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आ, इस दष्टांत से यह बताया है कि प्रथम अच्छे गुरुका शोध करने में मध्यस्थता गुण चाहिये कदाग्रही प्रथम से ही आग्रह रखकर रागी होकर दोष नहीं देखता है और पीछे गुरु के दोष शिष्य को दुःख दायी होते हैं. इसलिये निर्दोपं ज्ञानी गुरु के चरणकी सेवा करने पहले मध्यस्थ सौम्य दष्टि होना आवश्यक है. किंतु अच्छा धर्म पानेबाद दूसरोंको कटाक्ष वचन नहीं कहना संतोष से समजाया न समझे तो भी आप कोध न करें।
(१२ ) गुणानुरागी होना .. श्रावक धर्म पाने पहले गुणानुरागी होना चाहिये. जिससे वो गुणी का ही पक्ष कर गुण रहित की उपेक्षा करे, और पीछे गुणों को लेकर उसकी रक्षा करके दिन प्रतिदिन गुणों की वृद्धि करे। कोई ऐसा भी कहते हैं कि
शत्रोरपिगुणा ग्राहया, दोषा वाच्या गुरोरपि । अर्थात् शत्र से भी गुण लेना, और गुरु के भी दोष को प्रगट करना इस बचनानुसार दूसरोंकी निन्दा करनाभी ठीक है उनको यह उत्तर हैकि निन्दा करने वाला जितना समय व्यर्थ करेगा उतने समयमें निन्दा न करनेवाला अधिक गुण प्राप्त कर लेवेगा और निन्दकको पीछे व्यर्थ क्लेश भी बढता है इसलिये समाधि वांछक पुरुषों को दूसरों के दोषोंको देख उसकी उपेक्षा करनी चाहिये, जैसे कि कर्म वशात् किसी ने दुराचरण किया उसे समझाना ठीक है न समझे तो जगह २ उसकी निन्दा न करनी न उसका संग वा प्रशंसा करनी उसे उपेक्षा कहते हैं वो उपेक्षा धारण करनी क्योंकि- '
सन्तोप्य सन्तोपि परस्प दोषा, नोक्ताः श्रुता वा गुणमाव हन्ति ।
वैराणि धक्तुः परिवर्धयन्ति, श्रोतुश्च तन्वन्ति परां कुबुद्धिं ॥ - और भी अधिक दोषी जनों को देखकर मन में चिंतबना करे कि “अ. नादि काल से जीव दोषों से भरा है, किन्तु जो गुण पाना वोही दुर्लभ है इसलिये किसी में गुण देखने में आये वोही आश्चर्य है ! दोष तो हैं ही ! उस में निन्दा क्या करनी ! बालक में मंद बुद्धि होना आश्चर्य नहीं है किंतु उसमें