Book Title: Dharmratna Prakaran
Author(s): Manikyamuni
Publisher: Dharsi Gulabchand Sanghani

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Page 14
________________ (१२) किसी जीव को कष्ट नहीं पहुंचाते । इस तरह पर गुणरागी और अपने दोषों की निन्दा करने वाले अंगर्षि का शुद्ध भाव बढ़ने लगा, आत्मा में अपूर्व शां. ति होने लगी मोहनीय कर्म क्षय होने लगा, विशुद्ध भाव बढ़ते बढ़ते क्षेपक श्रेणी में आरूढ़ होकर केवल ज्ञान को अन्तर मुहूर्त में प्राप्त कर सर्वज्ञ सर्व दर्शी हुये, और देवों के आसन कं पायमान हुये और वे अवधि ज्ञान से देख कर अंग ऋषि की महिमा करने को आये देव, दुं दुं भी आकाश में बजने लगी, और नगर में आवाज होने लगी कि हे मनुष्यों सुनो ! रुद्रक छाः त्र ने छोटे बच्चे की माता को मार कर उस की हत्या का पाप अंगर्षि के ऊपर. डाला है, इस लिये उस पापी से आप का बोलने का भी धर्म नहीं है । ऐसी आकाश बानी और मधुर ध्वनी सुन हजारों लोग गांव के बाहिर यह आश्चर्य देखने को आये, और वह उपाध्याय भी आया और उसने अपने छात्र को झूठा कलंक दिया था जिसकी उसके पास क्षमा मांगी और उस छात्र से जैन धर्म को प्राप्त किया, और लोगों से अत्यंत तिरस्कार पाकर गुद्रक भी अंग पी से क्षमा मांगने को आया, और आज तक किये हुये पापों की सच्चे भाव से तमामांगकर पश्चात्ताप करने लगा, जिससे उसके सब पाप दूरहोने पर उसको भी केवल ज्ञान प्राप्त हुआ इस दृष्टांत से ऋषि अंगर्षी की तरह मनुष्य प्रकृति सौम्य होना चाहिये । ॥लोक प्रियता ॥ श्रावक को प्रथम तो लोक प्रियता प्राप्त करनी, और अपने कर्त्तव्य से दूसरों को लाभ पहुंचाना चाहिये। रास्ते में चलते कोई भी बड़ा वा छोटा मनुष्य मिलेतो उससे मधुर बचन से बोलना. अपने घर आवे तो आसन दे. ना, उठके सामने जाना, खाने पीने की खातिर करना चाहिये ऐसे कृत्यों से सब प्रसन्न होते हैं; और जो दुराचारी, कुव्यसनी, बदमाश होता है, उससे सब लोग नाराज होते हैं, किसीकी बिना अपराध झूठी निन्दा करना झूठा कलंक देना ऐसा श्रावक का कत्तेव्य नहीं है,और पर लोक विरुद्ध कार्य यह है कि जिसमें त्रसकाय को अधिक पीडा हो, राज्य लोभ से रंक ( गरीब ) लोगों को लूटना या सताना, पक्षियों को वा निर्दोषी जीवों को अपने शौख की खातिर दुःख देना, मारना, परस्पर लड़ाना,ऐसे अनर्थ एंड के सब कृत्य परलोक

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