Book Title: Dharm Sarvasvadhikar tatha Kasturi Prakaran
Author(s): Shravak Bhimsinh Manek
Publisher: Shravak Bhimsinh Manek

Previous | Next

Page 122
________________ ११ समान एवं सत्यवचन प्राणिश्रोना मुखमां भूषणरूप थाय बे ॥ १३६ ॥ " हानिमेति ददतां धनमुच्चैः । शीलतो भवति जोगवियोगः ॥ जायते च तपसा तनुका । हीयते किमपि नानघवाक्यैः ॥ १३७ ॥ अर्थ- घणुं दान देवाथी धननी हानि थाय बे, शील ( पालवाथी) जोगोनो वियोग थाय बे, तप ( तपवाथी) शरीर डुबलुं थाय बे, पण सत्य वचन बोलवाथी तो कंइ पण नुकशान यतुं नथी ॥ १३७ ॥ • अग्निः शाम्यति मुंचति प्रनुरपामौद्धत्यमोघो रुजां । यात्यस्तं विकटा घटा करटिनामाटीकते नान्तिकम् ॥ शैथिल्यं समुपैति सिंधुररिपुः सर्पोऽपि नोत्सर्पति । प्राग् दूरापयाति दस्युरणजीः सत्यं वचोजहपताम् ॥ १३८॥ अर्थ- सत्य वचन बोलनारायप्रते अग्नि शांत याय बे, समुद्र कोजने तजे बे, रोगोनो समूह नाश पामे बे, हाथी थोनी जयंकर श्रेणि तेनी समीप यावती नथी, सिंह शिथिल थर जाय बे, सर्प पण तेनी नजदीक श्रवतो नयी, तेम तेनाथी चोर ने रणसंग्रामनी बीक तो तुरत दूर चाली जाय बे ॥ १३८ ॥ तस्माद्वैरमुपैति दूरमुरगश्रेणिः सुपर्णादिव || शो नश्यति जास्करादिव तमस्तस्मादकस्माद्भवः । For Personal and Private Use Only Jain Educationa International www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144