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खाने का प्रचार भी था एक वक्त प्रभाकर पुत्र हस्तिनागपुर को व्योपार्थे गया जौर जिनदास सेठ के घर को ठहरा उसकी भार्या पद्मश्री थी, और जिनमति नाम की पुत्री थी उतका जैन धर्म था, व्योपार से मभाकर का जिन दास से मिलना हुआ, और जिनमति के गुणों से रंजित होकर उसको उस के बाप से मांगी सेठ ने धर्म भिन्न होने से ना कही तब वो प्रभाकर साधु के पास जाकर कपटी श्रावक, बन कर धर्म कथा सुनने लगा वारह ब्रत लेकर यथा योग्य भक्ति कर साधुओं को प्रसन्न किये जिससे जिनदास भी उसे धर्म बंधु जान अपनी पुत्री दी वो एक दम विवाह हो जाने बाद सेठ की रजा ले कर अपने बाप को मिलने को स्वदेश गया वहां जाने से जिनमति को अत्यन्त कष्ट होने लगा क्योंकि धर्म बौद्ध होने से बे मांस भक्षण बगैरह भी कर सक्के थे, जैनों में जीव दया प्रधान होने से मांस का नाम भी नहीं लेते थे, उसका मन रोज रोज खेदित हुआ, परन्तु कपटी पति को दया नहीं आई और मांस का धुंवां भी लेने को जिनमति नहीं चाहती थी, जिससे पति भी घबराने लगा कुटुंब में क्लेश रहने से घर की संपत्ति भी नाश होने लगी प्र भाकर ने बौद्ध गुरू से कहा उसने कुछ मंत्र बल से जिनमति को भृष्ट करना चाहा तो भी जिनमति न डरी, न मांस को पकाया न खाया, न मांस भक्षी बौध साधुओं का सम्मान किया किंतु अपने जैन धर्म के साधुओं से जाकर कहा कि अब क्या करूं ? गुरु ने नबकार मंत्र का ध्यान बताया जिससे पति भी सुधर गया और सासु सुसरा भी मांस भक्षी बौध धर्म छोड़ जीवदया प्रधान जैन धर्म के पालक हुए जो उस समय जिनमति डर जाती तो महा अनर्थ होता इस लिये जहां तक बने वहां तक सत्संगति सत्यत करना चाहिये कि जिससे ऐसा रोज का घरमें क्लेश न होवे न असमाधि होवे।
( १५ ) दीर्घ दी का वर्णन जो दीर्घदर्शी पुरुष होता है, वो कार्यको नहीं. बिगडने देता है और थोडा बीगडे तो भी सुधार सक्ता है और थोड़े खर्च से ज्यादा लाभ मिलाता है और हजारों मनुष्यों को दुःख से और पाप से बचा सका है।