Book Title: Dharmratna Prakaran
Author(s): Manikyamuni
Publisher: Dharsi Gulabchand Sanghani

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Page 20
________________ (१८) भीतर भी को निष्कपटी होवे वो तो धर्म रत्न का भागी हो सक्ता है कहा है कि दूसरों को मीठी बातों से रंजन कर, ऐसा सीधे चलने वाले बिरले ही मिलेंगे। ... एकं प्रधान और राजा सच्चे गुरु की शोध में फिरते २ एक उद्यान में पहुंचे वहां एक मौन धारी दिगम्बर परि ब्राजक बैठा था जिसके समीप में रक्षा के ढेर के सिवाय कुछ भी नहीं था और उसकी आसन की स्थिरता देख दोनों प्रसन्न होकर नमस्कार कर धर्म सुनने की इच्छा से बैठ गये, परन्तु त्यागी ने कुछ भी उत्तर नहीं दिया न बात की, तब राजा को अधिक भाव हुवा और प्रधान से पूछा कि इन्हें क्या देवें वा ऐसे महात्माओं की किस प्रकार सेवा करें ! प्रधान को उस परिव्राजक की स्थिति कुछ मालूम हो जाने से उत्तर दिया कि हे भूपते ! आपका कहना सच है कि ऐसे उत्तम पुरुषों की योग्य पर्युपासना करनी ही चाहिये ! परन्तु वे मुंह से नहीं बोलते, न कुछ वस्त्रादि रखते, न उन्हें उनके शरीर की भी परवाह है, यदि उनके ध्यान बाद वे कुछ लेवें ऐसी.. राह देख कर बैठे तो भी निश्चय नहीं, कब उनकी समाधि पूरी होगी ! अथवा वस्त्र होता तो रत्न बांध कर जाते, ! और योंही छोड़ जावें तो कोई बदमास उठाकर चला जावे ! इसलिये मैं भी विचार में पड़ा हूं ! राजाने कहा तब चलो ! समय व्यर्थ क्यों बरबाद करना ! इतना कह कर चलने लगे कि परिब्राजक ने मुंह फाड़ा ! और इशारा से सूचना दी कि आप इसमें डालो ! मंत्री ने थोड़ी रक्षा लेकर उसके मुंह में डाल कर बोला कि हे ठग शिरोमणी ! आपकी पर्युपासन रक्षा से अच्छी होगी, त्यागी को रत्नों के फन्दे में पड़ने की आवश्यकता नहीं है । मंत्री ने राजा को समझाया कि यह कोई पूरा ठग है जो त्यागी का वेष करके भोले लोगों को ठगता है, नहीं तो रत्नों की क्या आवश्यक्ता थी यदि जो रत्नों की जो आवश्यकता थी तो फिर वस्त्रादि त्यागने की क्या जरूरत थी ! इस दृष्टांत से आजसे बदमास बेष धारियों से न ठगाना, न बदमास वृत्ति से मनुप्य जन्म हार जाना किन्तु अशठता धारण कर धर्म रत्न को प्राप्त करना, लौकिक कथा भी है किः

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