Book Title: Dharmratna Prakaran
Author(s): Manikyamuni
Publisher: Dharsi Gulabchand Sanghani

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Page 25
________________ (२१) दे दिया उसने जहां रत्न कंवल फेंका कि फिर औरों ने भी दान दिया तब राजा को बिना इच्छा ही दान देना पड़ा और नटणी का भाग्योदय खुल गया राजा ने दान देकर उसी समय मर्यादा उलंघन करने वाले कुमार को पकड़ कर प्रभात में लाने, की आज्ञा दी. आते ही राजा ने पूछा कि तू कौन है ! और हमारे पहिले दान देकर मर्यादा भंग क्यों की थी ! वो बोला कि मैं आपका भतीजा हूं और मेरी माता जो साध्वी हुई है उसने मुझे यहां भेजा है । और प्रथम दान देने का सबब यह है कि वर्षों तक चारित्र मैंने पाला और अब थोड़ी अवस्था वाकी रही है ऐसे समय में उसे छोड़ चारित्र भ्रष्ट करने के लिये राज्य के लोभ में आया था अब इस गाथा से मुझे शिक्षा मिली है कि थोड़े में चारित्र का लाभ क्यों हारना जो चारित्र मुक्ति तक पहुंचाने वाला है । राजा बोला कि तू आया है तो अब राज्य ले, अाग्रह करने पर भी उसको स्पृहा न हुई तव राजा चुपरहा दूस रों को पूछा कि आपने क्यों दिया ! एक बोला कि मै दुष्टों से मिल आप का द्रोह करना चाहता था किन्तु उस गाथा से मुझे बोध हुवा कि आज तक राजा का निमक ख कर अब आखिर अवस्था में यह क्या करता हूं, और दूसरे दोनों ने ही अपने दुष्ट कृत्योंकी समालोचना की, और तीनोंने चुलक कुमार के पास से दक्षिा लेने को राजा से आज्ञा मांगी और आज्ञा मिलने पर दीक्षा लेकर सुगति के भागी हुयें. इस दृष्टांत से यह बोध लेना चाहिये कि जो कोई बड़ों के दाक्षिणता से भी धर्म में रक्त रहता है और बिना इच्छा भी धर्म पालता है वो कोई दिन सीधा मार्ग पर आ सकेगा और दूसरों को भी तार सकेगा। . (१०) दयालुता. धर्म का मूल दया है उस दया के लिये ही सब महावत है जिनेश्वर के सिद्धांतों का रहस्य यही है कि और जीवों को मन, बचन, काया से अपनी तरफ से शांति उपजानी, और दयावान् मनुष्य ही धर्म पाकर उस की रक्षा · करेगा इसलिये धर्म रुचि का दृष्टांत कहते हैं एक जागीरदार का पुत्र गृहवास में जीवों को दुःख देना देखकर दयालुता से वैरागी होगया था. तापसा

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