ज्ञान हो सका है जिससे श्रावक व्रत के वीभाग.( भांगे) समजाते हैं। श्रानक व्रत के भांगे। मन बचन काया इन तीनों को जोग कहते हैं, न करूं, न करावं वन अनुमोदुं इन तीनों को करण कहते हैं। ... जैसे कोई आदमी गुरु के पास धर्म समज कर नियम करे कि मैं मन से जीव को न मारुं . (१) (अर्थात् मारने की मन में अभिलाषा न करूं.. (२) बचन से (अर्थात् बचन से मारूं ऐसा शब्द न बोले... (३) काया से (अर्थात् हाथ वा शस्त्र से जीव के प्राण न लङ, . इस तरह इ मन वचन काया से न मरावं. इस तरह उ मन बचन काया से मारने वाले को भला न जानु. '... इस तरह कोई मन बचन का भी लेवे पचन काया का भी लेवे अथवा एक काया का भी नियम लेवे। अथवा - करण - जोग उत्तर गुण का भंगा (१) ·२- ३.- सातवां होता है। . (२) २-- २- और अविरित का आठवां होता है । (३) २- १- और प्रत्येक के ६,६, मंगे होते हैं। Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५ . ) ( ६ ). १ १ (४६) २--. १- २१ भंग इस प्रकार हैं । तीन जोग तीन करण से नव भंगे होवे. दो करण तीन जोग से ६ मांगे होवे. एक करण तीन जोग से छः भांगे होवे. इत्यादि अनेक भांगे होते हैं सिवाय सूक्ष्म बादर, त्रस स्थावर, संकल्प, आरंभ, सापराधी, निरपराधी के भेद भी समझने चाहियें । जीवों का किंचित् स्वरूप -- : जीव के दो भेद. संसारी और मुक्ति के संसारी के दो भेद त्रस स्थावर स्थावर के दो भेद हैं ( १ ) सूक्ष्म ( २ ) बादर, इन दोनों में पांच भेद हैं (१) पृथ्वी सूक्ष्म और बादर, (२) पानी सुक्ष्म और बादर (३) अग्नि सुक्ष्म और बादर ( ४ ) वायु सुक्ष्म और बादर ( ५ ) बनस्पति सुक्ष्म और बादर. किंतु वनस्पति में और भी दो भेद हैं जैसे कि ( १ ) प्रत्येक वनस्पति काय जिसमें गिन्ती के जीव हो, (३) साधारण वनस्पति काय जिसमें एक शरीर में अनंत जीव हो-- उनका विशेष स्वरूप " जीब विचार " किताब से ये सब उपयोग में आते हैं किंतु सुदन हाथ में न आने से बादर का ही उपयोग होता है । और जीवों का स्वरूप समज ग्रहस्थ उसे बिना कारण उपयोग में नहीं लेते जैसे कि पेड के एक पत्ते से काम चलता हो तो दो नहीं तोडना, एक तोडे और उपयोग में ले तो वो अर्थ दंड है और दूसरा विना कारण तोड फेंक देवे तो अनर्थ दंड होवे गृहस्थ को अनर्थ दंड अवश्य छोड़ना चाहिये. कार्य का स्वरूप ॥ काय उसे कहते हैं कि जिनका शरीर मुंह हीलता दीखे और भय आने पर दूर भागे जिसका त्रास अपने देखने में आवे और अपने हृदय में कोमल भाव होवें कि उसे दुःख नहीं देना उसे सकाय कहते हैं । Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४७) (१) दो इंद्रीवाले शरीर और मुंह वाले शख, पेट के क्रमी (जोख ) (२) तीन इंद्री, शरीर मुंह, नाक बाले, कीड़ी चेटे, अनाज के कीड़ों ( ३ ) चौइंद्री , , ,, और आंख वाले डांस मच्छर पतंग वगैरह (४) पंचेंद्री , , , और कानवाले मनुष्य लिये च ( पशु पक्षी ) देवता नारकी जीव है। उन सब को बचाना अपना कर्तव्य है तो भी राज्याधीश कुनबा के अधिकारी वा ग्रहस्थी को स्वरक्षा के लिये दूसरे जीव को शिक्षा करनी पड़े तो भी जहां तक बने वहां तक उसे निध्वंस ( दुष्ट ) परिणाम से न मारे यदि राजा जो प्रजा के रक्षा के लिये दुष्टों को दंड न देवे तो अत्याचार और बदमाशों का जोर बढ जाये तो धर्म का नाश हो जाये तो भीतर से उसके दयालु होने पर भी उस के कृत्य से धर्म का नाश हो जाने से सजा महान पापी हो जावे इस लिये प्रजा के रक्षणार्थ उसे बदमाशों को दंड देना ही चाहिये किन्तु शत्र शरण में आने बाद उसके पूर्वक वैर को याद कर उसे दंड नही देना चाहिये. यहां पर इतना लिखना आवश्यक है कि जैन धर्म से प्रजा निर्माल्य होती है अथवा जैन धर्म का अधिक प्रचार से प्रजा की अवनति होगी ऐसा विचार कितनेक अन्य बंधुओंका है अथवा कितनेक जैनी भी अज्ञान दशा में, ऐसा समझते हैं कि कीडी की दया पालने वाला शत्रु पर कैसे हाथ उठा सक्ता है उनको यहां पर सूचना है कि सर्व जीवों पर क्षमा करने वाले साधु भी दुष्ट राजा को समझाने पर भी न समझे तो योग्य कारण मिलने पर दंड' देने का मोका आ जाये तो उसे साधु दंड देते हैं जैसे कि * कालकाचार्य की' भगिनी जो साध्वी थी उसे गर्दभिल्ल राजाने अपने महल में दुराचारार्थ रख ली थी उसको समझाने पर भी न मानने से कालकाचार्य ने उसे राज्य पर से दूर करा *काल का चार्य की कथा राजेन्द्र अभिघान कोश प्रथम भाग ५८३ प्रष्ट में देखो-कोउ गह भिल्लो, कोवा कालग जो कम्मि काल सालितो भएणति उज्जेरणी णाम णयरी, तत्थय गह भिलो णाम राया तत्थः कालगजाणम आयरिया. जोतिस णिमित बलिया इत्यादि -नि-चू-१० देशा. Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४८ ) कर साध्वी श्री शील की रक्षा की तो ग्रहस्थों को कोमल भाव रखने पर भी दुष्टों को दंड देना पड़ता है इस धर्म को व्यवहार धर्म कहते हैं और जो शरीर की भी परवाह न करे ऐसे निस्पृही साधुओं को योगी कहते हैं बैं सिर्फ कर्मों को ही शत्रु मानते हैं उनको व्यवहार धर्म नहीं होने से वे निश्चय धर्म वाले है उनको शिष्प परिवार भी नहीं होता न वे उपदेश देवे न वे सुने न शेर से डरे न चंदन बिछू के दंश में भेद माने उनको छोड़ बाकी सब को अपना यथोचित व्यवहार धर्म मानना चाहिये जिससे जैन राजा राज्य कर सक्ता है और साधुओं का धर्मात्माओं का रक्षण कर उनके धर्म का भा. गी होता है जिससे दुष्टों के दंड में जो पाप लगता है वो दूर हो जाता है किंतु उसे भी अपने प्रमाद की आलोचना करनी पडती है अनेक राजा पूर्व में हो गये हैं परंतु कुमार पाल को अधिक वर्ष नहीं हुए हैं उसका हिंदी च रित्र अवश्य पढना चाहिये. जैसे एक डाक्टर रोगीके हितार्थ उसका पैर में घावकरे उसे दुःख देवे तो भी वोगुनह गार नहीं हो सकता ऐसे राजाओंका भी अधिकार है किन्तु डाक्टरको सांजवा प्रभातमें अपने दरदीओंका विचार करना पडता है कि मेरे प्रमाद से वा कम ज्ञानसे उसे अधिक दुःख तो नहीं दिया वा सोचकर उसका उपाय लेना ऐसेही राजा को भी प्रभात और शाम को अपने कर्त्तव्यों का ख़्याल कर जो भूल होगई हो तो उसकी क्षमा लेना चाहिये. इस लिये चाहे राजा हो, या रंक हो, पुरुष हो वा स्त्री हो ग्रहस्थ हो वा साधु हो उसे निरंतर प्रति क्रमण करना चाहिये प्रति क्रमण का अर्थ यह है कि अपने कर्त्तव्यों में जो भूल हो गई हो उसे याद कर उसका पश्चत्ताप कर दंड लेना और उसी से राजा भी अपने गुरु रखते थे कुमार पाल और गुरु हेम चन्द्रका चरित्र वांचने से मालुम होगा किस तरह उसे गुरु महाराज ने पाप से बचाया है। राजा सदाचारी साधु अनाथ रंक का रक्षक और दुष्टों का दंडक होता है वो राजा धर्म - राजा कहलाता है जैसे युधिष्ठिर और राम है और जो राजा आप दुष्टता करे बिना कारण लड़ाई करे वो दुर्योधन का प्रत्यक्ष दृष्टांत है. Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४६) - - __राजाओं की राज्य नीति जैनाचार्यों ने बनाई थी वो प्रचलित नहीं है जिससे अज्ञान दशा में चाहे ऐसा मूर्ख बोले किंतु अर्हन नीति पढकर विद्वान ऐसा विचार कभी न करेगा कि जैन धर्म से निर्बलता आती है। किंतु इतना समझेंगे कि यदि जैन धर्म बढ़ा तो आज युद्ध में जो अधम रीति से बंम गोलों का निर्दोष औरत और बच्चों का प्राण घातक अत्याचार हो रहा है वो मिट जावेगा क्योंकि जैन धर्म से कर्म फल को याद रख कर राजा को भी पीछे उस सब कृत्य का यथोचित, फल भोगना पड़ेगा वो भूल नहीं जावेगा। श्रावकों के बारह व्रत का वर्णन । जैन धर्म में तीन रत्न मुख्य हैं, वे ( १ ) सम्यग् दर्शन ( २ ) ज्ञान और (३) चारित्र हैं। सम्यग् दर्शन दो प्रकार का है व्यवहार और निश्चय । . व्यवहार दर्शन दूसरा भी जान सक्ता है, निश्चय सम्यक्त्व को केवल ज्ञानी जानते हैं कुछ अंश में अवधि ज्ञानी मन पर्यव ज्ञानी भी जानते हैं व्यवहार सम्यक्त्व देव गुरु धर्म को अंगीकार करने से होता है । (१) देव वीतराग निस्पृह केवल ज्ञानी हैं जिनको अर्हन् जिनेश्वर, तीर्थंकर नाम से कहते हैं ( २४ तीर्थ करके नाम लोगस में बोलते हैं उनका चरित्र पढ उनके गुण जान लेने ) वीतराग सिवाय देव को. कुदेव कहते हैं यदि कुदेव में देवपणा माने तो संसार में भ्रमण होता है। . (२) गुरु साधु मुनि श्रमण को कहते हैं वो भी त्यागी निस्पृही होते हैं यदि जो रागी को गुरु माने तो वो तार नहीं सका।। (३) धर्म, दया, विवेक, और संवर, रूप है. जो इन तीन गुण रहित हो तो वो धर्म के नाम से अधर्म है। __ जैसे अशक्त पुरुषको वैद उपकारक है ऐसेही ऊपर के तीन रस्म सामान्य पुरुष को हितकारक हैं इनके जरिये कम बुद्धि वाला भी सुबुद्धि वाला होकर श्रात्मा का और कर्म का संबंध जान सक्ता है पीछे आत्मा में दृढ विश्वास Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५०) वाला होने से उसे निश्चय चारित्र होता है जैसे नदी में तिरने वाला बड़ों की सहाय से तिरना सीख पीछे आप भी तैरू हो सक्ता है, इस लिये प्रथम व्यवहार सम्यक्त्व प्राप्त करने को ज्ञान पढना चाहिये । ज्ञान के दो भेद ॥ जो ज्ञान पाठशाला में पढाते हैं वो ज्ञान भी कहलाता है और अज्ञान भी कहलाताहै जो ज्ञान का उपयोग दूसरों के भले के लिये ही तो वो ज्ञान है और जो दूसरों का नुकसान करे तो वो अज्ञान है इस लिये ज्ञान पढ कर परमार्थ और परोपकार करना चाहिये। ___ कोई पैसा गौ रोटी घर वगैरह देवे तो दान हो सक्ता है अथवा मीठे हित के वचन बोले तो भी दान हो सका है किंतु ज्ञान पूर्वक जो समझ के दिया जावे तो सब से अधिक अभय दान है स्थावर स जीवों को जो सदा बचावे तो संपूर्ण अभय दान होता है उसे साधु धर्म कहते हैं ऐसे ही चारित्र, महावन, यम, संयम भी कहते हैं जो साधु न होवे अथवा उसे गुरु साधु न बनावे तो वो गृहस्थ धर्म ले सक्ता है. उसे देश विरति कहते हैं । उसमें बारह व्रत हैं। (१) जीवा सुहुमा थूला, संकप्पारंभा भवे दुविहा । सावराह निर व राहा, साविक्खा चेव निरविक्खा ॥ श्रावक से उस जीव की दया पले परंतु स्थावर की दया ने पले वारवार चूला जलावे, पानी उपयोग में आवे वनस्पति खावे मट्ठी चूना के घर बनावे इस लिये पृथ्वी पानी अग्नि वायु वनस्पति को विना कारण दुःख न देवे वि. वेक से काम करे तो भी उनकी हिंसा होवे इस लिये २० हिस्सा दया हो तो त्रस का बचाव होवे स्थावर के १० हिस्से न पले। . त्रस में भी अपराधी पर दया न रहे घर में चोरी, खुन वा बदमाशी करने को कोई आने तो उसपर शस्त्र चलाना पड़े अथषा राजा को प्रजाके रक्षणार्थ युद्ध करना पड़े तो निरपराधी की दया पले जिससे सिर्फ पांच हिस्से दया के रहै। Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५१ ) | सापेक्ष || निरपराधी जीव भी जरूर पड़े तो मारना पड़े जैसे बच्चे के अंग में वा बैल को कीडे पडे हो तो दवा लगाने से वो मर जावे अथवा वाहन घोड़ा आदमी वगैरह को लड़ाई में ले जाना पड़े तो बे मरते हैं तो वे मरते हैं इस लिये उसकी दया न पली २ || हिस्से रहें । आरंभ | खेती करने में बगीचा घर बनाने में बिना इच्छा भी कितने ही जीव मनुष्य के हाथ से मरे इस लिये सिर्फ १ | हिस्सा की गृहस्थी को दया है ॥ जिससे ऐसी प्रतिज्ञा कर सके कि त्रस जीव जो निरपराधी हो तो बिना कारण संकल्प करके न मारुं । श्रावक का दूसरा व्रत झूठ न बोलना । बर वा कन्या के झूठे दोष वा झूठे गुण बताकर किसी का विवाह बिमाड़ना वाफसा देना ऐसा ही पशु वैल वगैरह में झूठ बोलना, अथवा जमीन की विक्री में झूठ बोलना, किसी की थांपल ले झूठ बोलना ( ५ ) टी साक्षी पूरनी ये पांच बड़े झूठ अवश्य छांडने, सिवाय अप्रिय सत्य भी खास कारण विना न बोले, मार्मिक बचन न बोले । ( ३ ) चोरी न करना । मालिक की विना रजा चीज लेनी, उसे चोरी कहते हैं दमड़ी से लेकर रूपया वा रत्न तक हो तो भी वो विना आज्ञा न लेनी, यदि रास्ता में चीज मिले तो भी उसे नहीं लेनी वो तीसरा व्रत है किंतु चोरों के साथ सोबत रख उसे सहाय देने तो भी चोरी का दोष लगता है राज्य विरुद्ध कृत्य भी नहीं करना अच्छी बुरी नई पुरानी चीज नहीं मिलानी. कूडे वोल माप भी नहीं रखना श्रावक को नीति से व्यवहार रखना चाहिये । Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५२) (४) स्वदारा संतोष मैथुन त्याग वृत्ति । __अपनी स्त्री छोड सर्व स्त्रियों का संग न करना चाहे कन्या रंडी, विधवा हो तो भी जहां तक नैनिक रीति से स्थादी म हो वहां तक संबंध करना न चाहिये अपनी स्त्री भी छोटी वा गर्भ के चिन्ह वाली, बीमार वा पुरुष स्वयं बीमार हो तो संग न करे, पर्व तिथि को अपनी स्त्री में भी ब्रह्मचर्य पाले । (५) परिग्रह परिमाण व्रत । घर का निर्वाह अच्छी तरह इज्जत पूर्वक चले उससे अधिक की तृष्णा न करे किंतु पूर्व के पुण्य से यदि आ जावे तो दान में लगा देवे इतना संतोष न रहे तो नियम करे कि इतने से ज्यादह हो तो व्योपार बंद करूं वा धर्म में लगा दं अथवा रोज की कमाई से इतना हिस्सा धर्म में लगा हूं और इन नव चीज का परिणाम करना । . (१) धन, (२) धान, (३) जमीन, (४) मकान, ( ५ ) यांदी, (६) सुवर्ण (७) और सब धातु, उसे कुपद की संज्ञा है, (८) नोकर (6) पशु बैल वगैरह. · श्रावक का छठा व्रत दिशि परिमाण - उत्तर दक्षिण पूर्व पश्चिम उंचे और नीचे इन ६ दिशा और चार कोण मिल कर १० होते हैं. उन दिशाओं में घर व्योपारार्थ जाने का नियम करना और श्रावक को वर्षा रुतु में इतनी जगह में भी विना कारण न जाना. इस से पूर्व के पांच व्रतो को गुण होता है. अर्थात् हिंसा वगेरे मिट जाती है. इस लिये जो नियम लेवे वो नोध कर लेवे कि भूल से भी अधिक न जावे. श्रावक का सातवां व्रत भोगोपभोग विरमण व्रत २२ अभक्ष्य का त्याग भोजन भोग और व्योपार का पारमाण करना ३२ अनंत काय छोड़ना, और सचित वस्तु का पारिमाण करना, रोज १४ नियम पारना, पंदरह का दाम छोड़ना वा का करना, Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५३) दूसरी विज्ञप्ति यह है कि जिन चीजों में ज्ञानि महाराज ने ज्ञान सेदेख के बहुत ज्यादा दोष बताये हैं उन चीजों को छोड़ना उचित है. १ विदल जिस अन्न की दो दाल (द्विदल ) हो जाय, और जिसमें से तेल नहीं निकले, उस अन्न को कच्चे दूध, दही, छाश के साथ अलग अथवा मिलाय के खाना बड़ा दोष कहा है. दही बगैरह खूब गरम करके साथ खाने में विदल का दोष नहीं है। २ श्राचार (आथाना) सब तरह का ( संधान )३ रोज बाद अभक्ष्य हो ___ जाता है. और शरवत व मुरब्बे का भी दिनों का प्रमाण करना चाहिये. ३ कंद मूल ३२ अनन्तकाय, यह सबसे ज्यादे दोष की चीज होनेसे बिल कुल छोडने लायक है। २२ अभक्ष्य के नाम १ वडके, २ पीपलके, ३ पिलखणके, ४ काठंबरके, ५ गूलरके फल, ६ मदिरा, ७ मांस, ८ मधु, 8 मक्खन, १० बरफ, ११ नशा, १२ ओले १३ मट्टि, १४ रात्री भोजन, २ बहु बीजा फल, १६ संधान ( प्राचार ) १७ द्विदल, १८ वेंगण, १९ तुच्छ फल, २० अजान फल, २१ चलित रस, २२ बत्तीस अनंतकाय । ३२ अनंतकाय के नाम सूरनकन्द १ वजकन्द २ हरहिलदी ३ सितावरी ४ हरा नरकचूर ५ अद्रक ६ विरियालीकन्द ७ कुंवारी-गुंवारपाठा ८ थोर ६ हरि गिलोय १० लस्सन ११ बांस करेला १२ गाजर १३-१४ लुनियां और लुढियां की भाजी १५ गिरिकर्णिका १६ पत्तेकेकुंपल १७ खरसुआ १८ थेगी १६ हरामोथा २० लोणसुखवली २१ विलहुडा २२ अमृतवेलि २३ कांदा-मुला २४ छत्र टोप २५ विदलके अंकूर २६ वथबे की भाजी २७ बाल २८ पालक २६ कुली आमली ३० आलू कन्द ३१ पिडालू ३२ - रात्रि भोजन सर्वथा न छूट सके तो दुविहारतिविहार पच्चख्खाण करना आवश्यक है - २२* अभक्ष्य श्रावक को जरूर ही छोडना चाहिये न छूटे तो जितना छूटे उतना छोडिये. थोडे से जिव्हा के स्वाद के वास्ते जीव पाप से भारी होकर भव भव में बहुत दुख पावे ऐसा नहीं करना चाहिये. इनसे ज़्यादे स्वादकी और चीजें वहुत हैं। . . .. Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५४) सात वा व्रत विचार कर के हमेश के लिये भी लेना और रोन के लिये भी १४ नियम यथा सक्ति लेना। चौदह नियम धारने की विधि दिनके चार प्रहर के नियम सबेरे मुंह धोने के पहिले विचार के शामको पार लीजिये. रात्रि के चार प्रहरके फिर शामको विचारके सुबह पार लीजिये, नियम तीन नवकारागन के लीजिये, और तीन नवकार गिन के पारिये, पारने के वख्त ज्यो ज्यो रक्खा था उसको याद करके संभाल लीजिये, कमती लगा उसका लाभ हुआ, भूल से जास्ती लगा उसका “मिच्छामिदुक्कडं" दीजिये. चाहे तो आठ प्रहर के भी धार सक्ते हैं परंतु चार प्रहर के धारने से पारने के वख्त (कितना नियम धारते वख्त रक्खा है और कितना भोग में आया है उसकी, ) विधि मिलाने में सुगमता रहती है। कोई व्रतधारी श्रावक जन्म भर के निर्वाह के वास्ते जादे जादे वस्तु रखते हैं तो १४ नियम धारने से उनका भी आश्रव संक्षेप हो जाता है इस स्वाले व्रतधारी को और अविरति को अवश्य १४ नियम धारने चाहिये । चोदह नियमों की गाथा । सचित्त दव्वे विग्गइ । वाणहें तंबोले वा कुसुमेसु ॥ वाहणं सयर्ण विलवणं बंभ दिसि न्हाण भत्तेसु ॥१॥ गाथा का संक्षिप्त अर्थ । १ सचित्त (जिस्मजीव सत्ता हो, बोने से ऊगे बीजादि) कच्चा पानी, हरी शाक फल, पान, हरा दातन, निमक आदि। . २ द्रव्य-नितनी चीन मुंह में जावे उतने द्रव्य-जल, मंजन, दातन, रोटी, दाल, चावल, कढी, साम, मिठाई, पूरी, घी, पापड पान, सुपारी, चूरन,मसाला भादि। .३ विगय–१०. जिनमें से मधु मांस, माखन, और मदिरा ये ४ महा विग य अभक्ष्य होने से, श्रावक को अवश्य त्याग करने चाहिये और (६) Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५५) श्रावक के खाने योग्य, है, घी, तेल, दूध, दही, गुड खांड अथवा मीठा पक्वान्न और कडाई में भरे घी में तला जाय वह । ४ उपानड्-जूता, बूट, स्लीपर, मोजा आदि ( जो पांव में पहने जाय )। ५ तंबोल-पान, सुपारी, इलायची, लोंग, पान का मसाला आदि । ६ *वत्थ ( वस्त्र ) पगड़ी, टोपी, शाफा अंगरखा, चुगा, कुरता, धोती, पायजामा, दुपट्टा, चद्दर अंगोछा, रूमाल आदि मरदाना और जनाना कपड़ा (जो ओढने पहरने में आवे )। ७ कुसुमेसु-फूल, फूलकी चीज जैसे सिज़्या, पंखा, सहरा, तुर्रा, हार, गजरा अतर (जो चीज मुंघने में आवे )। ८ वाहन ( सवारी )-गाड़ी, फेरीन, सिगराम, हाथी, घोडा, रथ, पाखखा, डोली, मोटर, साईकल, रेल, दाम्वे नाव जहाज, स्टीमर, बलून आदि याने बरता, फिरता, चरता और उडता। ६ शयन-खुरशी, टेबल पट्टा, पलंग, गादी, तकिया, विछोना, तखत, मेज, सुखासन आदि ( सोने वा वैठने की चीजें )। १० विलेपन-तेल, केसर, चंदनं, तिलक सुरमा, काजल, उवटना, हजामत, बुरश, कंगा, काच देखना दवाई आदि (जो चीज शरीर में लगाई जावे । ११ वंभ ( ब्रह्मचर्य ) स्त्री, पुरुष ने, सुइ डोरे के न्याय से तथा बाह्य बिनोद की संख्या कर लेनी श्रावक परदारा त्याग और स्वदारों से ही संताप रखें, उसका भी प्रमाण कर इसी प्रकार स्त्रीओं को भी समझना चाहिये १२ दिसि (१० दिशा)-शरीर से इतने कोस ( लंबा, चोडा, ऊंचे नीचे) जाना भाना, चिठी तार इतने कोस भेजना, माल और आदमी, इतने कोस भेजना, तथा मंगाना । १३ न्हाण ( स्नान )-शरीर में मोटा स्नान इतनी वेर करना (छोटास्नान) हाथ पैर इतनी बेर धोना। १४ भत्तेसु-*अशन, पान, खादिम, स्वादिम ये चारों आहारमें से खाने में जितनी चीज आने सबका कुल बजन इतना । Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५६) . ये १४ नियम के ऊपर ६ काय और ३ प्रकार के कर्म की मर्यादा विचा रनी आवश्यक है। ६ काय। १ पृथ्वीफाय-मट्टी, निमक, आदि ( खानेमें उपभाग में आवें) उसका वजन । २ अप्काय-जोपानी पीने में वा दूसरे उपयोग में आवे उसका वजन* ३ तेऊकाय-चूल्हा, अंगीठी, भट्ठी, चिराग आदि का प्रमाण । ४ बायुकाय-हिंडोले और पंखे ( अपने हाथ से वा हुकम से) जितने चलते होवे उनकी संख्या का प्रमाण. रुमाल से वा कागज से हवा लेनी यह भी पंखे में गिनी जाती हैं, उसकी जयणा । ५ बनस्पति काय हरा शाक तथा फलादि इतनी जात के खाने, घर संबंधी मंगाने, जिसकी गिनती तथा वजन । ६ त्रसकाय-सजीव अपराधी, बिनापराधी का विचार करना यह ६ काय का परिमाण करलेना । कर्म. १ असी- (शस्त्र और औजार ). तलवार, बंदूक, तमंचा, बरछी, भाला, आदि छूरी, कैंची चक्कु, और सरोता, चिमटी आदि औजार. २ मसी (लिखने पढने का.) कागज, कलम, दावात, पेन्सिल, वहीं, पुस्त__क, छापा, टाइप, आदि. ३ कृषी- ( कसी). खेती वगीचे आदि का परिमाण. अब रोजके नियम धारनेकी विधि संक्षेपसें लिखते हैं, विस्तार जितना अधिक करिये, यानि नाम खोल खोल कर रखिये उतनाही जादे फायदा है. यदि अवकाश कम हो तो नीचे लिखे मुजब धारीए. Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५७) संक्षिप्त विधि. कलके १४ नियम चितारेथे उसमें कमती लगा होय उसका लाभ होवे। अजाणमें जास्ती लगा होय उसका मन वचन काया करके " मिच्छामि दुकइं" यह कह कर तीन नवकार गिनके पार लो. नियम लेनेकी विधि. दिनको, शुबेहसे १४ नियम नीचे लिखे मुवाफिक शामके ५ पारतकके रख लीजिए. बाकी का त्याग होगया, तीन नवकार गिनकर जिनके पञ्चख्खाण कर कीजिये और जो पञ्चख्खाण करना होवे नवकारसी अथवा ज्यादा उसका पा कहके देसावगासी और विगयका पाठ कहलेना तथा गुरुमहाराजसे भी पचखाण करलेना. अब दिन भरमें जोजो उपभोगमें आया होवे उसकी विधि शामको मिला लेनी, फिर तीन नवकार गिनके पार लीजिये. रातके नियम ४ पहरके इसी रीतिसे चितार लीजिये, सवेरे मुंह, धोनेके पहले उसी रीतिसे पारके फिर धार लीजिये. यदि पाठ पहरके नियम करे तो रात दिनकी चीजें साथही धारलेनी, विगत- ( संख्या*) . ___* जिसको जितनी जरूरतहो उतनी चीजोकी संख्या प्रेकेटमें लिखलेनी ताकी धारनेमें सुभीता रहे. १ सचित्तमें ( . ) जात. वजन शेर ( २ द्रव्यमें ( ) जितने म्हूंमें जावे उनकी संख्याका नियम कर लेना. ३ विगयों ( ) जो छोडो उनके नाम खोल लेना. ४ वाणहमें जूते जोडे बूटजोडी ( ) स्लीपर जोडी( ) मोजे जोडी ( ) • ५ तंबोलमें पानकी बीडी ( .) इलायजी, सुपारी आदि तोले ( ) . ६ वत्यमें ( वस्त्र ( ) प्राभूषण ( ) . .. . ७ कुसममें फुल सेर ( ) - ८ पाहनमें ( ) तरते ( ) फिरते ( ) उडते ( ) चरते. ६ सयनमें ( ) जगेके जो लमे, आना, श्राना, बेठना. ( 1 ) मकान, Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५८) और दुकान, ( ) बगीचे, ( ) जाजरु, ( ) मोरी. ( ) १० विलेपनमें ( ) जातका सेर. ( ) ११ बंभमें परदार और परपुरुषसें अब्रह्मचर्यका त्याग. इतनी पेर ( ) स्व- स्त्री वा पुरुषसे संबंध करना. ब्राह्य विनोदकी जयणा. १२ दिशिमें शरीरसें ( ) कोस नाना आना. चीही तार तथा माल भेजना मंगाना ( ) हजार कोसतक. छापेकी जयणा. १३ न्हाणमें ( ) मोटे, ( ) छोटे स्नान. १४ भत्तेसुमें खानेको सेर ( ) पीनेका पानी सेर ( ) दुध, सरवत मादि ( ) सेर. १५ पृथ्वीकायमें मट्टीनमक सेर ( .). .. .. १६ अप्पकायमें पानी मन ( ) ( न्हाने पीनेमें ). १७ तेऊकायमें ( ) जगहके चून्हे, अंगीठी, भट्टी, ( ) चिराग. ( ) . . मंदिर, सड़क वा दूसरी जगहके चिरागकी जयणा. १८ वायुकायमें, पंखे ( ) दूसरेके घरकी जयणा. १९ वनस्पतीकायमें ( ) जातकी सेर ( ) खानेको. २० त्रसकायर्मे चलते जीवको मारनेकी बुद्धि करके मारे नहीं. मन करके उ. पयोग सहित निरपराधीको मारे नहीं. २१ असीमें ( ) शस्त्र वा ( )औजार. २२ मसीमें ( ) लिखने पढनेका चीजें. ( ) कलम, दोवात आदि. २३ कृषीमें खेतीविघा ( ) वाकी त्याग, बगीचेकी जयणा. ___ अगर कोईको जादे कमती रखना होय तो इच्छा मुजब रखिये, यदि नाम खोलके विस्तारसे रखिये तो ज्यादे लाभ है. परंतु जितना रखिये उसमें दोष नहीं लगावे, भूल चूकसें अतिचार लमजाय तो कमसे कम १० नवकारका दंड लीजिये, और ३० द्रव्य रखे थे और ३१ लगे तो दूसरे दिन २६ रखिये. श्रावक का आठवां व्रत अनर्थ दंड त्याग. अपने उपयोग में जो धनस्पति वगैरह आवे उसे लेना वो अर्थ दंड है बिना प्रयोजन का जादह लेवे वो अनर्थ दंड है छवेश्याओं का शंत विचार Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५६) यथा शक्ति मन वचन काया से दूसरे जीवों की रक्षा करनी, औरतें गालियें गावे, पुरुष होली के दिन में अपशब्द बोले वा हांसी करना पाप का उपदेश देना वा टंटा कराना क्लेश बढाना परस्पर निंदा लेख ट्रेक्ट पुस्तक निकाल - समय धन बुद्धि व्यर्थ करना पैसे बालों की ईर्षा करना गुणवानों का देव करना विना कारण समिति और तीन गुप्ति न पालना । जैसे कि दूसरा रास्ता होने पर भी हरी पर चलना, चलते २ पुस्तक बा पत्र पढना अंधेरे में बैठ खाना बिना विचारे चाहे वहां टट्टी जाना पिशाब करना थूकना कूड़ा फेंकना विना कारण आर्त रौद्रं ध्यान करना, अधिक बोलना, शरीर से दूसरों को बिना कारण दुःख देना ऐसे अनेक पर पीडक कृत्य अनर्थ दंड में हैं उसे छोड़ना चाहिये । चारशिक्षा व्रत. सामायिक में दो घडी तक स्थिर बैठ जाप वा धर्म शास्त्र का पठन वा पाप का पश्चात्ताप करना प्रभात और साम को प्रतिक्रमण में छ आवश्यक होते हैं उसमें प्रथम सामायिक है दुपहर वा रात को भी सामायिक हो सक्ता है धर्म शास्त्र पठन का यह उत्तम रास्ता है किन्तु यह दो घडी ( ४८ मिनिट ) का चारित्र है इसलिये साधु की तरह यह पालना चाहिये और सामायिक व्रतका पाठ उचरना चाहिये. सामायिक पाठ । ( उसकी विधि अर्थ साथ किताब अलग छप चुकी है। ) करेमि भंते सामाइअं सावज्जं जोगं पच्चखामि जाब नियमं पज्जु वासामि दुविहं ति विहरेणं मरणरंग बायाए कारणं न करेमि न कारवेमि तस्स भंते पडिशामामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि । इस पाठ में यह बताया है कि दो घड़ी तक मन बचन कायासे पाप ब्यापार न करूंगा न कराउंगा और भूल से हो जावे तो उसकी निंदा गर्दा कर भात्मा को पाप से रोड़ंगा । Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६०) श्रावक का दशवां व्रत देशावकाशिक । देशाकाशिक an ar त का ही संबंधी है. पाप व्योपार छोडने को जो दिशि परिमाण जीवित पर्यंत के लिये किया है उसे एक रात बा दिन रात में संकोच कर बैठ उस समय धर्म ध्यान करना किंतु ध्यान यह रखना कि आप दूसरों को भी उस परिमाण से बहार न भेजे और आप साधु की तरह निरवद्य धर्म व्योपार में रहे पढ़े गुणे । श्रावक का ११ वा व्रत पोषध । ( पौष की विधि अलग छप चुकी है वो देखो । ) पोष व्रत से चारित्र का अभ्यास, धर्म की पुष्टि और समय का सदुपयोग मुक्ति के लिये होता है साधु की तरह एक रात, दिनका पच्चखाख होता है देशा व काशिक से उसमें अधिक यह है कि पोषध में उपवास बा वावील वगैरह तप भी करना पडता है क्रिया भी करनी पडती और है दश सामायिक करके भी देशा व काशिक अत करने की परिपाटी है पीछे घर भी जा सक्ता है. और पोषष में तो वहां ही बैठना पड़ता है. दिन में स्थंडिल जाना होतो साधु की तरह बहार जा सके। मंदिर में भी जा सके किंतु द्रव्य पूजा न कर सके यह पोषध पर्व तिथि में होता है । श्रावक का १२ अतिथि संविभाग व्रत है । यह व्रत पौषध के दूसरे दिन एकाशना पका पच्चखाण करके साधु वा साध्वी को आहार देकर जो साधु चीज लेवे वो ही उस दिन एका शना में वापरे जो साधु साध्वी न हो तो जीवित पर्यंत का ब्रह्मचर्य जिसने लिया हो उसे जिमा कर आप खावे वा मंदिर में नैवेद्य चढा कर भोजन करे । श्रावक के १२ वां व्रत समाप्त | ( संलेखना ) Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६१ ) नो आयु की मालूम होवे तो श्रावक संलेखना करे, और आहार छोड़े और निराकांक्षी हो मुक्ति में दृढ भावना रखें आज के समय में आयु की मालुम न होने से यह परिपाटी नहीं है तो भी एक एक दिन वा एक एक कलाक का पच्चखाण कर सक्ते हैं किन्तु रोगी के पास बैठने वाले आदमी को हर समय उपयोग रखना चाहिये । श्रावक के योग्य तपश्चर्या । बाहय के प्रकारका तप है १ उपवास, २ उपोदरी, ३ वृत्तिसंक्षेप, ४' रस व्याग, ५ काय क्लेश ६ संलीनता, अर्थात् बिल्कुल न खाना वा दिन में सिर्फ फासु पानी पीना आंबील वा एकाशना करना कम खाना भिन्न भिन्न वस्तुऐं कम खानी, दूध दही वगैरह न खाना काया का दुःख सहन करना, शरीर स्थिर रखना । अभ्यं तर तप । पाप होगयाडो उसका गुरु पास प्रयाश्चित लेना, बडों का विनय करना, मारों की सेवा और गुणवानों की भक्ति करना पढना पढाना फिर स्मरण करना धर्म कथा कहना ध्यान करना काउसग्ग करना । उसके बारे में दो गाथा याद करनी । असा मुणोअरिया बित्तिसंखेवणं रसच्चाओ कायकिलेसो संलीय को तवोहोर ( १ ) पायच्छितं विणओ वेद्याबच्चं तहेव सज्झाओ उझा उसग्गोविच भिंतर तवो होइ २ । ariचार का वर्णन | जितनी धर्म क्रिया करनी उसमें प्रमाद छोडना और विधि अनुसार बथा क्रि करना । श्रावक के १२ कि १२४ अतिचार हैंसो हिंदी भाषा में नीचे लिखे हैं । Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६१) ॥अथ पाक्षिक अतिचार ॥ " नाणांमि दसणंमि अ, चरणमि तवंमि तहय बिरियमि । श्रायरणं आयारो, इस ऐसो पंचहा भाणिभो ॥१॥" ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार, वीर्याचार, इन पांचों प्राचारों में जो कोई अतिचार पक्ष दिवस में सूक्ष्म या बादर जानते अजानते लगा हो वह सब मन वचन काया कर मिच्छामि दुक्कडं ॥ - तत्र ज्ञानाचारे आठ अतिचार.काले विणए बहुमाणे, उवहाणे तहय निन्हवणे । वंजण अत्य तदुभए, अट्टविहो नाण मायारो॥२॥ ज्ञान नियमित वक्त में पढ़ा नहीं । अकाल वक्त में पढा । विनय रहित, बहुमान रहित, योगोपधान रहित पढा । ज्ञान जिससे पढा उससे अतिरिक को गुरु माना या कहा । देववंदन, गुरुवंदन करते हुए, तथा प्रतिक्रमण, सझाय पढते अशुद्ध अक्षर कहा । लगमात्र न्यूनाधिक कहा । सूत्र असत्य कहा अर्थ अशुद्ध किया। अथवा, सूत्र, अर्थ दोनों असत्य कहे । पढकर भूला । असभाई के समय में थविरावली, प्रतिक्रमण, उपदेश माला आदि सिद्धांत पढा । अपवित्र स्थान में पढा या विना साफ किये घृणित भूमीपर रखा ज्ञान के उपकरण तखती, पोथी, ठवणी, कवली, माला, पुस्तक रखनेकी रील, कागज, कलम, दवात आदिके पैर लगा, थूक लगा अथवा थूक से अक्षर मिटाया, ज्ञान के उपकरण को मस्तक के नीचे रखा, अथवा पास में लिए हुए आहार निहार किया, ज्ञान द्रव्य भक्षण करने वाले की उपेक्षा की, ज्ञान द्रव्य की सार संभाल न की, उलटा नुकसान किया ज्ञानवंत के ऊपर देष किया, ईर्षा की, तथा अवज्ञा आशातना की किसी को पढने गुणने में विघ्न डाला, अपने जानपने का मान किया । मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान मन-पर्यवज्ञान और फेवल ज्ञान इन पांचों ज्ञानों में श्रद्धा न की । गूंगे तोतले की हांसी की। ज्ञान में कुतर्क की, ज्ञान की विपरीत प्ररूपणा की । इत्यादि झानाचार संबंधी जो कोई अनाचार पक्ष दिवस में सूक्ष्म या बादर जानते अजानने खमा हो वह सब मन वचन काया कर मिच्छामिकडं ॥ . Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शना चार के आठ अतिचार-"निस्सकिय निकंखिय, निवित्ति गिच्छा अमृढ दिट्ठी अ। उववृह थिरी करणे, बच्छलप्पभावणे अह ॥ ३ ॥ देव गुरु धर्म में निःशंक न हुआ। एकांत निश्चय न किया । धर्म संबंधी फल में संदेह किया साधु साध्वी की जुगप्सा निंदा की। मिथ्यात्वियों की पूजा प्रभावना देखकर मूढदृष्टिपना किया। कुचारित्रों को देखकर चारित्र चाले पर भी अभाव हुआ। संघ में गुणवान की प्रशंसा न की। धर्म से पतित होते हुए जीव को धर्म में स्थिर न किया । साधी का हित न चाहा । भक्ति न की । अपमान किया । देवद्रव्य, ज्ञानद्रव्य, साधारण द्रव्य की हानी होते हुए उपेक्षा की । शक्ति के होते हुए भली प्रकार सार संभाल न की। साधी से कलह क्लेश करके कर्म बंधन किया। मुखकोश बांधे बिना भगवत् देव की पूजा की । धूपदानी, खस कूची, कलश आदिक से प्रतिमाजी को उपका लगाया। जिनबिंव हाथ से छटा । श्वासोच्छास लेते आशातना हुई। मंदिर तथा पौषधशाला में थूका, तथा मल श्लेश्म किया, हांसी मश्करी की कतूहल किया । जिन मंदिर संबंधी चौरासी आशातना में से और गुरु महाराज संबंधी तेतीस पाशातना में से कोई आशातना हुई हो । स्थापना चार्य हाथ से गिरे हों, या उनकी पडिलेहण न हुई हो गुरु के वचन को मान न दिया हो इत्यादि दर्शनाचार संबंधी जो कोई अतिचार पक्ष दिवस में सूक्ष्म या बादर जानते अजानते लगा हो वह सब मन वचन काया कर मिच्छामि दुक्कडं ॥ चरित्राचार के आठ अतिचार ॥ “ पणिहाण जोग जुत्तो पंचहिं समिइहि तिहिं गुत्तिहिं । एस चरित्तायारो, अट्ठविहो होइ नायबो ॥ ४ ॥ ___ इर्या समिति, भाषा समिति, एषणा समिति, आदान भंडमत्त निक्षेपणा समिति पारिष्ठपनिका समिति मनोगुप्ति,वचनगुप्ति यह आठ प्रवचनमाता सामायिक पौषधादिक में अच्छी तरह पाली नहीं, चारित्राचार संबंधी जो कोई अतिचार पक्ष दिवस में सूक्ष्म या बादर जानते अजानते लगा हो वह सब मन बचन फाया कर मिच्छामि दुक्कडं ॥ विशेषतः श्रावक धर्म संबंधी श्रीसम्यक्त्व मूलं बारह प्रत सम्यक्त्व के . पांच अतिचार ॥ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६४) " संका कंखा विगिच्छा" शंका-श्रीअरिहंत प्रभु के बल. अतिशय ज्ञान लक्ष्मी गांभीर्यादिगुण शाश्वता प्रतिमा चारित्रवान के चारित्र में तथा जिनेश्वर देव के वचन में संदेह किया । आकांक्षा-ब्रह्मा, विष्णु, महेश, क्षेत्रपाल, गरुड, गूगा, दिपाल, गोत्रदेवता, नवग्रह पूजा गणेश, हनुमान, सुग्रीव, वाली, माता, मसानी, आदिक-तथा देश नगर ग्राम गोत्र के जुदे जुहे देवा दिकों का प्रभाव देखकर शरीर में रोगातंक कष्टादि के आने पर इस लोक पर लोक के लिये पूजा मानता की । बौद्ध सांख्यादिक संन्यासी, भगत लिंगिये, जोगी, फकीर पीर इत्यादि अन्य दर्शनियों के मंत्र यंत्र चमत्कार को देख कर बिना परमार्थ जाने मोहित हुआ। कुशास्त्र पढ़ा । सुना, श्राद्ध संवत्सरी, होली, राखडापूनम-राखी, अजा एकम, प्रेत दूज, गौरीतीज, गणेश चौथ, नाग पंचमी, स्कंदषष्ठी, झीलणा छठ उभछठ, सील सत्तमी, दुर्गा अष्टमी, राम नौमी, विजिया दशमी, व्रत एकादशी, वत्सद्वादशी, धन तेरस अनंत चौदस, शिव रात्रि, कालि चौदस, अमावास्या, आदित्यवार उत्तरायण योग भोगादि किये कराये करते को भला माना पीपल में पानी डाला डलवाया कुआ तलाव नदी द्रह बावड़ी समुद्र कुंड ऊपर पुण्य निमित्त स्नान तथा दान किया कराया अनुमोदन किया ग्रहण शनिश्चर माघमास नव रात्रिका प्रत किया अज्ञानियों के माने हुए व्रतादि किये कराये वितिगिच्छा-धर्मसंबंधी फल में संदेह किया। जिन वीतराग अरिहंत भगवान धर्म के आगार विश्वोपकारक सागर मोक्ष मार्ग दातार इत्यादि गुण युक्त जानकर पूजा न की इसलोक परलोक संबंधी भोग वाञ्छा के लिये पूजा की रोग आतंक कष्ट के आने पर क्षीण बचन बोला। मानता मानी महात्मा महा सती के आहार पानी आदि की निंदा की मिथ्या दृष्टि की पूजा की पूजा प्रभावना देख कर प्रशंसा की प्रीति की। दाक्षिण्यता से उसका धर्म माना । मिथ्यात्व को धर्म कहा । इत्यादि श्रीसम्यक्त्वव्रत संबंधी जोकोई अतिचारपक्ष दिवसमें सूक्ष्मया वादर जानते अजानते लगा हो वह सब मन वचन काया कर मिच्छामिदुक्कडं ॥ पहिले स्थूल प्राणातिपात विरमण ब्रत के पांच अतिचार " वह बंधछविच्छेए " द्विपद चतुष्पद आदि जीव को क्रोध वश ताडन किया, घाव लगाया, जकड कर बांधा अधिक बोझ लादा, निर्लाछन कर्म Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६५) - नासिका वींधवाई, कर्णछेदन करवाया, खसी किया, दाना घास पानी के समय सार वार न की, लेण देण में किसी के बदले किसी को भूखा रखा, पास खडा होकर मरवाया, कैद करवाया, सड़े हुए धान को बिना शोधे काम में लिया, अनाज शोधे बिना पिसवाया, थूपमें सुकाया, पानी यतना से न छाना, ईंधन लकड़ी उपले गोहे आदि बिना देखे जलाये, उसमें सर्प विच्छू कानखजूरा किडी मकोडी आदि जीवका नाश हुआ, किसी जीव को दबाया दुःख होते जीव को अच्छी जगह पर न रखा चीन्ह काग कबूतर आदि के रहने की जगह का नाश किया, घोंसले तोडे, चलते फिरते या अन्य काम काज करते निर्दयपना किया । भली प्रकार जीव रक्षा न की विना छाने पानी से स्नानादिक काम काज किया, कपडे धोये । यतना पूर्वक काम काज न किया । चारपाई. खटोला, पांढा, पीढी आदि धूप में रखे डंडे आदि से झडकाये । जीव संसक जमीन को लीपी । दलते कूटते, लीपते या अन्य कुछ काम काज करते यतना न की। अष्टमी चौदस आदि तिथि का नियम तोडा । धूनी करवाई । इत्यादि पहिले. स्थूल प्राणातिपात विरमप प्रतसंबंधी जो कोई अतिचार पन दिवस में सुक्ष्म या बादर जानते अजानते लगा हो वह सब मन बचन काया कर मिच्छामिदुक्कडं । दूसरे स्थूल मृषावाद विरमण ब्रत के पांच अतिसार ॥ " सहस्सा रहस्य दारे ०" सहसात्कार बिना विचारे एक दम किसी को अयोग्य आल कलंक दिया स्वस्त्री संबंधी गुप्त वात प्रकट की, अथवा अन्य किसी का मंत्र भेद मर्म प्रकट किया। किसी को दुखी करने के लिये खोटी सलाह दी। मूंठा लेख लिखा । झूठी साक्षी दी अमानत में खयानत की किसी की धरोड़ वस्तु पीछी न दी कन्या, गौ, भूमि, सम्बंधी लेन देन में लडते झगड़ते वाद विवाद में मोटा झूठ बोला । हाथ पैर आदि की गाली दी इत्यादि स्थूल मृषावाद विरमण बत संबंधी जो कोई अतिचार पक्ष दिवस में सुक्ष्म या बादर नानते अजानते लगा हो वह सब मन बचन काया कर मिच्छामि दुक्कई ॥ ... तृतीय स्थूल अदत्तादान विरमणव्रत के पांच अतिचार ॥ " तेणाहडप्प ओगे०." घर बाहिर, खेत, खलामें, विना मालिक के भेजे वस्तु ग्रहण की। Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६६) अथवा विना आज्ञा अपने काम में ली । चोरी की वस्तु ली । चोर को सहा. यता दी ! राज्य विरुद्ध कर्म किया। अच्छी, बुरी, सजीव, निर्जीव, नई, पुरानी बस्तु का भेल संभेल किया । जकात की चोरी की । लेते देते तराजू की डंडी चढाई अथवा देते हुए कमती दिया लेते हुए अधिक लिया रिशवत खाई विश्वासघात किया ठगी की । हिसाब किताव में किसी को धोखा दिया। माता, पिता, पुत्र, मित्र, स्त्री आदिकों के साथ ठगी कर किसी को दिया अथवा पूंजी अलाहदा रखी । अमानत रखी हुई वस्तु से इनकार किया किसी को हिसाब किताब में ठगा । पडी हुई चीज उठाई । इत्यादि स्थूल अदत्तादान विरमण व्रत सम्बन्धी जो कोई अतिचार पक्ष दिवस में सूक्ष्म या बादर जानते अजानते लगा हो वह सब मन वचन कायाकर मिच्छामि दुक्कडं ।। __ चोथे स्वदारासंतोष परस्त्रीगमन विरमणव्रत के पांच अतिचार ॥ " अप्प रिगहया इत्तर०" परस्त्रीगमन किया। अविवाहिता कुमारी, विधवा वेश्यादि क से गमन किया । अनंगक्रीडा की । काम आदिकी विशेष जाग्रती की अभिलाषा से सराग वचन कहा । अष्टमी चौदश आदि पर्व तिथि का नियम तोड़ा स्त्री के अंगोपांग देखे. तीव्र आभिलाषा की। कुविकल्प चिंतवन किया पराये माते जोड़े। गुड्डे गुड्डियों का विवाह किया। करे वा कराया। अतिक्रम व्यतिक्रम, अतिचार, अनाचार स्वम स्वमांतर हुआ । कुस्वप्न आया स्त्री नट, विट, भांड, वेश्यादिक से हास्य किया । स्वस्त्री में संतोष न किया । इत्यादिक स्वदारा संतोष परस्त्रीगमन विरमण ब्रत सम्बन्धी जो कोई अतिचार पक्ष दि. वस में सूक्ष्म या बादर जानते अजानते लगा हो वह सब मन बचन कायाकर मिच्छामि दुक्कडं। ____ पंचमे स्थूल परिग्रह परिमाणवत के पांच अतिचार ॥ “ धण धन्न खित्त वत्थू० " धन धान्य, क्षेत्र, वस्तु, सोना, चांदी, बर्तन आदि द्विपद दास दासी नौकर, चतुष्पद गौ बैल घोड़ादि,इन नव प्रकार के परिग्रह का नियम नइ. लिया, लेकर बढाया अथवा अधिक देखकर मूर्खाबश माता पिता पुत्र स्त्री के न नाम किया । परिग्रह का प्रमाण किया नहीं करके भूलाया याद न किया. इत्यादि स्थूल परिग्रह परिमाण ब्रत संबंधी जो कोई अतिचार पक्ष दिक्स मे सूक्ष्म या बाद जानते अजानते लगा हो वह सब मन वचन काया कर Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६७) .......................................... मिच्छामि दुक्कडं ॥ . छ8 दिक्परिमाणवत के पांच अतिचार ॥ " गमणस्सउ परिमाणे" ऊर्ध्वदिशि, अधोदिशि, तिर्यगांदशि जाने आने के नियमित प्रमाण उपरान्त भूल से गया । नियम तोड़ा प्रमाण उपरांत सांसारिक कार्य के लिये अन्य देश से वस्तु मंगवाई। अपने पास से वहां भेजी। नौका जहाजादि द्वारा व्यापार किया वर्षाकाल में एक ग्राम से दूसरे ग्राम में गया। एक दिशा के प्रमाण को कम करके दूसरी दिशा में अधिक गया । इत्यादि छठे दिक्परिमा ण व्रतसम्बंधी जो कोई अतिचार पक्ष दिवस में सूक्ष्म या बादर जानते अ. जानते लगा हो वह सब मन बचन कायाकर मिच्छामि दुक्कडं॥ सातमें भोगोपभोग व्रत के भोजन आश्री पांच और कर्म आश्री पंदरां अतिचार ॥ " सञ्चिते पडिबध्धे" सचित्त खानपानकी वस्तु नियम से अधिक अंगीकार की। सचित्त से मिली हुई वस्तु खाई । तुच्छ औषधी का भक्ष. ण किया । अपक्व आहार दुपक्व आहार किया । कोमल इमली, बॅट, मुढे, फलियां आदि वस्तु खाई। सचित्त १ दब्ब २ विगई ३ वाणह ४ तंवोल ५ वत्थं ६ कुसुमेसु ७ । वाहण ८ सयण ६ विलेवण १० बंभ ११ दिसि १२ न्हाण १३ भत्तेसु १४ ॥१॥ ___यह चौदह नियम लिये नहीं । लेकर भुलाये । बड़, पीपल, पिलखण, कढुंवर, गूलर, यह पांच फल मदिरा, मांस शहद, मक्खन यह चार महा विगई, वरफ, ओले, कच्ची मिट्टी, रात्री भोजन, बहुबीजाफल, अचार घालबड़े, द्विदल, बैंगण, तुच्छफल, अजानाफल, चलितरस अनंतकाय, यह बाईस अभक्षय, सूरन, जिमीकंद, कच्ची हलदी, सताबरी, कच्चानरकचूर, अदरक, कुवारपाठां, थोर गिलोय, लसन गाजर, गहा-प्याज, गोंगलु कोमल फल फूल पत्र, थेगी हरा मोत्था, अमृत वेल, मूली, नीम की गिलोय पदबहेड़ा, आलुक चालु, रतालु, पिंडालु आदि अनंतकाय का भक्षण किया दिवस अस्त होते हुये भोजन किया। सूर्योदय से पहिले भोजन किया तथा कर्मतः पंद्रह कर्मादान इंगालकम्मे, साडिकम्मे, भाडिकम्मे, फोडीकम्मे यह पांच कर्म । दंतवाणिज्ज, लाख वाणिज्ज, केस वाणिज्ज, बिसवाणिज्ज यह पांच बाणिज्ज, जंत पिल्लण कम्म, निल्लछन कम्म Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दवग्गिदावणिया, सर दह तलाव सोसणया असइ पोसणया, यह पांच सामान्य, एवं कुल पंद्रह कर्मादान महा आरंभ किये कराये करते जो अच्छा समझा। श्वान, बिल्ली, आदि पोषे पाले। महा सावध पापकारी कठोर काम किया । इत्यादि सातमेंभोगोप भोग व्रत संबंधी जो कोई अतिचार पक्ष दिवस में सूक्ष्म या बादर जानते अजानते लगा हो वह सब मन वचन काया कर मिच्छामि दुक्कडं ॥. . आठमें अनर्थदंड के पांच अतिचार ॥ " कंदप्ये कुक्कुइए०" कंदर्प-कामाधीन होकर नट, विट, वेश्या, आदिक से हास्य खेल क्रीड़ा कतूहल किया। स्त्री पुरुष के हावभाव रूप श्रृंगार संबंधी वार्ता की। विषयरसपोषक कथा की। स्त्रीकथा, देशकथा, भक्तकथा, राजकया, यह चार विकथा की, पराई भांजगढ की। किसी की चुगल खोरी की । आर्तध्यान रौद्रध्यान ध्याया। खांडा, कटार, कशि, कुहाडी, रथ उखल, मूसल, अग्नि, चक्की, आदिक वस्तु दाक्षिण्यता वश से किसी को मांगी दी। पापोपदेश दिया । अष्टमी चतुर्दशी के दिन दलने पीसने का नियम तोड़ा। मूर्खता से असंवध वाक्य बोला । प्रमादाचरण सेवन किया । घी, तैल, द्ध, दही, गुड, छाछ आदिक भाजन ( बर्तन ) खुला रखा उसमें जीवादिका नाश हुआ। वासी मांखण रखा और तपाया । न्हाते धोते दातण करते जीव आकुलित मोरी में पानी डाला । झूले में झूला । जुवा खेला । नाटक आदि देखा । ढोर, डंगर, ख-, रीदवाये । कर्कश वचन कहा । किचकिची ली । ताड़ना तर्जना की। मत्सरता धारण की। श्राप दिया भैंसा, सांढ, मेंढा, मुरगा, कुत्ते, आदिक लडवाये या इनकी लडाई देखी । ऋद्धिमान् की ऋद्धि देख ईर्षा :की । मिट्टी, नमक, धान, विनोले, विनाकारण मसले । हरी वनस्पति खुदी। शस्त्रादिक बनवाये । रागद्वेष के वश से एक का भला चाहा । एकका बुरा चाहा। मृत्यु की वांछा की । मैना, तोते, कबूतर, बटेर, चकोर आदि पक्षियों को पींजरे में डाला । इत्यादि आठमें अनर्थ दंड विरमण व्रत संबंधी जो कोई अतिचार पक्ष दिवसमें सूक्ष्म या बादर जानते अजानते लगा हो वह सब मन बचन कायाकर मिच्छामि दुक्कडं ॥ . . - नवमें सामायिक व्रतके पांच अतिचार । "तिविहे दुप्पसिहाणे०.." सा Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६६) . मायिक में संकल्प विकल्प किया। चित्त स्थिर म रखा । सावध बचन बोला प्रमार्जन किये बिना शरीर हलाया, इधर उधर किया। शक्तिके होते हुए सामायिक न किया। सामायिक में खुले मुंह बोला । नींद ली। विकथा की । घर सम्बन्धी विचार किया । दीपक या बिजली का प्रकाश शरीरपर पड़ा। सचित्त वस्तुका संघट्टा हुआ । स्त्री नियंच आदिका निरंतर परंपर संघट्टा हुआ । मुहपत्ति संघट्टी । सामायिक अधुरा पारा । विना पारे ऊठा । इत्यादि नवमे सामायिक पतसंबंधी जो कोई अतिचार पक्ष दिवस में सूक्ष्म या बादर जानते अजानते लगा हो वह सब मन वचन काया कर मिच्छामि दुक्कडं ॥ दशमे देशावकाशिक व्रतके पांच अतिचार ॥ " प्राणवणे पेसवणे." आणवणप्पओगे, पेसवणप्पओगे, सहाणुवाई, रूवाणुवाई, वहिया पुग्गल पखेवे, नियमित भूमि में वाहिर से स्वतु मंगवाई । अपने पाससे अन्यत्र भिजवाई । खुखारा आदि शब्द करके, रूप दिखाके, या कंकर आदि फेंककर भपना होना मालूम किया । इत्यादि दशमें देशावमाशिक ब्रत संबंधी जो कोइ अतिचार पक्ष दिवसमें सूक्ष्म या बादर जानते अजानते लगा हो वह सब मन वचन काया कर मिच्छामि दुक्कडं ॥ अग्यारहवें पौषधोपवास ब्रतके पांच अतिचार ॥ " संथारुच्चार विहि." अप्पडिलाहअ दुप्पाडलेहिअ सिजा संथारए । अप्पडिलेहिय दुप्पाडलेहिय उच्चार पासवरा भूमि । पौषध लेकर सोनकी जगह विना पूंजे प्रमार्जे सोया। स्थंडिल श्रादिकी भूमी भली प्रकार शोधी नही । लघु नीति वडी नीति करने या परठने समय “ अणुजाणह जस्सुग्गह" न कहा । परठे बाद तीन वार वोसिरे वोसिरे बोसिरे न कहा । जिनमंदिर और उपाश्रयमें प्रवेश करते हुए निसिही और बाहिर निकलते प्रावस्सही तीन वार न कही । वस्त्र आदि उपधिकी पडिलेहणा न की । पृथ्वीकाय, अपकाय, तेउकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय, त्रसकाय का संघट्टा हुआ । संथारा पोरिसी पढ़नी भुलाई । विना संथारे नमीनपर सोया । पोरिसीमें नींद ली। पारना आदिकी चिंता की । सम. यसर देववंदन न किया। प्रतिक्रमण न किया। पौषध देरीसे लिया और जन्दी पारा । पर्व तिथिको पोसह न लिया, इत्यादि ग्यारहवें पौषह व्रत संबंधी जो कोई अतिचार पक्ष दिवसमें सूक्ष्म या पादर जानते अजानते लगा हो वह Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७०) - सब मन वचन काया कर मिच्छामि दुक्कडं ॥ ___ बारहवें अतिथिसविभाग व्रतके पांच अतिचार ॥ " सच्चित्ते निक्खिव णे." सचित्तवस्तुके संघट्टेवाला अकल्पनीय अहार पानी साधु साध्वीको दिया । देनेकी इच्छासे सदोष वस्तुको निर्दोष कही । देनेकी इच्छासे पराई वस्तुको अपनी कही । न देनेकी इच्छासे निर्दोष वस्तुको सर्दोष कही । न देनेकी इच्छासे अपनी वस्तुको पराई कही । गोचरीके वक्त इधर उधर होगया। गौचरीका समय टाला . बेवक्त साधु महाराजको प्रार्थना की । आये हुए गुणवानकी भक्ति न की । शक्ति के होते हुए स्वामी वात्सल्य न किया । अन्य किसी धर्मक्षेत्र को पड़ता देख मदद न की । दीन दुःखीकी अनुकंपा न की। इत्यादि बारहवें अतिथि संविभाग प्रत संबंधी जो कोई अतिचार पक्ष दिवस में सूक्ष्म या बादर जानते अजानते लगा हो बह सव मन वचन काया कर मिच्छामि दुक्कई ॥ संलेषणा के पांच अतिचार ॥ " इह लोए परलोए०" इहलोगासंसप्पप्रोगे । परलोगासंसप्पओगे । जीवियासंसप्पओगे। मरणासंसप्पनोगे । काम भोगासंसप्पओगे । धर्म के प्रभाव से इस लोक संबंधी राजऋद्धि भोगादिकी वांछा की। परलोक में देव देवेंद्र चक्रवर्ती आदि पदवीकी इच्छा की । सुखी अवस्था मे जीने की इच्छा की । दुःख खाने पर मरने की बांछा की । काम भोग की बांछा की । इत्यादि संलेषणा व्रत संबंधी जो कोई अतिचार पक्ष दिवस में सूक्ष्म या बादर जानने अमानते लगा हो वह सब मन नचन काया कर मिच्छामि दुकाडं ॥ . तपाचारके बारह भेद छ बाह्य छ अभ्यंतर । " अणसणमुणोअरिया." अनशन शक्ति के होते हुए पर्वतिथिको उपवास आदि तप न कियाऊनोदरी दो चार ग्रास कम न खाये । वृत्तिसंक्षेप-द्रव्य-खाने की वस्तुओं का संक्षेप न किया। रस विषय त्याग न किया । कायक्लेश-लोच आदि कष्ट न किया। संलीनता अंगोपांगका संकोच न किया, । पचखाण तोड़ा। भोजन करने समय एकासणा आंबिलप्रमुख में चौकी, पटड़ा, अखला आदि हिलता ठीक न किया। पच्चक्खान पारना भूलाया। बेठते नवकार न पढा। उठते पच्चखाण न किया निवि आंबिल उपवास आदि तपमें कच्चा पानी पिया । वमन हुआ। Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७१) - इत्यादि ब्राह्य तप संबंधी जो कोई अतिचार पक्ष दिवसमें सूक्ष्म या बादर जानते अजानते लगा हो वह सब मन वचन काया कर मिच्छामि दुक्कडं । अभ्यंतर तप "पाय छित्त विणो ० शुद्धान्तः करण पूर्वक गुरु महाराज से आलोचना न ली । गुरु की दी हुई आलोचना संपूर्ण न की। देव गुरु संघ साधर्मी का विनय न किया । बाल वृद्ध ग्लान तपस्वी आदि की वैय्यावच्च न की । वाचना, पृच्छ ना, पगवर्तना, अनुप्रेक्षा धर्मकथा लक्षण पांच प्रकार का स्वाध्याय न किया । धर्म ध्यान, शुक्ल ध्यान ध्याया नहीं, आर्तध्यान रौद्रध्यान ध्याया। दुःख क्षय कर्म क्षय निमित्त दश वीस लोगस्सका काउसग्ग न किया । इत्यादि अभ्यंतर तप संबंधी जो कोई अतिचार पक्ष दिवस में सूक्ष्म या वादर जानते अजानते लगा हो वह सब मन वचन काया कर मिच्छामि दुक्कडं ॥ वीर्याचार के तीन अतिचार पढते, गुणते, विनय, वैय्यावच्च, देवपूजा, सामायिक, पौषध,दान शील तप, भावनादिक धर्मकृत्य में मन, वचन, काया का वल, वीर्य, पराक्रम फोरा नहीं, विधि पूर्वक पंचांग खमासमण न दिया, द्वादशावर्त बंदनका विधि भली प्रकार न किया, अन्य चित्त निरादर से बैठा देव बंदन प्रतिक्रमण में जल्दी की । इत्यादि वीर्याचार संबंधी जो कोई पक्ष अतिचार पक्ष दिवस में सूक्ष्म या वादर जानते अजानते लगा हो वह सव मन वचन काया कर मिच्छामि दुक्कडं ॥ नाणइ अठ्ठ पदवय, समसलेहण पन्चर कम्मेसु ॥ बारस तब विरिअ तिगं, चब्बीस सय अइयारा॥ “पडि सिद्धाणं करणे ०" प्रतिषेध-अभक्ष्य अनंतकाय बहुवीज भक्षण महारंभ परिग्रहादि किया। देव पूजन आदि षट कर्म सामायिकादि छै आवश्यक विनयादक अरिहंत की भक्ति प्रमुख करणीय कार्य किये नहीं । जीव अजीवा दिक सूक्ष्म विचार की सद्दहणा न की । अपनी कुमति से उत्सूत्र प्ररूपणा की । तथा प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, कलह, अभ्याख्यान, पैशुन्य रात अरात, परपरिवाद, माया, मृषावाद, मिथ्यात्वशल्य, यह अठारह पापस्थान किये कराये अनुमोदे। दिन कृत्य प्रलिक्रमण विनय वैयावत्य न किया और भी जो कुछ बीतरागकी Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७२) . वरि वीर वेपार ५ २० ४१ मारी १८ देश विा ཤྩ བྷཱཙྪཱ བྷྱཱ ཉྙོ ཝ་ཨ༔ བྷཾ ཟླ १. १३ आज्ञा से विरुद्ध किया, कराया करते को भला जाना | इन चार प्रकारके अतिचार में जो कोई अतिचार पक्ष दिवस सूक्ष्म या बादर. जानते अजानते लगा हो वह सब मन बचन काया-मिच्छामि दुक्कडं ॥ एवंकारे श्रावक धर्म सम्यक्त्वमूल बारह व्रत संबंधी एकसौ चौवीस अतिचारों में से जो के ई अतिचार पत दिवस में सूक्ष्म या बादर जानते अजानते लगा तो वह सब मन बचन काया कर मिच्छामि दुक्कडं ॥ इति ॥ शुद्धि पत्र॥ शुद्धि पत्र प्र० पंक्ति अशुद्ध प्र. पंक्ति अशुद्ध शुद्ध शुद्ध १ १७ ध्मान ध्याम ३७ ५ जीव का जीवों की ३६ २३ मे ५१७ प्राज ૪૧ ૪ तैयार देश विरित देश विरति १७ .६ में.. ४४ १७ हलिता हीलता सौम्य ૪૬ ૧૪ जुनो देखो १३ पापाद्ध पापार्द्ध दो १६ उन्होंने परिणाम परिमाण ७ २७ प्रौ संताप संतोष षडा पडा श्राना जाता आना जाना २१ १६ दाक्षिएता दाक्षिण्यता १२ और है है और धन ६. १५ १२ १२ वां उसने पका . का २२ २३ सौम्य सौम्य व्रतोदिक व्रतादिक जाती जाती जाती नाणांमि नाणंमि और भाणियो भणिओ अदश्य अदृश्य चारित्रो चारित्री २५ निस्पृहता २६ निस्पहता ३२ काय गुप्ति ...... पारिष्ठा २६ . दष्टांत ३२ परिष्टा दृष्टांत २६ . निर्दोष . निदोष ६४ २ शास्वतो शास्वात २६ .. ४ दृष्टि ४ धूप में दष्ठि थूप में १६ रहस्स २४ रहस्य आये गहिया २६ . २२ गइया सदाचार सदाचारी २६ ४ पापीपो पापियों ६८ ३ कठोर ३० ३ उतका उनका स्वस्तु वस्तु ३५. ६. जिसने जीतने कोई ६६ २ जस्सुगह ३५ २५ छुटे छुटे भिन्न भिन्न ७. १ खाने श्राने १६. ५ मिलेगा मिलेगा। |३६ १६ कन्था कान्या सौभ्य। भौर २४ वो २३४ जौर umr X MM . १७ मिट्टी मिठी कठो . जस्सगो .... Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपूर्व ग्रंथ ॥ श्रीपाल चरित्र अर्थात् श्रीपाल राजा के राम का मूल के साथ हिन्दी भाषान्तर इस ग्रंथ में कर्म और उद्योग की स्पर्धा दिखाई है और मनुष्य की बुद्धि से भी अधिक धर्म का प्रभाव है वह दिखाया है. साथ में नव पदजीका माहात्म्य भी बताया है श्रीमान् विनय बिजयजी और यशोविजयजी महाराज ने काशी में विदेशी पंडितों को जीत बनारस के पंडितों को लाज रखी थी उन्होंने पुराणे संस्कृत और मागधी ग्रंथों का आधार लेकर यह ग्रंथ बनाया है अपने घर के स्त्री और बालकों को अच्छी शिक्षा देना चाहे अथवा जो मु चाहे उनको यह ग्रंथ अवश्य रखना चाहिये मूल्य दो रुपये । ग्रंथ महासुद १५ तक तैयार होगा आत्मनंद पुस्तक प्रचारक मंडल: रोसनमुहुला आगरा सोभाग्यमल हरकाबत नयाँ वाजार अजमेर Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0 0 नीचे लिखी हुई किताबें तैयार है जीव विचार मूल और अर्थ 0-3-0 नवतत्व , 0-5-0 संग्रहणी , 0-8-0 कल्पसूत्र , 1-8-0 सामायिक , भक्तामर कल्याण मंदिर , 0-2-0 दो प्रतिक्रमण,, .. 0-4-0 कमग्रंथ छप रहा है ४था श्वा प्रभु का चरित्र भेट धर्म रत्न प्रकरण सार भेट عدو ا 0 0-2-0 मिलने के पते आगरा रोसन मुहुड्डा श्रात्मानंद जैन पुस्तक प्रचारक मंडल, सोभागमल हरकावत. अजमेर