Book Title: Dharm vidhi Prakaranam
Author(s): Udaysinhsuri, Shreeprabhsuri
Publisher: Hansvijayji Library
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४ भवति, यस्मात्तेष्वाश्रवेषु रुद्धेषु कम्मणां-ज्ञानावरणीयादीनामभिनवबन्धो न भवतीति गाथार्थः ॥ ४९ ॥ अत्रार्थ दृष्टान्तमाह
जह सरवरं समंता, निरुझ्दारं न संगिल सलिलं ।
तह जीवो वि दु कम्मं, निरुक्ष्पावासवप्पसरो ॥ ५० ॥ व्याख्या-सुगमम् ॥ ततः किं स्यादिति सदृष्टान्तं धर्मफलमुपदर्शयन्नाह ॥ ५० ॥
तत्तो विसुक्ष्परिणाम-मेरुमंथाणमहियनवजलही।
उवलइनाणरयणो, जंबु व सया सुहीहवः ॥५१॥ व्याख्या-ततो निरुद्भपापाश्रवप्रसराद्विशुद्धपरिणाममेरुमन्थानमथितभवजलधिः, तत्र विशुद्भपरिणामः-शुक्लध्यानलक्षण: स एव मेरुमन्थान(स्तेन)मथितो-विलोडितो भव एवापारत्वाज्जलधिः-समुद्रो येन स तथा, उपलब्धज्ञानरत्नः सदा सुखीभवति जम्बूवत्-जम्बूस्वामीव ॥५१॥ तच्चरित्रं चात्र| जंबुद्दीवे दीवे, दाहिणभरहद्धमज्झरखंडम्मि । मगहानाम जणवओ, गंधवसरु ब्व बहुगामो ॥१॥ तत्थ नवजुम्वणुद्धयरमणीतणुमिव सुवन्नरूवई । विसयसिरीकेलिगिह, रायगिहं अत्थि वरनयरं ॥२॥तत्थासि सेणियनिवो, फुरतनियतेयहरियरिउतिमिरो । गुरुगुत्तलद्ध उदओ, कमलाणंदो दिणयरु व्व ॥३॥ मिच्छत्तमंधयारं, हियए न हु जस्स पसरइ कयावि । अहियं

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