Book Title: Dharm Sarvasvadhikar tatha Kasturi Prakaran
Author(s): Shravak Bhimsinh Manek
Publisher: Shravak Bhimsinh Manek

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Page 129
________________ १२५ नादित्यादपरः प्रतापनपटुर्नाब्धेः परस्तोयवान् । नैवान्यः पवमानतश्च चटुलो दुष्टो न मृत्योः परः ॥ नैवाग्नेरितरः कुधाजितधी चौरः स्मरान्नेतरो । दोषान्यान्न परिग्रहात्परमधस्थानं तथा सर्वथा ॥ १५२ ॥ अर्थ- जे सूर्यथी बीजो कोइ प्रतापी नथी, समुइथी बीजो कोई पाणीवालो नथी, पवनथी बीजो कोइ चंचल नथी, मृत्युथी बीजो कोइ दुष्ट नथी, अग्निथी बीजो को मुखावरो नथी, तथा कामदेवथी जेम बीजो कोइ चोर नथी, तेम डूषणोथी नरेला एवा परिग्रहथी बीजं कोइ पण पापोनुं स्थानक नथी. १५२ धर्मध्यानमधीरयंस्तरुमिव प्रोत्सर्पि कपानिलः । प्रीतिं पंजिनीमिव पिपतिर्निर्मूलमुन्मूलयन् ॥ प्रावीण्यं च पयोजिनी पतिमिव स्वर्णाणुराबादयन् । लाघामेति परिग्रहः किमु कदा कादंबरीपानवत् ॥ १५३ ॥ अर्थ - जलसायमान थतो एवो कल्पांतकालनो पवन जेम वृने, तेम धर्मध्यानने चलित करतो, मदोन्मत्त हाथी जेम कमलिनीने, तेम प्रीतिने मूलमांथी उखे मी कहाडतो, तथा राहु जेम सूर्यने, तेम पंगिताइने आछादित करतो, एवो परिग्रह, मदिरापाननी पेठे शुं प्रशंसाने पामे बे ? ( अर्थात् नथी पामतो. ) ॥ १५३ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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