Book Title: Dharm Sarvasvadhikar tatha Kasturi Prakaran Author(s): Shravak Bhimsinh Manek Publisher: Shravak Bhimsinh ManekPage 27
________________ २३ शृंगारमदनोत्पादं, यस्मात्स्नानं प्रकीर्तितम् ॥ तस्मात्स्नानं परित्यक्तं, नैष्टिकैब्रह्मचारितिः ॥ ए॥ अर्थ-स्नानने श्रृंगार अने कामदेवने उत्पन्न कर. नारूं कह्यु , अने तेथी उत्तम ब्रह्मचारीश्रोए तेने तजेलुं बे. ॥ नए ॥ ब्रह्मचर्येण शुधस्य, सर्वनूतहितस्य च ॥ पदेपदे यज्ञफलं, प्रस्थितस्य युधिष्ठिर ॥ ए० ॥ अर्थ-हे युधिष्टर ! ब्रह्मचर्ये करीने शुझ, अने सर्व प्राणीश्रोनुं हित करनार, एवा ब्राह्मणने पगले पगले यज्ञनुं फल मले बे. ॥ ए० ॥ एकरात्र्युषितस्यापि, या गति ब्रह्मचारिणः॥ न स्म ऋतुसहस्रण, वक्तुं शक्त्या युधिष्ठिर ॥ १ ॥ अर्थ-हे युधिष्टर !! एक रात्रि पण ब्रह्मचर्य पालनारनी जे गति , ते हजार यज्ञनी साथे पण सरखावी शकाय तेम नथी. ॥ ए१ ॥ एकतश्चतुरो वेदा, ब्रह्मचर्य तु एकतः ॥ एकतः सर्वपापानि, मद्यमांसं च एकतः॥ ए॥ अर्थ-एक बाजुथी चार वेदो, अने एक बाजुथी ब्रह्मचर्य, एक बाजुथी सर्व पापो, अने एक बाजुथी मदिरा मांस सरखां . ॥ ए२ ॥ नैष्ठिकं ब्रह्मचर्य तु, ये चरंति सुनिश्चिताः॥ देवानामपि ते पूज्या, पवित्रं मंगलं तथा ॥ ए३ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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