Book Title: Dharm Sarvasvadhikar tatha Kasturi Prakaran
Author(s): Shravak Bhimsinh Manek
Publisher: Shravak Bhimsinh Manek
Catalog link: https://jainqq.org/explore/003690/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ comcota श्री जिनायनमः। AVs topdean धर्मसर्वस्वाधिकार 2018 तथा Andson कस्तुरीप्रकरण। R ट U ARupikacancoom PAREpramod J S (कर्ता श्री जयशेखरमूरि तथा हेमविजयगणि ) संस्कृतपरथी गुजरातीमा वीजी आवृत्तिसुधारीने छपावी प्रसिद्ध करनार श्रावक नीमसिंह माणेक निर्णयसागर प्रेस. संवत १९६५ सने १९०८ Decorpooto spoons passicroso Gopati N. % -5 . . . Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना ॥ । धर्मसर्वस्वाधिकारः । सर्वे जैन जाने मालुम थाय जे आपणो आ जैन धर्म सर्व धर्मो करता वधारे सूक्ष्म रीते दयामय बे; अने तेथी तेमां दया संबंधि विशेष उपदेश आपेलो बे; जैनी योनी तेवी सूक्ष्म दया जोइने आधुनिक समयमा अन्य दर्शनी ते संबंधि पोताने मनगमती चर्चाओ करे बे; पण या ग्रंथ वांचवाथी तेने पोताने पण जाशे के; आपणां पुराण, स्मृति, गीता आदिक शास्त्रमां पण दयासंबंधि केटलो बधो अमूल्य उपदेश आपेलो बे. वली केवल दयासंबंधिज नहीं, पण मांसजनां दूपए रात्रि जोजननां दूषणो, कंदमूललक्षणना दूषणो. अगल पाणी वापरवाना दूषणो विगेरे अनेक प्रकारनो ते पुराणो आदिकमां उपदेश करेलोबे; ते उपदेश अंचलगच्छाधिपति आचार्य महाराज श्री जयशेखरसूरीश्वरे पुराणो आदिकमांथी धरीने अन्य दर्शनी पर खरेखर महोटो उपकार कर्यो छे. वली ते आचार्य महाराज महान विधान ने कविचक्रवर्ती हता. हाल पण तेमना रचेला महान ग्रंथो मांहेला, जैनकुमारसंभव महाकाव्य, उपदेशचिंतामणि, प्रबोधचिंतामणि तथा धम्मिल्लचरित्र दिक घणा ग्रंथो दृष्टिगोचर थाय बे. अने ते जोवाथी तेमनी महान विद्वत्ता खरेखर जाइ यावे . मसिंह माणेक. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कस्तूरी प्रकरण. گھر कस्तूरी प्रकरण पण श्री हेमविजयगणिजीए रचेतुं बे, तथा तेमां जन्य लोको माटे घणोज सारो उपदेश आपेलो बे; तेम रमणिक ने अलंकारोथी नरेला, तथा जुदा जुदा बंदमां होवाथी मनने अत्यंत श्रापनारा बे. Jain Educationa International य बन्ने ग्रंथो लोकोने माटे उपयोगी जाणीने मोए ते मूळसहित बपावी प्रसिद्ध कर्या वे. या ग्रंथो मूळ संस्कृत जापाम बे, नेते जापानुं सर्वने जाणपणुं नही होवाथी मोए तेनुं शुद्ध गुजराती भाषांतर करावी उपावी प्रसिद्ध कर्यु बे. जीमसिंह माणेक For Personal and Private Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आंक. विषय. १ अहिंसानो महिमा २ मांसभक्षणनां दूषणो ३ ब्राह्मणोनुं लक्षण ४ मैथुननां दूषणो ५ ब्रह्मचर्यना गुणो ६ क्रोधनं स्वरूप १७ दान प्रक्रम १८ शील प्रक्रम १९ तप प्रक्रम.... २० भाव प्रक्रम २१ क्रोध प्रक्रम २२ मान प्रक्रम अनुक्रमणिका. 1910 धर्म सर्वखाधिकारः २३ माया प्रक्रम २४ लोभ प्रक्रम २५ पितृ प्रक्रम Jain Educationa International .... .... ११ तपनो महिमा १२ दाननुं माहात्म्य १३ अतिथिनुं स्वरूप १४ मधभक्षणनां दूषणो १५ कंदमूलभक्षणना दूषणो कस्तूरी प्रकरण. १६ द्वारकाव्य .... .... .... ७ क्षमानुं स्वरूप ८ रात्रि भोजननां दूषणो ९ तीर्थोनो अधिकार.... अणगल पाणी वापरवानां दूषणो ३२ ३० ३६ .... .... **** .... .... 9006 .... 9004 .... .... 83.0 १ २६ गुरु प्रक्रम *** १० १३ १७ २९ न्याय प्रक्रम २२ | ३० पैशून्य प्रक्रम २४ ३१ सत्संग प्रक्रम २५ | ३२ मनः शुद्धि प्रक्रम २८ ३३ द्युत प्रक्रम ३४ मांस प्रक्रम ४७ ४८ ४९ २७ देव प्रक्रम.... २८ विनय प्रक्रम ६३ ६६ ६८ ३५ मद्य प्रक्रम ३६ वेश्या प्रक्रम ३७ पापद्धिं प्रक्रम ३८ चौरकी प्रक्रम ३९ परस्त्री प्रक्रम ४० इंद्रिय प्रक्रम ५६ ४१ दया प्रक्रम ५६ ४२ सत्य प्रक्रम ५९ | ४३ अदत्त प्रक्रम ६१ ४४ ब्रह्म प्रक्रम ४५ परिग्रह प्रक्रम ४६ गुण प्रक्रम ४७ वैराग्य प्रक्रम ४८ विवेक प्रक्रम .... 9... .... 0004 .... .... .... .... .... .... 0.00 *** .... .... 0300 .... .... .... .... पृष्ठ ७८ .... ८० ८३ ८५ ८८ ९० ९२ ९५ ९७ ९९. १०२ १०४ १०७ १०९ ११२ ११४ ११७ ११९ १२१ १२३ १२६ १२८ ७० १३० ७३ | ४९ ग्रंथकारनी प्रशस्ति १३२ ७५ | ५० श्रीआदिजिन विनति १३८ For Personal and Private Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जिनाय नमः श्रीजयशेखरसूरिणोधृतः धर्मसर्वस्वाधिकारः । श्रूयतां धर्मसर्वस्वं श्रुत्वा चैवावधार्यताम् ॥ आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत् ॥ १ ॥ अर्थ - धर्मनो रहस्य सांजलो, तथा ते सांजलीने धारण करी राखो, पोताने जे बाबतो प्रतिकूल होय, ते परप्रते याचरवी नही. ॥ १ ॥ यथा चतुर्भिः कनकं परीक्ष्यते, निघर्षणवेदनतापताडनैः ॥ तथैव धर्मो विषा परीक्ष्यते श्रुतेन शीलेन तपोदयागुणैः २ " अर्थ- जेभ, कष, वेद, ताप घने तामन, ए चार प्रकारथी सोनानी परीक्षा कराय बे, तेमज पंमित माणस ज्ञान, शील, तप ने दयारूप गुणोए करीने धर्मनी परीक्षा करे बे ॥ २ ॥ · कथमुत्पद्यते धर्मः, कथं धर्मो विवर्धते ॥ कथं च स्थाप्यते धर्मः, कथं धर्मो विनश्यति ॥ ३ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ अर्थ-धर्म केम उत्पन्न याय बे ? तथा ते केम वृद्धि पामे बे ? तथा तेने शीरीते स्थिर करी शकाय बे ? तथा शीरीते ते नाश थाय बे ? ( तेनो विचार करवो.) सत्येनोत्पद्यते धर्मो, दया दानेन वर्धते ॥ कमया च स्थाप्यते धर्मः, क्रोधलोजाविनश्यति ॥ ४ ॥ अर्थ- सत्यश्री धर्मनी उत्पत्ति थाय छे; दया अने दानथ तेनी वृद्धि थाय बेः क्षमाथी ते स्थिर थाय बे; तथा क्रोध अने लोनथी तेनो नाश थाय बे. ॥ ४ ॥ सर्वे वेदान तत्कुर्युः सर्वे यज्ञाश्च भारत ॥ सर्वे तीर्थाभिषेकाश्च यत्कुर्यात्प्राणिनां दया ॥ ५ ॥ अर्थ- हे जारत, प्राणीयोपरनी दया जे कई (अमूल्य लाज) करे बे; ते (लाज) सघला वेदो, सघला यज्ञो, तथा सर्वे तीर्थोमां करेलां स्नानो पण करीशकतां नथी. 3 अहिंसा सत्यमस्तेयं, त्यागो मैथुनवर्जनम् ॥ एतेषु पंचसूक्तेषु, सर्वे धर्माः प्रतिष्ठिताः ॥ ६ ॥ अर्थ-हिंसा (दया), सत्य चोरी नही करवी, ते ( परिग्रहनो ) त्याग, अने मैथुननुं वर्जन ए पांच बाबत कदेवाश्री सर्वे धर्मोनुं प्रतिपादन थाय बे. ॥ ६ ॥ हिंसालो धर्मो धर्मः प्राणिनां वधः ॥ तस्माद्धर्मार्थिना वत्स, कर्तव्या प्राणिनां दया ॥ ७ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ-दया लक्षण जेनुं, एवो धर्म ; तथा प्राणीयोनी जे हिंसा ते अधर्म के; माटे हे वत्स! धर्मनां अर्थि माणसे प्राणीयोनी दया करवी. ॥७॥ ध्रुवं प्राणिवधो यज्ञे, नास्ति यज्ञस्त्वहिंसकः॥ सर्वसत्वेषु हिंसैव, यदा यज्ञो युधिष्ठिरः॥७॥ अर्थ-यज्ञमां खरेखर प्राणीनो वध बे; माटे हे युधिष्ठर! या हिंसा विनानो नथी, माटे जो यज्ञ करीए तो सर्व प्राणीयोमा हिंसा थाय बे. ॥७॥ इंजियाणि पशून् कृत्वा, वेदी कृत्वा तपोमयीं ॥ अहिंसामाहुतिं कृत्वा, आत्मयज्ञं यजाम्यहम् ॥ ए॥ अर्थ-विष्णु जगवान कहे डे के,हेयुधिष्ठिर? इंजियोरूपी पशुने करीने,तथा तपरूप वेदी करीने,अने दयारूपी श्रादुती करीने, हुंधात्मरूपी यज्ञ करूं दूं. ॥ए॥ यूपं छित्वा पशुन् हत्वा, कृत्वा रुधिरकर्दमम् ॥ यदैवं गम्यते स्वर्ग, नरके केन गम्यते ॥ १० ॥ अर्थ-पशुने बांधवानो यज्ञस्तंन बेदीने,तथा पशुने हणीने, अने लोहीनो कर्दम करीने, ज्यारे स्वर्गे जवातुं होय, तो हे युधिष्ठिर! पठी नरके कोण जशे!!!॥१०॥ महानारतनां शांतिपर्वमा प्रथम पदमां कडं डे के, मातृवत्परदाराणि परजच्याणि लोष्ठवत् ॥ आत्मवत्सर्वजूतेषु, यः पश्यति स पश्यति ॥११॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ अर्थ- जे माणस परस्त्री ने मातानीपेठे जुए बे, तथा परद्रव्यने ढेकांनीपेठे जुए बे, तथा सर्व प्राणीश्रीने विषे जे पोताना श्रात्मानीपेठे जुए बे; तेज तत्वथी जोनारो बे ॥ ११ ॥ - हिंसा सर्वजीवानां, सर्वज्ञैः परिभाषिता ॥ इदं हि मूलं धर्मस्य, शेषस्तस्यास्ति विस्तरः ॥ १२ ॥ - सर्व जीवोप्रते दया राखवी, एम सर्वज्ञझोए कहेतुं बे, केमके, ते हिंसाज धर्मनुं मूल बे; ने बाकीनां सत्यादिक तो तेनो विस्तार बे ॥ १२ ॥ हिंसा प्रथमं प्रोक्ता, यस्मात्सर्वजगत्प्रिया ॥ तस्मात्सर्वप्रयत्नेन, कर्तव्या सा विचक्षणैः ॥ १३ ॥ - हिंसा (दया) सर्वथी पेहेली कहेली बे; केमके, ते समस्त जगतने प्रिय बे; माटे विचक्षण पुरुषोए सर्व प्रयने करीने ते दयाज करवी ॥ १३ ॥ यथा मम प्रियाः प्राणा, स्तथा तस्यापि देहिनः ॥ इति मत्वा प्रयत्नेन, त्याज्यः प्राणिवधो बुधैः ॥ १४ ॥ अर्थ-जेम मारा प्राण मने वहाला बे, तेम ते प्रापीने पण तेना प्राण वहाला बे; एम मानीने प्रयत्नपूर्वक पंकितोए जीवहिंसानो त्याग करवो ॥ १४ ॥ मरिष्यामीति यद्दुःखं, पुरुषस्येह जायते ॥ शक्य स्तेनानुमानेन, परोऽपि परिरक्षितुम ॥ १५ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ एवा अर्थ- दुनीयामां " हुं मरी जइश विचारथी माणसने जे दुःख थाय बे, ते अनुमानथी है . ने जयश्री परजीवनुं पण रक्षण करी शकाय बे ॥ १५ ॥ उद्यतं शस्त्रमालोक्य, विषादजयविह्वलाः ॥ जीवाः कंपति संत्रस्ता, नास्ति मृत्युसमं जयम् ॥ १६ ॥ अर्थ- जगामेला शस्त्रने जोइने, खेद विह्वल थपला जीवो, त्रास पामता थका केमके, मृत्यु समान बीजो जय नथी. ॥ कंटकेनापि विवस्य, महती वेदना जवेत् ॥ चक्र कुंता सिशक्त्याद्यैरिंग्द्यमानस्य किं पुनः ॥ १७ ॥ अर्थ- कांटाथी विधारला प्राणीने पण ज्यारे मोटी वेदना थाय बे, त्यारे चक्र, जालु, तलवार, तथा बरी यादिकथी बेदाता प्राणीनी वेदनानी तो वातज शी करवी ? ॥ १७ ॥ यद्दद्यात्कांचनं मेरुं कृत्स्नां चापि वसुंधराम् ॥ सागरं रत्नपूर्णवा, नच तुल्यमहिंसया ॥ १९ ॥ " For Personal and Private Use Only 22 Jain Educationa International कंपे बे, जीवित दीयते मार्यमाणस्य, कोटिं जीवितमेववा ॥ धनकोटिं न ग्रहणीयात्सर्वो जीवितमिति ॥ १८ ॥ अर्थ-मरता एवा प्राणीने क्रोम धन अथवा जो पीएं, तो ते क्रोम धनने ग्रहण नहीं करे; पण जीवितने ग्रहण करशे; केमके सर्व प्राणी जीतिने इ . ॥ १८ ॥ १६ ॥ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ अर्थ- सोनानो मेरू पर्वत यापे ाने समस्त पृथ्वीने यापे, अथवा रत्नथी नरेलो समुद्र थपे, पण ते अहिंसानी तुल्य श्रावतुं नथी. ॥ १०५ ॥ यो यत्र जायते जंतुः, स तत्र रमते चिरम् ॥ ततः सर्वेषु भूतेषु, दयां कुर्वति साधवः ॥ २० ॥ अर्थ- जे प्राणी ज्यां उत्पन्न थाय बे, ते त्यां लांबा कालसुधि श्रानंद मेलवे बे, तेथी उत्तम मासो सर्व प्राणी ते दया करे बे ॥ २० ॥ मध्यमध्ये कीटस्य, सुरेंद्रस्य सुरालये ॥ समाना जीविताकांदा, तुझ्यं मृत्युजयं योः ॥ २१ ॥ - विष्टामा रहेला की माने, तथा देवलोकमां रहेला इंद्रने जीवितनी इछा सरखीज बे; अनेवली तेश्रो बन्नेने मृत्युनो जय पण तुल्यज बे ॥ २१ ॥ हिंसा सर्वजीवाना, माजन्मापिहि रोच्यते ॥ नित्यमात्मनो विषये, तस्मात्ध्येया परेष्वपि ॥ २२ ॥ अर्थ- सर्व जीवोने अहिंसा जन्मथी मांगीनेज रूबे, माटे पोताने विषे जेम तेम परने विषे पण प्राणीए वर्तकुं ॥ २२ ॥ जीवानां रक्षणं श्रेष्ठं, जीवा जीवितकां दिएः ॥ तस्मात्समस्तदानाना, मनयदानं प्रशस्यते ॥ २३ ॥ अर्थ-जीवोनुं रक्षण करयुं, ते उत्तम कार्यठे; केमके, जीव जीवितनी ईछा राखे बे, माटे सघला दानोमां अजयदान प्रशंसा करवा लायक बे. ॥ २३ ॥ For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा प्रथमं पुष्पं, पुष्पमिंत्रियनिग्रहः ॥ सर्वनूतदयापुष्पं, हमापुष्पं विशेषतः॥ २४ ॥ ध्यानपुष्पं तपःपुष्पं, झानपुष्पं च सप्तमम् ॥ सत्यं चैवाष्टमं पुष्पं, तेन तुष्यंति देवताः ॥ २५॥ अर्थ-पेहेढुं पुष्प अहिंसा, बीजं पुष्प इंडीश्रोनो निग्रह, त्रीजं पुष्प सर्व प्राणीयोमा दया, चोथ पुष्प विशेषे करीने कमा, पांचमुं पुष्प ध्यान, ब्लु पुष्प तप, सातमुं पुष्प ज्ञान,अनेआठमुंपुष्प सत्य बे,एवीरीतनां पुष्पोथी (पूजन करवाश्री) देवताओ प्रसन्न थाय . पृथिव्यामप्यहं पार्थ, वायावग्नौ जलेऽप्यहम् ॥ वनस्पतिगतश्चाहं, सर्वनूतगतोऽस्म्यहम् ॥ २६॥ अर्थ-वली हे युधिष्टर!! पृथ्वीमां,वायुमां,अग्निमां, जलमां अने वनस्पतिमां पण हुं प्राप्त थएलो बुं,अने एवी रीते पांचे नूतोमा हुँ प्राप्त थएलो ढुं. ॥२६॥ यो मां सर्वगतं ज्ञात्वा, नच हिंसेत्कदाचन ॥ तस्याहं न प्रणिस्यामि, स च मे न प्रणिस्यति ॥ १७ ॥ अर्थ-जे माणस मने सर्व व्यापक जाणीने, कोश वखते हिंसा करतो नथी, ते माणसप्रतेथी हुंधर जश नहीं, तथा ते माराथी पूर जशे नही. ॥७॥ यो ददाति सहस्राणि, गवामश्वशतानि वा ॥ अनयं सर्वसत्वेन्य, स्तहानमतिरिच्यते ॥ २७ ॥ अर्थ-जे माणस हजारो गायो तथा सेंकमो घोडा. श्रो श्रापे , (ते कई हिसाबमां नथी) पण जे माणस Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्व प्राणीश्रो प्रते अजयदान आपे , ते दान सथी श्रेष्ठ गणाय . ॥॥ कस्त्विनानां सहस्रंतु, यो विजेन्यः प्रयचति ॥ एकस्य जीवितं दद्यात्, कलां नाप्यतिषोमशीम् ॥ ए॥ अर्थ-जे माणस ब्राह्मणो प्रते हजारो हाथीपोर्नु दान आपे बे, ते पण शुं हिसाबमां ? केमके, जे माणस एकज प्राणीप्रते जीवितदान आपे , तेनी साथे ते सोलमे हिसे पण नथी. ॥शए॥ ततो नूयस्तरो धर्मः, कश्चिदन्यो न नूतले ॥ प्राणिनां नयनीताना, मजयं यत्प्रदीयते ॥ ३० ॥ अर्थ-माटे हे युधिष्टर !! जयजीत थएला प्राणी ओने जे श्रनयदान श्राप, तेथी वधारे बीजो को पण धर्म या पृथ्वीपर नथी. ॥३०॥ वरमेकस्य सत्वस्य, दद्यादजयदक्षिणाम् ॥ नतु विप्रसहस्रेन्यो, गोसहस्रमलंकृतम् ॥ ३१॥ अर्थ-वली हे युधिष्टर!! एक प्राणी प्रते अजयदाननी दक्षिणा देवी ते श्रेष्ठ , पण हजारोब्राह्मणोप्रते,आजूषणयुक्त हजारो गायो देवी तेश्रेष्ट नथी.३१ अजयं सर्वसत्वेन्यो, यो ददाति दयापरः ॥ तस्य देहवियुक्तस्य, लयं नास्ति कुतस्तनः ॥३२॥ अर्थ-जे माणस सर्व प्राणीयो प्रते, दयामां तत्पर थयो थको अनयदान आपेले, ते माणसने मृत्यु बाद पण कोइ जगोए जय प्राप्त थतो नथी. ॥ ३ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- हेमधेनुवरादीनां दातारः सुलना जुवि ॥ पुनः पुरुषो लोके, यः प्राणिष्वनयप्रदः ॥ ३३ ॥ अर्थ- सुवर्ण, गाय, ने वरदाननां देनाराश्रो तो या पृथ्वीमां सुलन होय बे, पण जे माणस प्राणीश्र प्रते अजयदान थापेबे, तेवो माणस या डुनीश्रमां दुर्लन बे. ॥ ३३ ॥ " महतामपि दानानां कालेन दीयते फलम् ॥ जीताजयप्रदानस्य, दय एव न विद्यते ॥ ३४ ॥ अर्थ- मोटां दानोनुं पण फल काले करीने दय पामे बे, पण बीता एवा प्राणीने अजयदान देवानुं जे फल, तेनो दयज थतो नथी. ॥ ३४ ॥ यथा मेsप्रियो मृत्युः सर्वेषां प्राणिनां तथा ॥ तस्मान्मृत्युजयत्रस्ता, स्त्रातव्याः प्राणिनो बुधैः ॥ ३५ ॥ - वली हे युधिष्टर ! एम विचारखं के जेम मने पोताने मृत्यु प्रिय लागे बे, तेम सर्व प्राणीश्रोने पण ते प्रिय लागे बे; माटे माह्या माणसोए मृत्युनां जयश्री जयजीत थला प्राणीयोनुं रक्षण करवुं ॥ ३५ ॥ एकतः कृतवः सर्वे; समग्रवरदक्षिणाः ॥ एकतो जयजीतस्य, प्राणिनः प्राणरक्षणम् ॥ ३६ ॥ - वली हे युधिष्टर ! एक बाजु सघला वर-दाननी दक्षिणावाला सर्वे यज्ञो ने बीजी तरफ जयजीत थपला प्राणीनां प्राणनुं रक्षण करवुं (ते वधारे श्रेष्ट . ) ॥ ३६ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० आप सर्वसत्वेषु यद्दान, मेकसत्वे च या दया ॥ सर्वदानप्रदानाधि, दयैवैका प्रशस्यते ॥ ३७ ॥ अर्थ- सर्व प्राणी प्रते जे सुवर्ण व्यादिकनुं दान ने एक प्राणीप्रते दया राखवी! तेमां पण ते सर्व प्राणी प्रते सुवर्ण या दिकनां दानथी पण एक प्रा णी प्रतेनी दया वधारे प्रशंसवा लायक बे ॥ ३७ ॥ एकतः कांचनं मेरुं, बहुरत्नां वसुंधराम् ॥ एकस्य जीवितं दद्या, न च तुल्यं युधिष्ठिर ॥ ३८ ॥ अर्थ- वली हे युधिष्टर !! एक बाजुथी सोनानो मेरु पर्वत तथा बहुरत्नवाली पृथ्वी थापे, अने एक प्राणीने जीवितदान श्रापे पण ते बन्ने सरखा नथी. ३० यूकामत्कुणदंशादीन्, ये जंतुंस्तुतस्तनुं ॥ पुत्रवत्परिरक्षति, ते नराः स्वर्गगामिनः ॥ ३५ ॥ अर्थ- वली हे युधिष्ठर !! जे माणसो शरीरने पीमा करता एवा पण जु, मांकड तथा मांस - दिकनुं पुत्रनी पेठे रक्षण करे बे, ते माणसो स्वर्गमां जनारायो बे ॥ ३०५ ॥ @ न गंगा नच केदारं, न प्रयागं न पुष्करं ॥ न ज्ञानं नच होमश्च न तपो न जपक्रिया ॥ ४० ॥ न ध्यानं नैव च स्नानं न दानं नापि सत्क्रिया ॥ " सर्वे ते निष्फला यांति, यस्तुमांसं प्रयच्छति ॥ ४१ ॥ अर्थ- वली हे युधिष्ठर !! जे माणस मांसनुं दान आपे बे, तेनी गंगा, केदारनाथ, प्रयाग पुष्कर विगेरेनी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यात्रा तथा तेनुं ज्ञान, होम, तपजपनी क्रिया, ध्यान, स्नान,दान विगेरे सघली क्रियाओ निष्फल जाय .४० शुक्रशोणितसंजूत, ममेध्यं मांसमुच्यते ॥ . यस्मादमेध्यसंनूतं, तस्माविष्टो विवर्जयेत् ॥ १॥ अर्थ-वली हे युधिष्टर! वीर्य तथा रुधिरथी उत्पन्न थएबुं एवं मांस विष्टासरखु अपवित्र कहेवाय बे, माटे एवी रीते अपवित्रतावावू मांस माह्या पुरुषे तज जोश्ए ॥४१॥ अमेध्यं यदलदयत्वा, न्मानुष्यैरपि वर्जितम् ॥ दिव्योपत्नोगान् नुंजतो, मांसं देवा न नुंजते ॥४॥ अर्थ-वली हे युधिष्टर ! अजय होवाथी अपवित्र एवी विष्टा मनुष्योए पण तजी बे, त्यारे दिव्य लोगोने जोगवता एवा देवो विष्टातुल्य मांसनुं नदण करताज नथी. ॥४॥ देवानामग्रतः कृत्वा, घोरं प्राणिवधं नराः॥ ये जयंति मांसं च, ते व्रजंत्यधमां गतिम् ॥ ४३ ॥ अर्थ-जे माणसो देवोनी आगल नयंकर एवो प्राणीश्रोनो वध करीने,मांस जदण करे ,ते माणसो नरक श्रादिक अधम गतिमां जाय बे. ॥४३॥ मासं पुत्रोपमं मत्वा, सर्वमांसानि वर्जयेत् ॥ दयादानविशुम्ध्यर्थ, शषिनिर्वर्जितं पुरा ॥ ४ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ " अर्थ- मांसने पुत्रसमान जाणीने, सर्व प्राणीश्रोनां मांसनो त्याग करवो, केमके, गाउ पण रुषिधोए दया ने दाननी शुद्धिमाटे ते तजेल बे ॥ ४४ ॥ नग्राद्यानि न देयानि षटू वस्तूनि च पंक्तैिः ॥ निर्मधु विषं शस्त्रं, मद्यं मांसं तथैवच ॥ ४५ ॥ अर्थ-नि, मध, विष, शस्त्र, मदिरा छाने मांस ए व वस्तु पंकितोए ग्रहण करवी नहीं, तेम कोइने देवी पण नही. ॥ ४५ ॥ यावंति पशुरोमाणि, पशुगात्रेषु जारत ॥ तावघर्षसहस्राणि पच्यते पशुघातकाः ॥ ४६ ॥ अर्थ- वली हे जारत ! पशुनां शरीरपर जेटलां रूवां होय बे, तेटला हजार वर्षो सुधी पशुहिंसा करनारा पकावाय बे ॥ ४६ ॥ ● आकाशगामिनो विप्राः पतिता मांसभक्षणात् ॥ " " विप्राणां पतनं दृष्ट्वा तस्मान्मांसं न जयेत् ॥ ४७ ॥ अर्थ- वली हे युधिष्टर ! आकाशमां गमन करनारा एवा पण ब्राह्मणो मांस जणथी पतित थए ला बे, माटे एवी रीते ब्राह्मणोनुं पतन जोइने, मांस जक्षण कर नही. ॥ ४७ ॥ घातक श्चानुमंता च, जनकः क्रयविक्रयी ॥ लिप्यंते प्राणिघातेन, पंचाप्येते युधिष्ठिर ॥ ४८ ॥ अर्थ- वली हे युधिष्टर ! प्राणीनी घात करनार, तथा प्राणीघातनी श्राज्ञा श्रापनार, मांसनुं नक्षण For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३ करनार, मांस वेचातुं लेनार तथा मांस वेचातुं देनार ए पांचे जीवहिंसाथी लिप्त थाय बे, अर्थात् ए पांचेने जीवहिंसा लागे बे ॥ ४८ ॥ किं जापहोम नियमै, स्तीर्थस्नानैश्च जारत ॥ यदि खादति मांसानि सर्वमेव निरर्थकम् ॥ ४९ ॥ अर्थ- हे जारत ! जो मांसनुं जक्षण कराय, तो पछी जाप, होम, नियम, तथा तीर्थस्नानथी शुं थवानुं बे !!! केमके मांस जक्षणथी ते सघलुं निरर्थक बे. प्रजासं पुष्करं गंगा, कुरुक्षेत्रं सरस्वती ॥ देविका चंद्रभागाच, सिंधुश्चैव महानदी ॥ ५० ॥ एतैस्ती महापुण्यं यः कुर्यादनिषेचनम् ॥ अक्षणं च मांसस्य, नच तुल्यं युधिष्ठिर ॥ ५१ ॥ अर्थ- वली हे युधिष्टर ! प्रजास, पुष्कर, गंगा, कुरुक्षेत्र, सरखती, देविका, चंद्रभागा, सिंधु, तथा महानदी, इत्यादि तीर्थोनी यात्रा करीने पण जे महापुण्य उपार्जन करे बे, ते अने मांसनुं नहीं जक्षण करवुं ते, बन्ने तुल्य नथी, अर्थात् ते बधां तीर्थोनी यात्रा करतां पण मांसनुं क्षण नही करवुं ते वधारे श्रेष्ठ बे. केके नु ब्राह्मणाः प्रोक्ताः, किंवा ब्राह्मणलक्षणम् ॥ एतदिचामि विज्ञातुं तन्मे कथय सुव्रत ॥ ५२ ॥ अर्थ - (हवे यहीं युधिष्टर, जगवान श्री विष्णु ने पूबे ah, हे जगवन्) ब्राह्मणो कया कया कहेला बे ? अने For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ ब्राह्मणनुं लक्षण शुं बे ? ते जाणवानी मारी इच्छा बे, माटे हे उत्तम आचरणवाला ! ते तमो मने कहो ? ५१ त्यारे हवे जगवान विष्णु तेने कहे बे. मानो दया दानं सत्यं शीलं धृतिघृणा ॥ विद्या विज्ञान मास्तिक्य, मेतद् ब्राह्मणलक्षणम् ॥ ५३ ॥ अर्थ- हे युधिष्टर ! क्षमा, निष्कपटपएं, दया, दान, सत्य, शील, धीरज, ला, विद्या, कला तथा श्रास्तिकपएं, एटलां ब्राह्मणनां लक्षणो बे. ॥ ५३ ॥ सत्यं ब्रह्म तपो ब्रह्म, ब्रह्म चेंद्रियनिग्रहः ॥ सर्वभूतदया ब्रह्म, एतद् ब्राह्मणलक्षणम् ॥ ५४ ॥ अर्थ- सत्य, तप, इंडोनो निग्रह, तथा सर्व प्राणी मां दया, ए चारे ब्रह्म कदेवाय बे, अने तेज ब्राह्मणनुं लक्षण बे. ॥ ५४ ॥ शूद्रोऽपि शीलसंपन्नो, गुणवान् ब्राह्मणो मतः ॥ ब्राह्मणोऽपिक्रियाहीनः शूद्रादप्यधमो जवेत् ॥ २५ ॥ - वली हे युधिष्टर ! जातिए करीने शूद्र होय पण ते जो शीलयुक्त तथा गुणवान होय, तो तेने ब्राह्मण मानेलो बे, अने जातिथी जे ब्राह्मण होय, पण जे शील व्यादिक क्रियाथी हीन होय, ते शुद्र थकी पण महा अधम थाय बे ॥ ५५ ॥ सर्वजातिषु चांगालाः, सर्वजातिषु ब्राह्मणाः ॥ ब्राह्मणेष्वपि चांगाला, चांगालेष्वपि ब्राह्मणाः ॥ ५६ ॥ · For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ अर्थ - माटे हे युधिष्टर ! सर्व जातियोमां चांगाल सर्व जातिओमां ब्राह्मणो पण होय बे, तेम ब्राह्मणोमां चांडाल होय वे, अने चांदाखोमां पण ब्राह्मणो होय ते. ॥ ५६ ॥ होय, " ब्राह्मणो ब्रह्मचर्येण यथा शिल्पेन शिल्पिकः ॥ अन्यथा नाममात्रं स्या, दिंद्रगोपककीटवत् ॥ २७ ॥ अर्थ-जेम शिल्पकलाथी शिल्पी कहेवाय बे, तेम ब्रह्मचर्य ब्राह्मण कदेवाय बे, अने तेथी उलटी रीतनो तो, जेम “इंद्रगोप" एवा नामनो कीडो कहेवाय बे, ते नाममात्र ब्राह्मण कहेवाय बे ॥ ५७ ॥ ताश्च दुराचारा, यत्र जदयचरा द्विजाः ॥ तं ग्रामं दंगयेाजा, चौरजक्तप्रदायकम् ॥ ५८ ॥ - वली हे युधिष्टर ! जे गाममां व्रतविनाना, दुराचारी, ने निक्षा मागनारा एवा ब्राह्मणो वसता होय, ते गामने, चोरने जातुं देनारुं जाणीने, राजाए ते गामनो दंग करवो जोइए ॥ ५८ ॥ तुकाले व्यतिक्रांते यस्तु सेवेत मैथुनम् ॥ ब्रह्महत्या फलं तस्य, सूतकं च दिने दिने ॥ २ए ॥ अर्थ-तुकाल गया बाद जे मैथुन सेवे तेने ब्रह्महत्यानुं फल, तथा दीनदीन प्रते सूतक लागे बे ॥णा ये स्त्री जंघोरसंस्पृष्टाः, कामगृध्राश्च ये दिजाः ॥ ये चरितोऽधमा भ्रष्टा स्तेऽपि शुत्रा युधिष्ठिर ॥ ६० ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ अर्थ- जे ब्राह्मणो स्त्रीनी जंघा ने साथलोने स्पर्श करीने रहेला बे, तथा जेयो विषयसुखमां लोलुपी थइने पडेला बे ने जेश्रो पोतानां याचरणोथीज्रष्ट यएला बे, तेोने पण हे युधिष्टर ! शुद्र जावा. ६० यस्तु रक्तेषु दंतेषु वेदमुच्चरते द्विजः ॥ -- मेध्यं तस्य जिह्वाग्रे, सूतकं च दिने दिने ॥ ६१ ॥ अर्थ- - वली हे युधिष्ठर ! जे ब्राह्मण, पोतानां दांतो लता यादिकथी रंगीने वेदनो उच्चार करे बे, तेनी जीजनां य जागपर विष्टा जाणवी, तथा तेने दिन दिनप्रते सूतक यावे . ॥ ६१ ॥ हस्ततलप्रमाणां तु, यो भूमिं कर्षति द्विजः ॥ नश्यते तस्य ब्रह्मत्वं, शूषत्वं त्वभिजायते ॥ ६२ ॥ अर्थ- जे ब्राह्मण हाथनां तलीयां जेटली पण भूमिने खेडे बे, तेनुं ब्रह्मपणुं नाश पामे बे, तथा तेने शुद्धपणुं प्राप्त थाय बे ॥ ६२ ॥ · कृषिवाणिज्यगोरक्षां, राजसेवां तथाधमाम् ॥ ये ब्राह्मणाः प्रकुर्वति, वृपलास्ते न संशयः ॥ ६३ ॥ अर्थ- वली हे युधिष्टर ! जे ब्राह्मणो खेती, वेपार राज्य, तथा अधम एवी राजसेवा करे बे, ते ब्राह्मणोने नीच शुद्ध जाणवा, तेमां संशय नथी. ॥ ६३ ॥ यत्काष्टमयो हस्ती, यवच्चर्ममयो मृगः ॥ ब्राह्मणस्तु क्रियाहीन, स्त्रयस्ते नामधारकाः ॥ ६४ ॥ For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ अर्थ - लाकमानो हाथी, ने चांबमानो हरिण, तथा क्रिया विनानो ब्राह्मण, ते वैसे कुछ नाम रावनारा बे ॥ ६४ ॥ थ · 2 " अव्रतानामशीलानां जातिमात्रोपज) विधी सहस्रमुचितानां तु ब्रह्मत्वं नोपजायते ।। ६९ । अर्थ-व्रतविनानां शीलविनाना, अने जातिमाथी याजीविका चलावनारा, एवा हजारो ब्राह्मपोने पण ब्रह्मपणुं प्राप्त यतुं नथी. ॥ ६५ ॥ ये स्त्रीवशंगता नित्यं, विश्वासोपहताश्च ये ॥ ये स्त्रीपादरजः स्पृष्टा, स्तेऽपि शूषा युधिष्ठिर ॥ ६६ ॥ - वली हे युधिष्टर !! जे माणसो हमेशां स्त्रीने वश रहेला बे, तथा जेश्रो विश्वासघाती बे, अने स्त्रीनां पगनी रजथी स्पर्श कराएला बे, ते पण शुद्रो जाणवा ॥ ६६ ॥ आरं वर्तमानस्य, हिंसकस्य युधिष्ठिर || गृहस्थस्य कुतः शौचं मैथुनानिरतस्य च ॥ ६७ ॥ अर्थ- वली हे युधिष्टर ! श्रारंजमवर्तता, तथा हिंसक, छाने मैथुनमां रक्त रहेला एवा गृहस्थने पवित्रता क्यांथी होय ? ॥ ६७ ॥ मैथुनं ये न सेवते, ब्रह्मचारा दृढव्रताः ॥ ते संसारसमुद्रस्य, पारं गति सुव्रताः ॥ ६० ॥ २ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न अर्थ-वली जेलो मैथुन सेवता नथी,तथा ब्रह्मचर्य रूपी दृढव्रतने पाले , एवा उत्तम चरणवाला ब्राह्मणो संसाररूपी समुज्नां पारने पामे ॥६॥ हलकर्षणकर्माणि, यस्य विप्रस्य वर्तते ॥. स नहि ब्राह्मणः प्रोक्तः, किं तु शूजो युधिष्ठिर ॥ ६ ॥ अर्थ-जे ब्राह्मणने हल आदिक खेतीन कार्य होय बे, तेने ब्राह्मण कहेलो नथी, पण हे युधिष्टर !! तेने तो शुरु कहेलो . ॥ ६ए ॥ हिंसकोऽनृतवादी च, चौर्योपरतश्च यः॥ परदारोपसेवी च, सर्वे ते पतिता विजाः॥ ७० ॥ अर्थ-हिंसा करनार, जुगबोलो, चोरीमां रक्त, तथा जे परस्त्रीने सेवनारो बे, एवा सघला ब्राह्महोने वटलेला जाणवा. ॥ ७० ॥ स्वाध्यायहीना वृषलाः, परकर्मोपजीविनः॥ आकाशगामिनो विप्राः सर्वजातिषु निंदिताः ॥ १॥ अर्थ-स्वाध्यायथी हीन, बायला, तथा पारकी चाकरी करीने आजीविका चलावनारा, अने श्राकाशगमन करनारा एवा ब्राह्मणो सर्वे जातियोमां निंदायेला . ॥ १॥ गोविक्रयास्तु ये विप्रा, ज्ञेयास्ते मातृविक्रयाः॥ तैर्हि देवाश्च वेदाश्च, विक्रीता नात्र संशयः ॥७२॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ-वली जे ब्राह्मणो गायने वेचनारा , तेश्रोने पोतानी माताना वेचनारा जाणवां, वली तेथी तेओए देव तथा वेदोने पण वेच्या समजवा,तेमां संशय नथी. ब्रह्मचर्यतपोयुक्ताः, समानलोहकांचनाः ॥ सर्वनूतदयावंतो, ब्राह्मणाः सर्वजातिषु ॥७३॥ अर्थ-जेो ब्रह्मचर्य अने तकरीने युक्त , तथा जेओने माटीनुं ढेफू अने सुवर्ण बन्ने सरखां , तथा जेश्रो सर्व प्राणीयोमा दयावाला , एवा माणसो सर्व जातियोमां पण ब्राह्मणो कहेवाय . ॥ ३ ॥ त्यक्तदाराः सदाचारा, जुग्ननोगा जितेंजियाः॥ जायंते गुरवो नित्यं, सर्व जूताजयप्रदाः ॥ ४॥ अर्थ-तजेली ने स्त्रीयो जेश्रोए, तथा सदाचारवाला, तजेला बेजोगोजेोए,तथा जीतेली इंडियो जेओए,एवा तथा सर्व प्राणीश्रोपर दया राखनारा,एवा ब्राह्मणो हमेशां गुरूतरिके थाय जे. ॥ ४ ॥ अधित्य चतुरो वेदान्, सांगोपांगान् चिकित्सिकान् ।। शूत्रात्पतिगृहं कृत्वा, खरो जवति ब्राह्मणः ॥ ७५ ॥ अर्थ-अंगोपांग सहित, तथा वैदकयुक्त एवा चार वेदोने जणीने, जे ब्राह्मण शुध्थकी प्रतिग्रह करे , ते गधेमो थाय . ॥ ५ ॥ खरो बादशजन्मानि, षष्टिजन्मानि शूकरः॥ श्वानः सप्ततिजन्मानि, इत्येवं मनुरब्रवीत् ॥ १६॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० अर्थ-वली तेवो ब्राह्मण बार जन्मो सुधि गधेमो थाय , सात जन्मो सुधि मुकर थाय , तथा सीत्तेर जन्मो सुधि कुतरो थाय ने, एम मनुक्रषिए पण कहेलु . ॥ ६ ॥ अहिंसासत्यमस्तेयं, ब्रह्मचर्यापरिग्रही ॥ कामक्रोधनिवृत्तस्तु, ब्राह्मणः स युधिष्ठिर ॥ ७ ॥ अर्थ-अहिंसा (दया) करनारो, सत्य बोलनारो चोरी नहीं करनारो,ब्रह्मचारी,परिग्रह नहीं राखनारो, अने कामक्रोधथी निवृत्त थएलो, एवो माणस, हे युधिष्टर!! ब्राह्मण कहेवाय .॥७॥ सत्यं नास्ति तपो नास्ति, नास्ति प्रियनिग्रहः ॥ सर्वनूतदया नास्ति, एतच्चांमाललदाणम् ॥ ७ ॥ अर्थ-वली हे युधिष्टर! ज्यां सत्य न होय, तप न होय, इंडियोनो निग्रह न होय, तथा सर्व प्राणीओ प्रते दया न होय, ते चांगलनुं लक्षण . ॥ ७ ॥ ये दांति दाताः श्रुतिपूर्णकर्णा । जितेंजियाः प्राणिवधे निवृत्ताः॥ परिग्रहे संकुचिताग्रहस्ता स्ते ब्राह्मणास्तारयितुं समर्थाः ॥ ए॥ अर्थ-जे ब्राह्मणो दमानांदेनारा,तथा श्रुतिथीपूर्ण थएल के कान जेश्रोनां एवा, तथा जीवहिंसाथी निवृत्त Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१ · थला, अपरिग्रह धरवामां संकोच पामेलबे हस्ताय जेोनां, एवा ब्राह्मणो तारवाने समर्थ होय बे ॥ ७ ॥ चतुर्वेदोऽपि यो जुत्वा, चंगकर्म समाचरेम् ॥ चांगालः स तु विज्ञेयो, नवेदास्तत्रकारणम् ॥ ८० ॥ अर्थ-चार वेदनो जाए थइने पण जे ब्राह्मण जयंकर कार्य करे तेने चांगाल जाणवो, तेनां ब्राह्मपणामां कं वेदो कारणभूत नथी. ॥ ८० ॥ वार्धक्याः सेवकाञ्चैव, नक्षत्रतिथिसूचकाः ॥ एते शूरूसमा विप्रा, मनुना परिकीर्तिताः ॥ ८१ ॥ अर्थ-व्याजखोर, चाकरी करनारा, तथा नक्षत्र अतिथिने सूचनारा, एवा ब्राह्मणोने मनुरुषिए शुद्ध सरखा कडेला बे. ॥ ८१ ॥ दशसूनासमश्चक्री, दशचक्रिसमो ध्वजः ॥ दशध्वजसमा वेश्या, दशवेश्यासमो नृपः ॥ ८२ ॥ अर्थ- दश कसाइखाना सरखो चक्री बे, अने दश चक्री सरखो एक कलाल बे, अने दश कलाल सरखी एक वेश्या बेने दश वेश्या सरखो एक राजा बे‍ राज्ञः परिग्रहो घोरो, मधुस्वादो विषोपमः ॥ पुत्रमांसं परं जदयं, नतु राजप्रतिग्रहम् ॥ ८३ ॥ अर्थ - राजानो परिग्रह ( प्रथम ) मधनास्वादसरखो पण (ते) विष समान जयंकर बे, माटे पुत्रनुं मांस खावुं सारूं, पण (ब्राह्मणे) राजानुं दान लेवुं नहीं. ८३ For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्‍ राजपरिग्रह दग्धानां ब्राह्मणानां युधिष्ठिर ॥ सटितानामिव बीजानां, पुनर्जन्म न विद्यते ॥ ८४ ॥ - वली हे युधिष्टर ! राजानां परिग्रहथी दग्ध एला एवा जे ब्राह्मणो, तेश्रोनो सडेला बीजनी पेठे पुनर्जन्म पण होतो नथी. ॥ ८४ ॥ हवे महाजारतनां शांतिपर्वमां कहेलुं ब्रह्मचर्यनुं वर्णन करेढे. वह्मचर्य जवेन्मूलं सर्वेषां ब्रह्मचारिणाम् ॥ ब्रह्मचर्यस्य जंगेन, व्रताः सर्वे निरर्थकाः ॥ ८५ ॥ अर्थ- हे युधिष्टर !! सघला ब्रह्मचारी श्रोनुं, ब्रह्मचर्य मूल बे, माटे ब्रह्मचर्यनां जंगे करीने सघला व्रतो निरर्थक बे ॥ ८५ ॥ " तांबूलं सूक्ष्मवस्त्राणि, स्त्रीकप्रियपोषणम् ॥ दिवा निषा सदा क्रोधो, व्रतिनां पतितानि षट् ॥ ८७ ॥ अर्थ-तांबूल, सूक्ष्म वस्त्र, स्त्री धोनी कथा, इंडियनुं पोषण, दिवसे निद्रा, तथा हमेशांनो क्रोध, ए व बाबतो व्रतियोनां व्रतने जंग करावनारी बे ॥ ८७ ॥ सुखशय्यासनं वस्त्रं, तांबूलं स्नानमर्दनम् ॥ दंतकाष्ठं सुगंधं च ब्रह्मचर्यस्य दूषणम् ॥ ८८ ॥ अर्थ- कोमल शय्या यने यासन तथा वस्त्र, तांबूल, स्नान, मर्दन, दातण श्रने सुगंधि, एटली बाबतो ब्रह्मचर्यने दूषण करनारी बे ॥ ८८ ॥ For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३ शृंगारमदनोत्पादं, यस्मात्स्नानं प्रकीर्तितम् ॥ तस्मात्स्नानं परित्यक्तं, नैष्टिकैब्रह्मचारितिः ॥ ए॥ अर्थ-स्नानने श्रृंगार अने कामदेवने उत्पन्न कर. नारूं कह्यु , अने तेथी उत्तम ब्रह्मचारीश्रोए तेने तजेलुं बे. ॥ नए ॥ ब्रह्मचर्येण शुधस्य, सर्वनूतहितस्य च ॥ पदेपदे यज्ञफलं, प्रस्थितस्य युधिष्ठिर ॥ ए० ॥ अर्थ-हे युधिष्टर ! ब्रह्मचर्ये करीने शुझ, अने सर्व प्राणीश्रोनुं हित करनार, एवा ब्राह्मणने पगले पगले यज्ञनुं फल मले बे. ॥ ए० ॥ एकरात्र्युषितस्यापि, या गति ब्रह्मचारिणः॥ न स्म ऋतुसहस्रण, वक्तुं शक्त्या युधिष्ठिर ॥ १ ॥ अर्थ-हे युधिष्टर !! एक रात्रि पण ब्रह्मचर्य पालनारनी जे गति , ते हजार यज्ञनी साथे पण सरखावी शकाय तेम नथी. ॥ ए१ ॥ एकतश्चतुरो वेदा, ब्रह्मचर्य तु एकतः ॥ एकतः सर्वपापानि, मद्यमांसं च एकतः॥ ए॥ अर्थ-एक बाजुथी चार वेदो, अने एक बाजुथी ब्रह्मचर्य, एक बाजुथी सर्व पापो, अने एक बाजुथी मदिरा मांस सरखां . ॥ ए२ ॥ नैष्ठिकं ब्रह्मचर्य तु, ये चरंति सुनिश्चिताः॥ देवानामपि ते पूज्या, पवित्रं मंगलं तथा ॥ ए३ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ अर्थ-जे उत्तम ब्राह्मणो निष्टा सहित ब्रह्मचर्य पाले , तेश्रो देवोने पण पूजनीक थाय , तथा तेयो पवित्र मंगलरूप . ॥ ए३॥ शीलानामुत्तमं शीलं, बतानामुत्तमं व्रतम् ॥ ध्यानानामुत्तमं ध्यानं, ब्रह्मचर्य सुरक्षितम् ॥ एच ॥ अर्थ-उत्तम रीते पालेबुं ब्रह्मचर्य,सघलां शीलोमां उत्तम शील , तथा सघलां व्रतोमा उत्तम व्रत , अने सघलां ध्यानोमां उत्तम ध्यान . ॥ ए४ ॥ पुत्रदारकुटुंबेषु, सक्ताः सीदति जंतवः ॥ सरःपकार्णवे मना, जीर्णवीर्या गजा श्व ॥ एए॥ अर्थ-पुत्र, स्त्री अने कुटुंबने विषे शासक्त थएला एवा जंतुस्रो, तलावनां कादवरूपी समुरुमां बुडेला, तथा जीर्ण थएल ने वीर्य जेश्रोनुं एवा हाथीयोनी पेठे दुःख पामे बे. ॥ ए५ ॥ हवे तेज शांतिपर्वमा वर्णवेधुं क्रोधनुं स्वरूप कहे . क्रोधः परितापकरः, सर्वस्योगकारकः ॥ क्रोधो वैरानुषंगीकः, क्रोधः सुगतिनाशकः ॥ ए६ ॥ अर्थ-क्रोध ले ते, सर्वने परिताप, तथा उठेग करनारो बे, वली ते वैर करावनारो, तथा सुगतिने नाश करनारो . ॥ ए६॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५ " क्रोधो मूलमनर्थानां क्रोधः संसारवर्धनः ॥ धर्मक्षयकरः क्रोध, स्तस्मात्क्रोधं विवर्जयेत् ॥ ए ॥ अर्थः- क्रोध बे ते अनर्थोनुं मूल, तथा संसारने वधारनारो, ने धर्मनो दय करनारो बे, माटे तेनो त्याग करवो. ॥ ॥ स शूरः सात्विको विद्वान्, स तपस्वी जितेंद्रियः ॥ येनासौ छांतिखड्गेन, क्रोधशत्रुर्निपातितः ॥ ए८ ॥ अर्थः- जे माणसे या क्रोधरूपी शत्रुने, दमा रूप खगे करीने हप्यो बे, तेज माणस, शूरो, सत्ववान, विद्वान ने जितेंद्रिय बे ॥ ए८ ॥ ● यस्य कांतिमयं शस्त्रं, क्रोधाग्रेरुपनाशनम् ॥ नित्यमेव जयं तस्य, शत्रूणामुदयः कुतः ॥ एए ॥ अर्थः- जे माणस पासे क्रोधरूपी अग्निने नाश करनारूं क्षमारूपी हथीयार बे, तेनो हमेशां जय थाय बे, अने तेने शत्रुनो उदय क्यांथी होय ? ॥ एए ॥ क्षमागुणान् प्रवक्ष्यामि, संक्षेपेण तु श्रूयताम् ॥ धर्मार्थकाममोक्षाणां क्षमाकारणमुच्यते ॥ १०० ॥ " अर्थः- हे युधिष्टर! हवे हुं संदेपथी तने कमाना गुणोनुं वर्णन कहुं हुं, ते तुं सांजल ? कमा बे ते, धर्म, अर्थ, काम, छाने मोनुं कारण कहेवाय बे. १०० क्षमा शांति क्षमा शास्त्रं, क्षमा श्रेयः क्षमा धृतिः ॥ क्षमा वित्तं च चित्तंच, दमा रक्षा हमाबलम् ॥ १०१ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ अर्थः- दमा बे ते शांति, शस्त्र, कल्याण, धीरज, धन, चित्त, रक्षा ने बल बे ॥ १०१ ॥ दमा नाथः क्ष्मा त्राता, क्षमा माता क्षमा सुहृदू ॥ क्षमा लब्धिः क्षमा लक्ष्मीः, क्षमा शोभा क्रमा शुभम् ॥ १०२ ॥ अर्थः- क्षमा बे ते, स्वामी, रक्षणकरनार, माता, मित्र, लब्धि, लक्ष्मी, शोजा ने श्रेय बे ॥ १०२ ॥ दमा श्लाघा क्षमा चारः, दमा कीर्तिः क्ष्मा यशः ॥ दमा सत्यं च शौचं च, क्षमा तेजः क्ष्मा रतिः ॥ १०३ ॥ अर्थ::- दमा बे ते, प्रशंसा, आचार कीर्ति, यश, सत्य, पवित्रता, तेज ने मोजशोक बे ॥ १०३ ॥ क्षमा श्रेयः क्षमा पूजा, क्षमा देवः क्षमा हितम् ॥ क्षमा दानं पवित्रं च क्षमा मांगल्यमुत्तमम् ॥ १०४ ॥ अर्थः- क्षमा बे ते, कल्याण, पूजा, देव, हित, -- पवित्र दान तथा उत्तम मांगल्य बे. ॥ १०४ ॥ कांतितुल्यं तपो नास्ति, न संतोषात्परं सुखम् ॥ न मैत्रीसदृशं दानं नास्ति धर्मो दयासमः ॥ १०५ ॥ अर्थ- वली हे युधिष्टर! दमा समान कोइतप नथी, संतोषथी बीजं उत्तम सुख नथी, मित्राइ समान बीजुं दान नथी, ने दया समान बीजो धर्म नथी ॥ १०५ ॥ कामक्रोधादिसहितः, किमरस्यैः करिष्यति ॥ अथवा विनिर्जित्यैतौ, किमरस्यैः करिष्यति ॥ १०६ ॥ For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ-काम अने क्रोध श्रादिकथी जरेलो एवो माणस, जंगलोए करीने गुंकरवानो हतो? अथवा तेओने जीतीने पण जंगलोए करीने शुं करवानो हतो? सकषायस्य चित्तस्य, कषायैः किं प्रयोजनम् ॥ अथवा निकषायत्वे, कषायैः किं प्रयोजनम् ॥ १७॥ अर्थ-जेनुं चित्त कषायवालुं बे, तेने कषायोए करीने शुं प्रयोजन बे? अथवा कषाय रहितपणुं होते बते पण कषायोये करीने शुं प्रयोजन ? ॥१७॥ किमरण्यैरदांतस्य, दांतस्य च किमाश्रमैः ॥ यत्र यत्र नवेदांत, स्तदरण्यं तदाश्रमम् ॥ १० ॥ अर्थ-जेणे इंजियोने दमी नथी, तेने वनोनुं शं प्रयोजन बे? अने जेणे इंजियोने दमी बे, तेने आश्रमोनी शी जरूर बे? माटे ज्यां ज्यां जितेंघिय डे, ते ते अरण्य अने आश्रमज . ॥ १० ॥ सत्याधारस्तपस्तैलं, दमोवर्तिः क्षमाशिखा ॥ अंधकारे प्रवेष्टव्यं, दीपो यत्नेन धार्यताम् ॥ १० ॥ अर्थ संसाररूपी अंधकारमा प्रवेश करती वेलाए सत्यरूपी पात्रवालो, तपरूपी तेलवालो, दमतारूपी वाटवालो, तथा दमारूपी शिखावालो दीपक यत्न. पूर्वक धारण करवो. ॥ १० ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपो ज्ञानमयो यस्य, वर्तिर्यस्य तपोमयी॥ ज्वलते शीलतैलेन, न तमस्तस्य जायते ॥ ११॥ अर्थ-जे माणसनो तपरूपी वाटवालो ज्ञानरूपी दीवो, शीलरूपी तेलथी बले , ते माणसने अझा नरूपी अंधकार थतो नथी.॥११०॥ सुखेन दांतः स्वपिति, सुखेन प्रतिबुध्यति ॥ समं सर्वेषु जूतेषु, मनो यस्य प्रसीदति ॥ १११ ॥ अर्थ-जेनुं मन सघला प्राणीयोने विषे तुल्य रीते आनंद पामे , तेवो जितेंघिय माणस सुखेथी निझा करे , तथा सुखेथीज जागृत थाय .॥११९॥ यदाधीते मंगानि, वेदांगांश्चतुरो दिजः॥ दमी न समहीनस्तु, न पूजां किंचिदर्हति ॥ ११ ॥ अर्थ-ज्यारे को ब्राह्मण अंगो, अने चार वेदो नणे ,पण जो ते जितेंजिय,तथा समताथी हीन होय तो ते कंश पण पूजाने लायक थतो नथी. ॥ ११॥ अहिंसासत्यमस्तेयं, ब्रह्मचर्यमसंचयः॥ मद्यमांसमधुत्यागो, रात्रिनोजनवर्जनम् ॥ ११३ ॥ अर्थ-हे युधिष्टर !! दया,सत्य,चोरी नहीं करवी ते ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, मद्य, मांस अने मधनो त्याग,तथा रात्रिनोजननो त्याग, (ए धर्मनां अंगो .) ॥११३॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ये रात्रौ सर्वदाहारं, वर्जयंति सुमेधसः ॥ तेषां पदोपवासस्य, फलं मासेन जायते ॥ ११ ॥ अर्थ-जे उत्तम बुद्धिवाला माणसो रात्रिने विषे हमेशां श्राहारनो त्याग करे , तेश्रोने एक मासमां पद दिवसनां उपवास, फल थाय . ॥ ११४ ॥ करोति विरतिं धन्यो, यः सदा निशि नोजनात् ॥ सोऽध पुरुषायुषस्य, स्यादवश्यमुपोषितः ॥ ११५॥ अर्थ-जे धन्य माणस हमेशां रात्रिनोजनथी विरति पामे , ते माणसने पोतानां अरधा आयुष्यना उपवासनुं फल मले बे. ॥ ११५ ॥ मृते स्वजनमात्रेऽपि, सूतकं जायते ध्रुवम् ॥ अस्तं गते दिवाना, नोजनं क्रियते कथम् ॥ ११६ ॥ अर्थ-खजनमात्र पण मृत्यु पामते बते, ज्यारे निश्चये करीने सूतक थाय , त्यारे सूर्य अस्त पामते बते जोजन केम कराय ? ॥ ११६ ॥ नोदकमपि पातव्यं, रात्रावत्र युधिष्ठिर ॥ तपस्विना विशेषेण, गृहस्थेन विवेकिना ॥ ११७ ॥ अर्थ-हे युधिष्टर!! आपुनियामांरात्रिने विषे तो पाणी पण नहीं पीवू; अने तेमां पण तपस्वीए, अने विवेकी एवा गुहस्थे तो विशेषे करीने नहीं पीएं. ११७ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हवे तीर्थनो अधिकार कहे बे. सत्यं तीर्थ तपस्तीर्थ, तीर्थमिंत्रियनिग्रहः ॥ सर्वजूतदया तीर्थ, एतत्तीर्थस्यलक्षणम् ॥ ११० ॥ अर्थ-सत्य,तप,इंजियोनो निग्रह तथा सर्व प्राणीयो प्रते दया, ए तीर्थ डे, अने तेज तीर्थ- लक्षण . आत्मानदी संयमतोयपूर्णा ॥ सत्यावहा शीलतटा दयोर्मिः॥ तत्रानिषेकं कुरु पांडुपुत्र ॥ न वारिणा शुद्ध्यति चांतरात्मा ॥ ११ए॥ अर्थ-संयमरूपी पाणीथी नरेली, सत्यने धारण करनारी, शीलरूपी कांगवाली तथा दयारूपी मोजांवाली एवी आत्मरूपी नदीमां, हे पांमुपुत्र ! तुं अनिषेक कर ? केमके केवल पाणीथी कंश अंतरात्मा शुद्ध थतो नथी. ॥ ११ ॥ चित्तमंतर्गतं उष्टं, तीर्थस्नानेन शुध्यति ॥ शतशोऽपि जलै धौतं, सुरानांममिवाशुचि॥ १० ॥ अर्थ-अंतरमा पुष्ट थएवं एवं जे चित्त ते तीथनां स्नानोथी कंई शुद्ध थतु नथी, केमके सेंकमो वखत पाणीथीधोएलो एवो मद्यनो घमो अपवित्रज रहे . मृदोनारसहस्रेण, जलकुंनशतेन च ॥ न शुद्ध्यति पुराचाराः, स्नानतीर्थशतैरपि ॥ ११ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ-कुराचारी माणसो हजारो जार माटीथी, तथा सेंकडो गमे पाणीनां घमाओथी, अने सेंकडो तीर्थनां स्नानोथी पण शुद्ध थता नथी. ॥ ११ ॥ सत्यं शौचं तपः शौचं, शौचमिप्रियनिग्रहः॥ । सर्वजूतदया शौचं, जलशौचं च पंचमम् ॥ १२ ॥ अर्थ-सत्य,तप,इंडियोनो निग्रह,तथा सर्व प्राणी श्रोमां दया ए शौच एटले पवित्रता, अने जलथी पवीत्रता तो पांचमा नंबरनी एटले बेबी जे. ॥१२॥ दृष्टिपूतं न्यसेत्पादं, वस्त्रपूतं जलं पिबेत् ॥ सत्यपूतं वदेशाक्यं, मनः पूतं समाचरेत् ॥ १३ ॥ अर्थ-दृष्टिथी पवित्र थएडं पगबुं मुकवू, वस्त्रथी पवित्र थएवँ जल पीयू, सत्यथी पवित्र थएवं वचन बोलवू, तथा मनथी पवित्र थएच आचरवु.॥ १३॥ कामरागमदोन्मत्ताः, स्त्रीणां ये वशवर्तिनः ॥ न ते जलेन शुष्यन्ति, स्नातास्तीर्थशतैरपि ॥ १२॥ अर्थ-कामरागथी मदोन्मत्त थया थका जे पुरुषो स्त्रीोने वश थश्ने रहे ,तेश्रो सेंकडोतीर्थोनां जलथी स्नान करे, तो पण शुक थता नथी॥ १२४ ॥ नोदकक्विन्नगात्रोपि, स्नात इत्यभिधीयते ॥ सुस्नातो. यो दमस्नातः, स बाह्यान्यंतरः शुचिः ॥ १२५॥ अर्थ-पाणी मात्रथीनींजएलां शरीरवालोमाणस कई स्नान करेलो कहेवातो नथी, पण जेणे इंजिओने Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दमी ने, तेज स्नान करेलो, तथा तेज बाह्य अने अंतरथी पवित्र थएलो कहेवाय बे. ॥ १२५ ॥ निगृहीतेंजियघारो, यत्रोपविशते मुनिः ॥ तत्रतत्र कुरूदे, नान्यत्र पुष्करं जना; ॥ १२६ ॥ अर्थ-जेणे इंजियोनां छारो वशमा राख्यां बे,एवो मुनि ज्या ज्यां रहे ,त्यां त्यां कुरुक्षेत्र , तेम हे लोको पुष्कर तीर्थ पण ते शिवाय बीजी जगोए नथी. १२६ सर्वेषामेव शौचाना, मर्थ शौच विशिष्यते ॥ योऽर्थेषु शुचिः स शुचि, नर्मदावारिनिः शुचिः॥ १७ ॥ अर्थ-सघली शुचिोमां अर्थशुचि विशेष बे, माटे जे अर्थोमां शुचि थएलो बे, तेने नर्मदानां पा णीथी शुचि थएलो जाणवो. ॥ १७ ॥ संवत्सरेण यत्पापं, कैवर्तस्य हि जायते॥ एकाहेन तदाप्नोति, अपूतजलसंग्रही ॥ १२ ॥ अर्थ-जे पाप एक वर्षे पाराधिने थाय , तेज पाप एक दीवस अणगल पाणी पीनारने थाय ॥१२॥! यः कुर्यात्सर्वकर्माणि, वस्त्रपूतेन वारिणा ॥ स मुनिः स महासाधुः, स योगी स महाव्रती ॥ १२ ॥ अर्थ-जे माणस वस्त्रथी गालेला पाणीथी सर्व कार्यो करे , तेनेज मुनि महालाधु योगी तथा महा व्रतधारी जाणवो. ॥ १२ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३ चित्तं रागादिनिः क्लिष्टं, अलीकवचनैर्मुखम् ॥ जीवघातादिनिः काय, स्तस्य गंगा पराङ्मुखी ॥ १३० ॥ अर्थ-जेनुं चित्त रागादिकोश्रीक्लीष्ट थएबुं बे, तथा जेनुं मुख जुगं वचनोथी अपवित्र थएबुं बे,तथा जेनी काया जीवहिंसा आदिकथी अशुचि थएली ने, तेनाथी गंगा उलटा मुखवाली रहे बे. ॥ १३० ॥ चित्तं शमादिन्तिः शुच, वदनं सत्यनाषणैः ॥ ब्रह्मचर्यादिनिः कायः, शुम्यो गंगाविनापि सः ॥ १३१ ॥ अर्थ-जेनुं चित्त समता अदिकथी शुद्ध थएवं बे, तथा जेनुं मुख सत्य वचनोथी शुभ थएवँ , तथा जेनुं शरीर ब्रह्मवर्यादिकथी पवित्र थएवं बे, ते माएस गंगा विना पण शुद्ध .॥ १३१ ॥ जंगमं स्थावरं चैव, विविधं तीर्थमुच्यते ॥ जंगमं झषय स्तीर्थ, स्थावरं तैनिषेवितम् ॥ १३ ॥ अर्थ-जंगम अने स्थावर एम बे प्रकार- तीर्थ कहेवाय , तेमां ऋषिो नेते, जंगम तीर्थ डे, तथा तेश्रोए सेवेवं ते स्थावर तीर्थ बे. ॥ १३ ॥ अहिंसा सत्यमस्तेय-ब्रह्मचर्यापरिग्रहाः ॥ जैदयवृत्तिरता ये च, तत्तीर्थ जंगमं स्मृतम् ॥ १३३ ॥ अर्थ-अहिंसा,सत्य,चोरी नहीं करवी ते,ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह,तथा निदा वृत्तिमां जे लोको तत्पर थएला बे एवा साधुओ जंगम तीर्थ कहेवाय . ॥ १३३ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ गाधे विमले शुद्धे, सत्यशीलसमे हृदि ॥ ज्ञातव्यं जंगमं तीर्थ, ज्ञानार्जवदयापरैः ॥ १३४ ॥ अर्थ - श्रगाध, निर्मल, शुद्ध, तथा सत्य, शील अने समतारूप हृदय होते बते, ज्ञान, श्रार्जव, अने दयामां तत्पर थऐला माणसोए जंगम तीर्थ जाणवुं. ॥१३४॥ आचारवस्त्रांतरगालितेन । सत्यप्रयत्नक्ष्मशीतलेन ॥ ज्ञानांबुना स्नाति चं यो हि नित्यं । किं तस्य नूयात्सलिलेन कृत्यम् ॥ १३५ ॥ अर्थ - श्राचाररुपी वस्त्रयी गालेला, तथा सत्यनो प्रयत्न ने क्षमाथी शीतल थएला एवा ज्ञानरुपी पाणीथी जे हमेशां स्नान करेबे, तेने जलना स्नाननुं शुं प्रयोजन बे ? ( अर्थात् कई प्रयोजन नथी . ) ॥ १३५ ॥ इदं तीर्थमिदं तीर्थ, ये भ्रमन्ति तमोवृताः ॥ येषां नाम्ना च तीर्थं हि तेषां तीर्थ निरर्थकन् ॥ १३६ ॥ अर्थ - श्रा तीर्थ, या तीर्थ, एवी रीते जे माणसो अज्ञानी छादित थया थका तीर्थोमां जमे बे, तथा जेोने फक्त नामरुपज तीर्थ बे, तेश्रोनुं तीर्थ निरर्थक बे ॥ १३६ ॥ न मृत्तिका नैव जलं, नाप्यग्निः कर्मशोधनम् ॥ शोधयंति बुधाः कर्म, ज्ञानध्यानतपोजलैः ॥ १३७ ॥ For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५ अर्थ- वली हे युधिष्टर ! माटी, पाणी तथा श्रग्नि पण कर्मरुपी मेलने धोवाने समर्थ नथी; तेथी माह्या माणसो तो, ज्ञान ध्यान ने तपरुपी पाणीथी कर्मरुपी मेलने धुए बे ॥ १३७ ॥ " शुचिः पापकर्मा यः, शुद्धकर्मा यतिर्भवेत् ॥ तस्मात्कर्मात्मकं शौच - मन्यशौचं निरर्थकम् ॥ १३८ ॥ अर्थ - पवित्र तथा पापकार्य करनारो एवो पण मुनि, ( ज्ञान, ध्यान ने तपथी ) शुद्ध कर्मवालो याय बे, माटे कर्मनुं शुचिपणुं अंगीकार करवुं, ते शिवायनुं बीजं शुचिपणुं निरर्थक बे ॥ १३८ ॥ समता सर्वभूतेषु मनोवाक्कायनिग्रहः ॥ पापध्यानकषायाणां निग्रहेण शुचिर्भवेत् ॥ १३९ ॥ अर्थ- सर्व प्राणी ओोमां समता, तथा मन, वचन कायानो निग्रह, तथा आर्त, रौद्र ध्यान छाने क बायोनां त्यागथी प्राणी पवित्र थाय ॥ १३५ ॥ एवी रीते तीर्थनो अधिकार कह्यो. अनेकानि सहस्राणि, कुमारब्रह्मचारिणाम् ॥ दिवं गतानि विप्राणा, मकृत्वा कुलसंततिम् ॥ १४० ॥ - वली हे युधिष्टर !! ब्राह्मणोनां हजारो ब्रह्मचारी कुमारो पुत्रोत्पत्ति कर्या विना पण देवलो - कमां गएला बे ॥ १४० ॥ . Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यस्य चित्तं वीनूतं, कृपया सर्वजंतुषु ॥ तस्य ज्ञानं च मोदं च, किं जटालश्मचीवरैः ॥ १४१॥ अर्थ-वली हे युधिष्टर!! जेनुं चित्त सर्व प्राणीश्रोमा दयाथी निंजाए बे, तेने झान तथा मोद मले; माटे जटां जश्म, अने वस्त्रथी शुं थवानुं ? अग्निहोत्रं वने वासः, स्वाध्यायो दानसक्रिया ॥ तान्येवैतानि मिथ्या स्यु-यदि जावो न निर्मलः ॥ १४॥ अर्थ-वली हे युधिष्टर ! जो नाव निर्मल न होय तो अग्निहोत्र, वनवास, शास्त्राच्यास, दान, तथा नत्तम क्रिया ए सघj निरर्थक जाय . ॥ १४ ॥ वनेऽपि दोषाः प्रनवन्ति रागिणाम् । गृहेऽपि पंचेंद्रियनिग्रहस्तपः॥ अकुत्सिते कर्मणि यः प्रवर्तते । निवृत्तरागस्य गृहं तपोवनम् ॥ १५३ ॥ अर्थ-वली हे युधिष्टर रागीमाणसोने तो वनमां पण दोषोनी उत्पत्ति थाय , अने जे माणस घरमां रहीने पण पांचे इंजियोने वशमा राखे , ते तेनो तपज , माटे जे उमत्त कार्यमा प्रवर्ते बे, तथा जेणे रागनो त्याग करेलो, तेने घर पण तपोवनज . १४३ न शब्दशास्त्राभिरतस्य मोदो। न चैव रम्यावसतिप्रियस्य ॥ न लोजनाबादनतत्परस्य । न लोकचित्तग्रहणेरतस्य ॥ ४॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ३७ अर्थ-वली हे युधिष्टर!! शब्दशास्त्रमा (व्याकरणमां) आसक्त थएलाने, तथा मनोहर स्थानक ने प्रिय जेने एवा माणसने, तथा जोजन अने वस्त्रमा तत्पर थएलाने, तथा लोकोनां मन रंजन करवामां तहीन श्रएलाने, कंश मोद मलतो नश्री. ॥ १४४ ॥ श्वपाकीगर्नसंनूतः, परासरमहामुनिः॥ तपसा ब्राह्मणो जात-स्तस्माजातिरकारणम् ॥ १४ ॥ अर्थ-वली हे युधिष्टर! चांमालणीनांगर्नथी उत्पन्न थएला एवा परासर नामना महा मुनि तपसाथी ब्राह्मण थया; माटे तेमांजातिनुं कई कारण नथी.१४५ कैवर्तीगर्नसंनूतो, व्यासो नाम महामुनिः॥ तपसा ब्राह्मणो जात- स्तस्माजातिरकारणम् ॥ १४६॥ अर्थ-माबणनां गर्नथी उत्पन्न थएला एवा व्यास नामना महामुनि, तपसाथी ब्राह्मण थया, माटे तेमां पण जातिनुं कई कारण नथी.॥ १४६ ॥ श्वमृगीगर्नसंनूतो, ऋषिशंगो महामुनिः ॥ तपसा ब्राह्मणोजात- स्तस्माजातिरकारणम् ॥ १७ ॥ अर्थ-श्वमृगीना गर्नथी उत्पन्न थएला एवा झषिशंग नामना महामुनि तपसाश्री ब्राह्मण थया, माटे तेमां पण जातिनुं कई कारण नथी. ॥ १४ ॥ सुशुकीगर्नसंजूतः, शुको नाम महामुनिः॥ तपसा ब्राह्मणो जात-स्तस्माजातिरकारणम् ॥ १४ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० अर्थ-सुशुकीनां गर्नथी उत्पन्न थएला एवा शुक नामना महामुनि तपसाथी ब्राह्मण थया, माटे तेमां पण जातिनुं कई कारण नथी. ॥ १४ ॥ मंमुकीगर्नसंनूतो, मांजथश्च महामुनिः॥ तपसा ब्राह्मणो जात- स्तस्माजातिरकारणम् ॥ १४ए॥ अर्थ-डेमकीनां गर्नथी उत्पन्न थएला एवा मांथ नामना महामुनि तपसाथी ब्राह्मण थया, माटे तेमां पण जातिनुं कई कारण नथी. ॥ १४ए । उर्वशीगर्नसंनतो, वशिष्ठश्चमहामुनिः॥ तपसा ब्राह्मणोजात- स्तस्माजातिरकारणम् ॥ १५० ॥ अर्थ-उर्वशीनां गर्नथी उत्पन्न थएला एवा वशिष्ट नामना महामुनि तपसाथी ब्राह्मण थया माटे तेमां जातिनुं कई कारण नथी. ॥१५॥ अरणीगर्नसंजूतः, कवितश्च महामुनिः ॥ तपसा ब्राह्मणो जात-स्तस्माजातिरकारणम् ॥ १५१॥ अर्थ-अरणीनां गर्नथी उत्पन्न थएला एवा कवित नामना महामुनि तपसाथी ब्राह्मण थया, माटे तेमां पण जातिनुं कई कारण नथी.॥ १५१॥ न तेषां ब्राह्मणी माता, संस्कारश्च न विद्यते ॥ तपसा ब्राह्मणा जाता, स्तस्माजातिरकारणम् ॥ १५ ॥ अर्थ-हे युधिष्टर!! एवी रीते ते शषियोनी माताओ ब्राह्मणी नहोती, तथा तेमने संस्कार पण Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ए नहोतो, तो पण तेश्रो तपसाथी ब्राह्मणो थया, माटे तेमां जातिनुं कई पण कारण नथी. ॥ १५ ॥ शीलं प्रधानं न कुलं प्रधानम् ॥ कुलेन किं शीलविवर्जितेन ॥ बहवो नरा नीचकुले प्रसूताः ॥ स्वर्ग गता शीलमुपेत्य धीराः ॥ १५३ ॥ ___ अर्थ-माटे हे युधिष्टर !! शील बे ते उत्तम , कंश कुलनुं प्रधानपणुं नथी; केमके शील विनानां कुलनुं शुं प्रयोजन ? कारणके, नीचकुलमां उत्पन्न थएला एवा पण घणां धीर पुरुषो शीलने अंगीकार करीने खर्गे गएला . ॥ १५३ ॥ श्रुतिमां पण कडं डे के, हस्तिन्यामबलो जात, उष्ट्रक्यां केशकंबलः ॥ अगस्त्योऽगस्तिपुष्पाच्च, कौशिकः कुशसंस्तरात् ॥ १५४ ॥ कठिनात्कठिनो जातः, शरगुटमाच्च गौतमः ॥ प्रोणाचार्यस्तु कलशा, त्तित्तिरस्तित्तिरीसुतः ॥ १५५ ॥ रेणुका जनय प्राम, शषिशृंगं वने मृगी॥ कैवर्त्यजनयच्यासं, श्वपाकी च परासरम् ॥ १५६ ॥ विश्वामित्रं च चांमाली, वशिष्टं चैव उर्वसी ॥ विप्रजातिकुलानावे, प्येते तावहिजोत्तमाः॥ १७ ॥ अर्थ-अबल हाथणीथी, केशकंबल उटणीथी, अगस्त्य अगस्तिनां पुष्पथी,कुशनां ढगलाथी कौशिक Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ქ. कठिनऋषि कठिनथी, शरगुल्मथी गौतम, कलशथी द्रोणाचार्य, तित्तिरीथी तित्तिरमुनि, रेणुकार्थी राम, हरणीथी कृषिशृंग, माढणथी व्यास, चांभालणीथी परासरमुनि तथा विश्वामित्र ने उर्वसीथी वशिष्ठ मुनि उत्पन्न थएल बे, एवी रीते तेओने ब्राह्मणनी जाति ने कुलनो नाव होते बते पण, ते उत्तम ब्राह्मणो कदेवाला बे ॥ १५४ ॥ १५५ ॥ १५६ ॥ १५७ ॥ क्षेत्रं यंत्रं प्रहरणवधूर्लांगलं गोतुरंगं ॥ धेनुत्री प्रविणतरवो हर्म्यमन्यच्च चित्रं ॥ यत्सारनं जनयति मनो रलमालिन्य मुच् ॥ स्तादृग् दानं सुगतिकृतये नैव देयं जनेन ॥ १५८ ॥ अर्थ-रंज सहित, तथा जे मनरुपी रत्नने उंचे प्रकारे मलीनता उपजावे बे, एवां क्षेत्र, यंत्र, हथियार, स्त्री, हल, बलद, घोडो, गाय, गामी, धन, वृक्ष, महेल, तथा बीजां पण विचित्र प्रकारनां साधनोनुं दान पुण्यने माटे माणसे देवुं नहीं ॥ १५८ ॥ सुबीजमूरे - 5प्तं नैव प्ररोहति ॥ तद्दत्तं कुपात्रेषु, दानं जवति निष्फलम् ॥ १५९ ॥ अर्थ - उखर नूमिमां वावेलुं उत्तम बीज पण जेमन गतुं नथी, तेमज कुपात्रोने घालुं दान निष्फल जाय बे. पात्रे चापि यद्दानं, दहत्यासप्तमं कुलम् ॥ दुग्धं हि ददशूकाय, विषमेव प्रजायते ॥ १६० ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१ अर्थ-वली कुपात्रप्रते दीधेनुं दान सात कुलनो विनाश करे , केमके सर्पने आपेलुदूध, फेरज थाय . यथा मम प्रियो ह्यात्मा, सुख मिति सर्वदा ॥ सर्वेषा मेव जीवानां, नित्यवेव सुखं प्रियम् ॥ १६१॥ अर्थ-वली हे युधिष्टर! जेम मारो श्रात्मा मने वहालो , तथा जेम हमेशां सुखने श्छे बे, तेम स. घला जीवोने पण हमेशां सुख प्रिय बे. ॥ १६१॥ एवमात्मसमोनूयात, सर्वजूतेषु पार्थिव ॥ सर्वेषामेव जीवानां, नित्यमेव सुखं प्रियम् ॥ १६ ॥ अर्थ-एवी रीते हे युधिष्टर !! सघला प्राणीओप्रते पोतानां आत्मा सरखं थQ; केमके, सघला जीवोने हमेशा सुख प्यारं . ॥ १६ ॥ पशुंश्च ये तु हिंसंति, गृध्रा प्रव्येषु मानवाः ॥ ते मृत्वा नरकं यांति, नृशंसाः पापकर्मणि ॥ १६३ ॥ अर्थ-व्यनां लालचु थश्ने जे माणसो पशुनी हिंसा करे बे, ते माणसो पापकार्यमा निर्दय थया थका मृत्यु पामीने नरके जाय . ॥ १६३ ॥ यादृशी वेदना तीव्रा, स्वशरीरे युधिष्टिर ॥ तादृशी सर्वजीवानां, सर्वेषां सुख मिन्ताम् ॥ १६४ ॥ अर्थ-वली हे युधिष्टर ! पोताना शरीरमां जेवी तीव्र वेदना थाय , तेवीज सघला सुख श्छता जीवोने पण थाय बे. ॥ १६ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ सर्वजीवदयार्थं तु, ये न हिंसंति प्राणिनः ॥ निश्चिता धर्मसंयुक्तास्ते नराः स्वर्गगामिनः ॥ १६५ ॥ अर्थ- सर्व जीवोनी दया माटे जे माणसो प्राणीओसी हिंसा करता नथी, एवा धर्मीष्ट माणसो खरेखर स्वर्गमां गमन करे. ॥ १६५ ॥ पृथिवी रत्नसंपूर्णा, ब्राह्मणेभ्यः प्रयच्छति ॥ एकस्य जीवितं दद्यात् फलेन न समं जवेत् ॥ १६६ ॥ r - रत्नोथी जरेली पृथ्वी ब्राह्मणो प्रते यापे, एक जीवने जीवितदान पे, ते बन्नेनुं तुल्य फल नथी, अर्थात् जीवितदान सर्वथी श्रेष्ट बे ॥ १६६ ॥ जंबूदीपं सरलं तु दद्यान्मेरुं सकांचनं ॥ यस्य जीवदया नास्ति, तस्य सर्व निरर्थकम् ॥ १६७ ॥ अर्थ - रत्नसहित जंबूद्वीप, तथा सुवर्ण सहित मेरु पर्वतनुं दोन थापे, पण जेने जीवदया नथी, तेनुं ते सलुं निरर्थकज बे ॥ १६७ ॥ निवसति रुषश्च, मांसे वसति केशवः ॥ शुक्रे वसति ब्रह्मा च तस्मान्मांसं न जयेत् ॥ १६८ ॥ अर्थ- हामकामां शीव, मांसमां विष्णु, तथा शुक्रमां ब्रह्मा वसे बे, माटे मांसमक्षण कर नहीं. ॥ १६८ ॥ و तिलसर्षपमात्रं तु, मांसं यो क्षयेन्नरः ॥ स नियमान्नरकं याति यावचंद्र दिवाकरौ ॥ १६ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३ अर्थ-वली हे युधिष्टर ! जे माणस एक तख श्रथवा सर्षवना दाणा जेटलुं पण मांस जक्षण करे, ते माणस खरेखर चंड अने सूर्य ज्यां सुधि , त्यां सुधि नरके जाय बे. ॥ १६ ॥ अयाचकसुशीलानां, दीदितानां तपस्विनां । अहिंसकानां मुक्तानां, कुरु वृत्तिं युधिष्टिर ॥ १७० ॥ अर्थ-वली हे युधिष्टर, याचना नहीं करनारा, उत्तम आचरणवाला, दीक्षित, तपस्वी, हिंसा नहीं करनार, तथा परिग्रहने बोमनारा एवा माणसोनुं तुं पोषण कर ? ॥ १० ॥ निष्कांचनस्य युक्तस्य, दीक्षितस्य तपस्विनः॥ ब्रह्मयुक्तस्य कौंतेय, जैक्कव्रतचारिणः ॥ १७१॥ अर्थ-अव्य नहीं राखनार, योग्य, दीक्षित,तपस्वी, ब्रह्मचारी, तथा निदा मागी आजीविका चलावना. रनुं पण, हे युधिष्टर! तुं पोषण कर ? ॥ १७१ ॥ अदीक्षितो.ह्यमुक्तश्च, नेदयं मुंजति यो विजः॥ आत्मानं नरकं नेति, दातारं च न संशयः ॥ १७॥ अर्थ-दीदा विनानो, तथा परिग्रहधारी एवोजे ब्राह्मण जीख मागीने जोजन करे , ते पोताने अने दातारने पण नरकमां ले जाय , तेमा संशय नथी. तिनो ब्राह्मणा ज्ञेयाः, क्षत्रियाः शस्त्रपाणिनः ॥ कृषिकर्मकरा वैश्या, शूजाः प्रेषणकारकाः ॥ १७३ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५ अर्थ- वली हे युधिष्टर ! जेयो व्रतधारी होय, तेश्रोने ब्राह्मण जाणवा, जेयो हाथमां हथियार धारण करे, तेने त्रीय जाणवा, तथा जेयो खेतीनुं काम करे, तेोने वैश्य जाणवा, तथा जेश्रो चाकरी करे ने शुद्ध जाणवा ॥ १७३ ॥ ब्रह्मचर्यतपोयुक्ताः, समपाषाणकांचनाः ॥ सर्वभूतदयायुक्ता, ब्राह्मणाः सर्वजातिषु ॥ १७४ ॥ अर्थ-ब्रह्मचर्य तथा तपे करीने युक्त, तथा तुल्य बे पाषाण ने सुवर्ण जेमने एवा, तथा सर्व प्राणीयो प्रते दयावाला एवा, सर्व जातियोमां ब्रह्माणो होय बे. शूरा वीराश्च विक्रांता, बह्वारंजपरिग्रहाः ॥ संग्रामकरणोत्सुकाः, क्षत्रियाः सर्वजातिषु ॥ १७५ ॥ अर्थ- शुरवीर, विकाल, घणा आरंज परिग्रहवाला तथा रणसंग्राममां उत्सुक एवा, सर्व जातियोमां क्षत्रिय होय बे ॥ १७५ ॥ पंमिताः कुलजा दक्षाः कलाकौशलजीविनः ॥ कृषिकर्मकराश्चैव वैश्यास्ते सर्वजातिषु ॥ १७६ ॥ - पंमित, कुलिन, माह्या, कलानां प्रबलथी श्र जीविका चलावनारा, तथा खेती करनारा एवा, सर्व जातियोमां वैश्यो पण होय बे ॥ १७६ ॥ के ब्राह्मणगुणाः प्रोक्ताः, किं तद्ब्राह्मण लक्षणम् ॥ एतदिच्छामि विज्ञातुं तवान् दिशतु मम ॥ १७७ ॥ For Personal and Private Use Only Jain Educationa International > Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५ अर्थ- दवे युधिष्टर पूढे वे के, हे जगवन्! ब्राह्मणोनां गुणो कया कहेला बे ? तथा तेनां ब्रह्मनुं लक्षण शुंबे ? ते जाणवाने हुं हुं हुं ; माटे ते याप बतावो ? ॥ १७७॥ यन्मां पृचसि कौंतेय, ब्राह्मणानां तु लक्षणम् ॥ शृणु तत्कथयामि ते, जनानां हितकाम्यया ।। १७८ ॥ अर्थ- हवे त्यारे जगवान कहे बे के, हे कुंतानां पुत्र युधिष्टर ! जे तुं मने ब्राह्मणोनुं लक्षण पूढे बेते हुं तने लोकोनां हितनी इछाथी कहुं बुं, ते सांजल ? ॥१७८॥ दांत्यादिनिर्गुणैर्युक्तो न्यस्तदको निरामिषः ॥ " सर्वभूतेषु च दया, प्रोक्तं ब्राह्मणलक्षणम् ॥ १७९ ॥ देवनागमनुष्येषु, तिर्यग्योनिगतेषु च ॥ मैथुनं ये न सेवते, चतुर्थ ब्रह्मलक्षणम् ॥ १८० ॥ त्यक्त्वा कुटुंबवासं तु, निर्ममो निःपरिग्रहः ॥ सदा चरति निःसंगः, पंचमं ब्रह्मलक्षणम् ॥ १०१ ॥ पंचलक्षणसंपूर्ण, इद्दशो यो नवेद्रद्विजः ॥ महांतं ब्राह्मणं मन्ये, शेषाः शूद्रा युधिष्टिर ॥ १८२ ॥ अर्थ - क्षमा यादिक गुणोवालो, दंडनी तिने दूर करनारो, मांस क्षण नहीं करनारो, तथा सर्व प्राणीश्रोते दयावालो, देव, नाग, मनुष्य तथा तिर्यंचना जवां पण मैथुन नहीं सेवनारो, तथा कुटुंबनां वासने तजीने, ममता तथा परिग्रह रहित तथा कोनां संग विनां विहार करनारो, एवी रीतनां पांच लक्षणो Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ ब्राह्मणनां जाणवां;एवी रीतनां पाचे लक्षणोथी जे युक्त होय, तेने हे युधिष्टर ! हुं महान ब्राह्मण मानुं हुं, अने तेथी जे उलटी रीतनां, तेयोने हुं शुद्ध मानुं बुं. रक्तजवंत तोयानि, अन्नानि पिशितानि च ॥ रात्रौ जोजनसक्तस्य, ग्रासेन मांसचक्षणम् ॥ १०३ ॥ अर्थ- वली हे युधिष्टर ! रात्रिने विषे पाणी रुधिर सरखां होय बे, तथा अन्न मांससमान होय बे, माटे रात्रिजोजन करनारने मांसमक्षणनुं पाप लागे बे. शुश्रूषणपरा मूर्खा, नीचकर्मोपजीविनः ॥ सदा सर्वकलाहीनाः, शुत्रास्ते सर्वजातिषु ॥ १८४ ॥ अर्थ-चाकरी करनारा, मूर्ख, नीच कार्य करी याजीविका चलावनारा, तथा हमेशां सर्व कलाओथी हीन एवा शुडो पण सर्व जातियोमां होय ते ॥ १८४ ॥ क्रूराश्चंमाश्च पापाश्च परप्रव्यापहारिणः ॥ निर्दयाः सर्वभूतेषु, चांगालाः सर्वजातिषु ॥ १८५ ॥ " अर्थ - क्रूर, जयंकर, पापी, परनुं द्रव्य हरनारा सर्व प्राणी ते निर्दय, एवा चांगलो पण सर्व जाति - श्रोमां होय बे ॥ १८५ ॥ . " येषां जपस्तपः शौचं दातिर्मुक्तिर्दयादमः ॥ तैरायुः वत्स. ब्रह्मस्थानं विधीयते ॥ १०६ ॥ For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७ अर्थ-वली हे वत्स ! जेश्रोने जप, तप, पवित्रता, क्षमा, निष्परिग्रहपएं, दया, तथा इंजियोनुं दमवापणुं होय बे, तेश्रो श्रायुष्यनो दय होते ते मोदमां जाय . ॥ १६ ॥ ज्ञानशुधाः क्रियाशुधाः शीलशुधाश्च ये विजाः॥ षट्कर्मनिरताश्चैव, विजाः पदमनावकाः ॥ १७ ॥ अर्थ-जे ब्राह्मणो ज्ञानथी, क्रियाथी तथा शीलथी शुरु थएला , तथा जेओ खटकर्ममां रक्त , ते ब्रह्मणो पोताना पदनीप्रनावना करनारा बे.॥१७॥ तपः शीलसमायुक्तं, ब्रह्मचर्यदृढव्रतम् ॥ निर्लोनं निर्मलं चैव, अतिथिं जानीतेदृशम् ॥ १७ ॥ अर्थ-तप, शील अने समतावाला, तथा ब्रह्मचर्य रूपी दृढ व्रतवाला, निर्लोनी, अने ममता विनाना, एवा माणसने अतिथि जाणवो. ॥ १ ॥ स्नानोपनोगरहितं, पूजालंकारवर्जितम् ॥ उग्रतपः शमायुक्त-मतिथिं जानीतेदृशम् ॥ १० ॥ अर्थ-स्नान अने उपजोग विनाना, पूजा श्रने श्राजूषणे करीने रहित, उग्र तपवाला, तथा समतावाला, एवा मोणसने पण अतिथि जाणवो. ॥१॥ हिरण्ये रत्नपुंजे च, धनधान्ये तथैव च ॥ अतिथिं तं विजानीया-धस्य लोलो न विद्यते ॥ १० ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ अर्थ-सुवर्ण, रत्ननो समूह, धन तथा धान्यमां जेने लोन होतो नथी, तेने पण अतिथि जाणवो.१ए। तिथिपर्वोत्सवाः सर्वे, त्यक्ता येन महात्मना ॥ अतिथि तं विजानीया-वेष मन्यागतं विदुः॥ ११ ॥ अर्थ-तिथि, पर्व अने सर्व उत्सवो, जे महात्माए तजेलां , तेने अतिथि जाणवो, अने बीजाने तो परोणो जाणवो. ॥ ११ ॥ यदा नु कुरुते पापं, सर्वभूतेषु दारुणम् ॥ कर्मणा मनसा वाचा, ब्रह्म संपद्यते तदा ॥ १ए॥ अर्थ-ज्यारे सर्व प्राणीयो प्रते, मन, वचन अने कायाश्री जयंकर पाप करवामां श्रावतुं नथी, त्यारे ब्रा उत्पन्न थाय . ॥ १५ ॥ यदा सर्व परित्यज्य, निःसगो निःपरिग्रहः ॥ निश्चिंतश्चचरे धर्म ब्रह्म संपद्यते तदा ॥ १३ ॥ अर्थ-ज्यारे सर्व तजीने, संग रहित, तथा परिग्रह रहित थयो थको, निश्चिंत श्रश्ने प्राणी धर्मने आचरे, त्यारे ब्रह्म उत्उन्न थाय बे. ॥ १९३ ॥ जीवां मधु उष्टं च, म्लेडोबिष्टं न संशयः॥ वर्जनीयं सदा विप्रैः परलोकानिकांदिनिः॥ १४ ॥ अर्थ-जीवनां इंमांवावें, तथा महाअष्ट, एवं मध खरेखर म्लेडोथी एवं थएबुं जाणवू, माटे परलोकनां अर्थी एवा ब्राह्मणोए तेनो हमेशां त्याग करवो॥१४॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ეს यो ददाति मधुश्रा, मोहितो धर्म लिप्सया || स याति नरकं घोरं, खादकैः सह लंपटैः ॥ १९५ ॥ * अर्थः- जे माणस मोहित थयो थको, धर्मनी इहाथी श्राद्धमां मधनुं दान च्यापे बे, ते लंपट एवा खानारा सहित जयंकर नरकमां जाय बे. ॥ १०५ ॥ मेदमूत्रपुरीषाद्यै, रसाद्यैर्विधृतं मधु ॥ बर्दिला मुखश्रावै, रजदयं ब्राह्मणैर्मधु ॥ १०६ ॥ अर्थः- चरबी, मूत्र, तथा विष्टा यदिकनां रसथी मेलवेलुं तथा माखोनां मुखथी करेलुं एवं मध ब्राह्मणोए जक्षण करवुं नहीं. ॥ १०६ ॥ नीलिकां वापयेद्यस्तु मूलकं जयेत्तु यः ॥ न तस्य नरकोत्तारो, यावच्चंद्रदिवाकरौ ॥ १७ ॥ अर्थ - जे माणस गली वावे बे तथा कंदमूलनुं जक्षण करे बे, ते माणस चंद्रसूर्यनी स्थिति सुधि पण नरकथी निकली शकतो नयी. ॥ १०७ ॥ " वरं मुक्तं पुत्रमांस, नतु मूलकनक्षम् ॥ जक्षणान्नरकं गच्छेद्, वर्जनात्स्वर्गमाप्नुयात् ॥ १५८ ॥ अर्थ- हे युधिष्टर !! पुत्रनुं मांस खावुं सारुं, पण कंदमूलनुं जक्षण करवुं नहीं; केमके, कंदमूलनां जकथी नरकमां जवाय, अने तेनां त्यागथी स्वर्गमां जवाय बे ॥ १५८ ॥ · ४ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यस्मिन् गृहे ध्रुवं कंद-मूलकः पच्यते जनैः॥ श्मशानतुट्यं तपेश्म, पितृभिः परिवर्जितम् ॥ १५ ॥ अर्थ-जे घरमा माणसो कंदमूल पकावे बे, ते घरने स्मशान सरखं जाणवू, अने तेवू घर पितृोश्री पण वर्जाएबुं होय . ॥ १एए ॥ यस्तु वृंताककालिंग-तलकालांबुलदकः अंतकाले स मूढात्मा, नरकंगो युधिष्टिर ॥ २०० ॥ अर्थः-जे माणस वैताक (रौंगणां) कालिंग,तल, अने कालांबुने नदण करनारो बे, ते मूढ माणस, हे युधिष्टर! अंतकाले नरकमां गमन करे . ॥२०॥ इत्याचार्य श्री जयशेखरसूरिणोद्धृतो धर्म सर्वस्वाधिकारः समाप्तः Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जिनाय नमः | कस्तूरी प्रकरणम् । ( कर्ता श्री हेमविजयगणि ) कस्तुरीप्रकरः कृपाकमलहग्गलस्थले षट्पदप्रातः सातसरोजसुंदररसे खड्गः स्मरध्वंसने ॥ कल्याणडुमसेचने घनचयो लावण्यवल्ल्यंकुरः । केशानां निचयः पुनातु जुवनं श्रीनानिसूनोर्लसन् ॥ १ ॥ अर्थ- दयारूपी कमललोचनीना (स्त्रीना) गालपर कस्तूरिना समूह सरखो, सुखरूपी कमलना सुंदर रसप्रते चमरोना समूह तुल्य, कामदेवनो नाश करवामां खड्ड समान, कल्याणरूपी वृहने सींचवामां वरसादना समूह सरखो, तथा लावण्यरूपी वेलमीना अंकुरा सरखो, एवो श्री शषजदेव प्रजुनो उलसायमान थतो केशोनो समूह जगतने पवित्र करो ? ( प्रजुए दीक्षा लेती वेलाए लोच करतां थकां ईअनी प्रेरणाथी जे केशो बाकी रहेवा दीधा दता, तेनी अपेक्षाथी कविनी था उत्प्रेक्षा बे, ) ॥ १ ॥ वाग्देवीवर वित्त वित्तपतयः कारुण्यपण्यापण - प्राविण्यप्रासिताः प्रसत्तिपटवस्ते संतु संतो मयि ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ आमोदः सरसीरुहामिव मरुत्पूरैः प्रथां प्राप्यते । वाचां विश्वसासु यैर्जमजुवामप्युल्लसनिर्गुणः ॥ २ ॥ अर्थ- सरस्वती देवीना वरदानरूपी धनथी कुबेर सरखा थएला,तथा दयारूपी करियाणानी दुकान चलाववाने प्रविण थला, एवा संत पुरुषो माराप्रते प्रस न्न श्राशयवाला था ? केमके, जलथी उत्पन्न थतां कमलोनी सुगंधि जगतमां जेम जलसायमान यता पवनना समूहोथी फेलावो पामे बे, तेम ते यानंदितसंत पुरुषोथी मूर्खोनो पण गुण जगतमा फेलावो पामे बे. तब्धिसुता च दृशोः सतां । वसति चेतसि निश्चय एष नः ॥ विबुधता पुरुषोत्तमतापि यत् । स्थितिमुपैति नरे तदूरीकृते ॥ ३ ॥ अर्थः- मारो एवो निश्चय बे के, संत पुरुषोनी दृष्टिमां अमृत रहेतुं बे, तथा तेमना मनमां लक्ष्मी रहेली बे; केमके, तेनी समीप रहेवाथी माणसमां पंतिपएं ( देवपणुं ) तथा पुरुषोत्तमपणुं (श्रीकृष्णपशुं ) स्थितिने पामे बे. ॥ ३ ॥ सौरच्या दिवसून मोदनमिवस्वादप्रसादादिह । स्निग्धत्वादिव गोरसं पिकयुवा सोत्कंठकंवादिव ॥ वाजिरा जि ? जवादिवौषधरसो दुर्व्याधिरोधादिव । . श्लाघामेति जनो जनेषु नितरां पुण्यप्रभावोदयात् ॥ ४ ॥ For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३ अर्थ-पुष्प जेम सुंगधिथी, नात जेम स्वादिष्टपणाथी,गोरस जेम स्निग्धपणाथी,(चिकासथी) कोयल जेम मधुर कंथी, अश्वनी श्रेणी जेम वेगथी,तथा औषधिरस जेम कुष्ट रोगना नाशथी प्रशंसाने पामे बे, तेम आ जगतमां माणस पण पुण्य प्रनावना उ. दयथी मनुष्योमा प्रशंसा पामे .॥४॥ तोयैरेव पयोमुचां नवति यन्नीरंध्रनीरं सरः। पादैरेव ननोमणेनवति यलोकः सदालोकवान् ॥ तैलैरेव नवेदनंगुरतरज्योतिर्मणिः सद्मनः। पुण्यैरेव नवेदलंगविनवज्राजिष्णुरात्मात्र तत् ॥ ५॥ अर्थ-जेम वरसादना पाणीउथीज तलाव संपूर्ण पाणीवालु थाय , तथा सूर्यना किरणोथीज जेम श्रा जगत् हमेशां प्रकाशित थाय बे, अने तेलथीज जेम दीपक घरप्रते अखंम कांतिथी देदीप्यमान थाय , तेम था जगतमा आत्मा पण पुण्योथीज अन्नंग वैनवथी शोजनिक थाय बे. ॥५॥ न बहुधर्मविनिर्मितिकर्मठे। मनुजजन्मनि यैः सुकृतं कृतम् ॥ गृहमुपेयुषि तैरधनैः स्थितं । त्रिदशशाखिनि वांछितदायिनि ॥६॥ अर्थ-बहु धर्म करवामाटे योग्य, एवो (आ) मनुष्य जन्म पामीने पण जेए सुकृत कार्य नथी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्यु,तेए वांबित अर्थ थापनार एवं कल्पवृक्ष पोताने घेर प्राप्त थया बतां पण निर्धन रहेवा जेवू कर्युबे.॥६॥ नोज्ये निर्जरराजनोज्यमधुरे हालाहलोऽक्षेपि तैपुग्धे स्निग्धरसे रसेन निदधे तैरालनालं जलम् ॥ दिप्तोच्चैः शिशिरे च चंदनरसे तै रात्मगुप्ता जमैWधर्मेऽनवधानता प्रविदधे स्वर्गापवर्गप्रदे ॥ ७ ॥ अर्थ-जे माणसे वर्ग अने मोक्ष देनारा एवा धर्ममा प्रमाद करेलो , तेजेए (खरेखर) इन्धने जमवा लायक एवा मधुर जोजनमा फेर नांख्युं , अने स्निग्ध रसवाला दूधमां स्वादनी श्वाथी हरताल- पाणी रेड्यु. डे, तथा ते मूर्योए ठंमा चंदनरसमां ऊंचे प्रकारे कौंचनुं फल नांखेबुं बे. ॥७॥ सालं स्वर्गसदां दिनत्ति समिधे चूर्णय चिंतामाणि । वह्नौ प्रदिपति क्षिणोति तरणीमेकस्य शंकोः कृते ॥ दत्ते देवगवीं स गर्दनवधूग्राहाय गर्दागृहं। यः संसारसुखाय सूत्रितशिवं धर्म पुमानुन्छति ॥ ७॥ अर्थ-जे निंदवायोग्य पुरुष आ संसारसुखमाटे मोद आपनार धर्मने तजी दे , ते पुरुष (बलतणनां) लाकमांमाटे कल्पवृदने बेदे बे, (थोमा) चुनामाटे १" क्रौंच" एटले वनमा वालोरनां आकारनुं थतुं फल, जेनो स्पर्श करवाथी शरीरमा अत्यंत वारालुंड (खरज) थाय ने. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५ चिंतामणि रत्नने अग्निमां नाखे बे, एक खीलामाटे होमीने फोमी नांखे , तथा गधेडी सेवा माटे कामधेनुने श्रापी दे . ॥७॥ नूयांसः प्रमदाकटाक्षविशिखैर्विधाः स्मरासंगिनः। . संत्येके च सहस्रशः श्रितधनाः सदोजलोनाकुलाः॥ एतद्दाननिदानमत्र सुकृतं मत्वा सृजति त्रिधा। येऽत्यर्थ पुरुषार्थमन्यमनिशं ते केऽप्यनरपेतराः॥ ए॥ अर्थ-(श्रा जगतमां) युवान स्त्रीउनां कटाकोरुपी बाणोथी विधाएला, अने काममां (स्पर्शेजियना विषयमां) आसक्त थएला घणा माणसो बे, तेम दोन सहित लोजमां आकुल थएला पण हजारोमाणसो बे. पण ते बन्नेनो (काम अने धननुं) कारणनूत "धर्म" बे, एवं जाणीने जे माणसो (मन, वचन अने कायाथी) ते धर्म नामना पुरुषार्थने हमेशां सेवे डे, एवा तो विरलाज होय . ॥ ए॥ मणिरिव रजःपुंजे कुंजे वनेचरगह्वरे । पुरमिव तरुबायानन्बामराविव निस्तरौ ॥ जमिमकुसुमारामे ग्रामे सनेव वचस्विनां । कथमपि नवे क्लेशावेशे मतिः शुचिराप्यते ॥ १० ॥ अर्थ-धूलिना ढगलामांजेम मणि, वनवासी प्राणी उथी नयंकर बनेला कुंजमां (काडीमां) जेम नगर, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ वृक्षविनाना मारवाड देशमां जेम वृनी घाटी बाया, तथा मूर्खाइरुपी पुष्पोने उत्पन्न करवामां बगीचा सरखा गांममामां जेम विद्वानोनी सजा दुर्लन बे, तेम क्लेशना यावेशरूप एवा या संसारमां (प्राणीने) शुद्ध बुद्धि पण दुर्लन बे. ॥ १० ॥ हवे या प्रकरणं द्वारकाव्य कहे बे. दानाद्यं सुकृतं कषायविजयं पूजां च पित्रोर्गुरोदेवानां विनयं नयं पिशुनतात्यागं सतां संगतिम् ॥ बुद्धिं व्यसनहतीदियमाऽहिंसादिधर्मान् गुणान् ॥ वैराग्यं च विदग्धतां च कुरु चेनोक्तुं विमुक्तिं मनः ॥ ११ ॥ अर्थ- हे प्राणी! जो मोदसुख जोगववानुं तारुं मन होय तो दानादिक पुण्यनां कार्य, कषायोनो जय, भातपिता, गुरु ने देवनी पूजा, विनय, न्याय, चुगली नो त्याग, उत्तम माणसोनी सोबत, हृदयनी शुद्धता, (साते) व्यसनोनो त्याग, इंडिने दमवापणुं, दयादिक धर्म, गुणो, वैराग्य तथा चतुराईने तुं धारण कर ? ॥११॥ तेोमांथी प्रथम हवे दानप्रक्रम कड़े बे. ख्यातिं पुष्यति कौमुदी मित्र शशी सूते च पूतात्मतामुद्योतं तिमानिवावति सुखं तोयं तमित्वानिव ॥ चातुर्य च चिनोति यौवनवयः सौभाग्यशोनामिवक्षेत्रे बीजमिवानघे विनिहितं पात्रे धनं धीधनैः ॥ १२ ॥ For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७ अर्थ- बुद्धिरुपी धनवाला माणसोए उत्तम क्षेत्रमां वावेलां वीजनी पेठे पवित्र सुपात्रप्रतेदी धेनुं दान, चंद्र जेम चांदनी ने तेम कीर्तिने पोषे बे, सूर्य जेम उद्योतने तेम पवित्र आत्मपणाने उत्पन्न करे बे, वरसाद जेम पाणीने तेम सुखने आपे बे, तथा यौवनवय जेम सौजाग्यनी शोजाने तेम चतुराइने एकठी करे बे. ॥१२॥ ये शीलं परिशीलयंति ललितं ते संति नूयस्तरास्तप्यते ननु ये सुस्तर तपस्ते संति चानेकशः ॥ ते संति प्रचुराश्च जासुरतरं ये जावमाविते । ये दानं वितरंति जूरि करिवत्ते केचिदेवावनौ ॥ १३ ॥ अर्थ - जे मनोहर शीलने पाले बे, तेवा या पृथ्वीमां घणाने बे, तथा जे याकरा तपने तपे बे, तेवाओ पण अनेक बे, तेम जे देदीप्यमान जावने धारण करे बे, तेवा पण घणा बे, पण जेठे हाथीनी पेठे घं दान (मद) पेबे, तेवा तो विरलाज होय. बे ॥१३॥ संजातात्मज संवादिव महादेवी प्रसादादिव । प्रातैश्वर्यपदादिव स्थिरतर श्री जोगयोगादिव ॥ लब्धस्वर्णरसायनादिव सदा संगादिव प्रेयसां । देहीत्यक्षरयोः श्रुतेरपित्नवेदातावदाताननः ॥ १४ ॥ अर्थ - दातर माणस "देही” (मने खापो ?) एवी रीतना ( याचकना ) बे अक्षरो सांजलवाथी पण जाणे For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एज (घेर) पुत्रनो जन्म थयो होय नहीं, जेम महा देवीनो प्रसाद मल्योहोय नहीं, जेम ऐश्वर्यपदवी मली होय नहीं, जेम स्थिर लक्ष्मीना नोगनो योग मट्यो होय नहीं, जेम सुवर्णरसायन मट्युं होय नहीं, तथा जेम वहालांोनो मेलाप थयो होय नहीं, तेम ते प्रफुल्लित मुखवालो थाय बे.॥ १४ ॥ धैर्य धावतु दूरतः प्रविशतु ध्यानं च धूमध्वजे । शौर्य जर्जरतां प्रयातु पटुता पुष्टाटवीं टीकताम् । रूपं कूपमुपैतु मूर्खतु मतिभ्रंशोऽपि विध्वंसतां । त्यागस्तिष्ठतु येन सर्वमचिरात्प्रापुर्नवेदप्यसत् ॥ १५ ॥ अर्थ-धीरजता जले घर जा? ध्यान जलेअग्निमां पमो? शूरता जले जर्जरित यायो ? चतुरा जले जयंकर जंगलां चाली जाउँ ? रूप नले कुवामां जय पमो ? मति जले मूर्ग पामो? वंश जले नाश पामो ? पण फक्त एक "दान” रहो? के जे दानथी अबता एवा पण सर्व पदार्थो तुरत प्रगट थाय बे. ॥१५॥ काव्यं काव्यकलाकलापकुशलान् गीतं च गीतप्रियान् । स्मेरादी स्मरघस्मरातिविधुरान् वार्ता च वार्तारतान् ॥ चातुर्य च चिरं विचारचतुरांस्तृमोति दानं पुनः।। सर्वेन्योऽप्यधिकं जगंति युगपत्प्रीणाति यस्त्रियपि ॥ १६॥ अर्थ-काव्यनी कलाना समूहमा कुशल थएलाउने काव्य खुशी करे बे, गीत जेउँने प्रिय बे,तेवाउने गीत Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एए खुशी करे बे, कामदेवना तापनी पीमाथी व्याकुल थएलाओने प्रफुड़ित लोचनवाली स्त्री खुशी करेडे, कथाना रसीश्राोने कथा खुशी करे बे, विचारवंत माणसोने चतुराई खुशी करे , पण ते सर्वथी दान अधिक बे, केमके, ते एकीज वखते त्रणे जगतने पण खुशी करे . ॥१६॥ हवे शीलप्रक्रम कहे जे. शीलादेव नवंति मानवमरुत्संपत्तयः पत्तयः। शीलादेव नुवि मंति शशनृविस्फुर्तयः कीर्तयः ॥ शीलादेव पतंति पादपुरतः सन्चक्तयः शक्तयः। शीलादेव पुनंति पाणिपुटकं सर्वध्यः सिघ्यः ॥ १७ ॥ अर्थ-शीलथीज मनुष्य तथा देवसंबंधिनी संपदाउँ तथा चाकरो विगेरे मले , तेम शीलथीज चंड सरखी स्फुरायमान कीर्ति पृथ्वीमा फेलाय , वली शीलथीज सर्व उत्तम शक्ति श्रावीने पगे पडे , तेम शीलथीजसघली कि अने सिकि हस्तपुटने पवित्र करे जे; (अर्थात् हाथमां आवे बे.)॥१७॥ वाबन्यं वितनोति यति यशः पुष्णाति पुण्यप्रथां । सौंदर्य सृजति प्रत्नां प्रश्रयति श्रेयःश्रियं सिंचति ॥ प्रीणाति प्रजुतां धिनोति च धृति सूते सुरोकःस्थितिं । कैवल्यं सरसाकरोति शुजगं शीलं नृणां शीलितम् ॥१०॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ-सारी रीते पालेबु शील माणसोना प्रेमने विस्तारे बे, यशने आपे बे, पवित्र कीर्तिने पुष्ट करे बे, सुंदरता उत्पन्न करे , कांतिने फेलावे बे, कट्याणनी शोनाने सिंचे बे, ऐश्चर्यपणुं आपे बे, धैर्यताने आपे , देवलोकनी स्थिति उत्पन्न करे , तथा केवलज्ञानने तो हाथोहाथ आपे बे. ॥ १७॥ तावघ्यालबलं च केसरिकुलं तावत्क्रुधा व्याकुलंतावनोगिनयं जलं च जलधेस्तावद्भषं नीषणम् ॥ तावच्चामयचौरबंधरणनीस्ताववसंत्यग्नयो।। यावन्नति जगजयी हृदि महाजू श्री शीलमंत्राधिपः ॥१५॥ अर्थ-जगतने पण जीतनारो एवो शीलरुपी महान मंत्रराज ज्यांसुधी हृदयमां श्राव्यो नथी, त्यांसुधीज (मदोन्मत्त) हाथीनो,क्रोधातुर केसरीसिंहनो,सर्पनो, समुना पाणीनो,रोगनो,चोरनो,बंधननो, रणसंग्रामनो तथा अग्निनो जय (प्राणीश्रोने) होय . ॥१९॥ न्यस्ता तेन कुलप्रशस्तिरमला शीतयुतेर्ममले ब्राम्यंस्तेन नलस्वतां सहचरश्चक्रे स्वकीर्तेर्जरः तेनालेखि निजानिधानमनघं बिंबे च रोचिष्मतः कामं कामितकामकामकलशं यः शीलमासेवते ॥ २० ॥ अर्थ-इनित अर्थने देवामां कामकुंन सरशील जे माणसे सारीरीते सेवेढुंबे,तेणे पोताता कुलनी निर्मल Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रशस्ति (प्रशंसापत्र) चंप्रमंमलमा दाखल करेली . तथा तेणे पोतानी कीर्तिना समूहने वायुनो सोबती करीने फेलातो को जे; तेम तेणे पोतानुं निर्मल नाम सूर्यना बिंबमां लख्यु के एम जाणवू. ॥२०॥ न स्वलॊज्यमिव त्यजति वदनात् स्वोषितस्तद्यशो। नवोति तदंहिरेणुममरा मौलेश्च मालामिव ॥ सिध्यानमिवोघहंति हृदये तन्नाम योगीश्वराः। शीलालंकृतिमंगसंगतिमतीं ये जंतवः कुर्वते ॥२१॥ अर्थ-जे प्राणीओ शीलरुपी बाजूषणने अंगपर धारण करे , तेना यशने देवांगनायो दिव्य नोजननी पेठे पोतानां मुखथी तजतीज नथी,तथा तेना चरणनी रजने देवो मुकुटनी मालानी पेठे तजताज नश्री, तेम तेना नामने योगीश्वरो सिझना ध्याननी पेठे हृदयमा धारण करे बे. ॥१॥ हवे तपप्रक्रम कहे बे. नो नूयाज्ज्वलनैर्विना रसबतीपाको यथा कहिँचित् । संजायेत यथा विना मृमृदां पिंम न कुंनः क्वचित् ।। तंतूनां निचयादिना सुवसनं न स्याद्यया जातुचिनोत्पद्येत विनोत्कटेन तपसा नाशस्तश्रा कर्मणाम् ॥ २॥ अर्थ-जेम अग्निविना रसोश्नोपाक को पण वखते थतो नथी, तथा जेम कोमल माटीना पिंड विना को १ मानपत्र. - Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पण समये कुंन बनी शकतो नथी, अने (सूतरना) तांतणाओना समूह विना जेम को पण वेलाए उत्तम वस्त्र बनी शकतुं नथी, तेम आकरा तप विना कर्मोनो नाश पण थक्ष शकतो नथी. ॥॥ कुशलकमलसूरं शीलसालांबुपुरं । विषयविहगपाशं क्वेशवजीहुताशम् ॥ मदनमुखपिधानं स्वर्गमार्गेकयानं । कुरुत शिवनिदानं सत्तपोनिर्निदानम् ॥ २३ ॥ अर्थ-दे प्राणी ! कुशलरुपी कमलने (विकस्वर करवामां) सूर्य सरखो,शीलरुपी वृदने (वधारवामां) पाणीना समूह सरखो, विषयरुपी पदिने ( पकावामां) पाशसरखो, केशरूपी वेलडीने (बालवामां) अग्नि सरखो, कामदेवना मुखने ठादित करनारो, स्वर्गमार्गे (जवामां ) वाहनसरखो, तथा मोदना कारणरूप एवो तप तमो नियाणा रहित करो? ॥२३॥ मार्ग मनोरममपास्य यथालिलाषमदाधिपेषु विचरत्सु तपः सृणिः स्यात् ॥ तत्तद्दमाय महनीयपदप्रदाय । तस्मिन् यतध्वमपहाय रसेषु मूर्नाम् ॥ २४ ॥ अर्थ-ज्यारे इंजिउरुपी हाथी मनोहर (सरल) मार्ग तजीने स्वेछाचारी थया थका चाले बे, त्यारे तेयोने (वश करवाने) “तप” , ते अंकुशरूप थाय Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३ माटे मोक्षपद देनारा एवा ते इंडिजना दमन माटे, रोमां मूर्छा तजीने, ते तपने विषे यत्न करो ? ॥१४॥ नार्यो युवानमिव वार्धिमिवाधिपत्न्यो । विद्या विनीतमिव जानुमिवांशवश्च ॥ वस्ह्यः क्षमारुहमिवेंषुमिवोरुवश्च । सलब्धयः समुपयति तपश्चरंतम् ॥ २५ ॥ अर्थ-युवान पुरुषोते जेम स्त्रीयो, समुद्रप्रते जेम नदीयो, विनयवंत प्रते जेम विद्या, सूर्यप्रते जेम किरणो, वृक्षप्रते जेम वेलडोथो, तथा चंद्रप्रते जेम तारांथो, तेम तपसा करता माणसने उत्तम लब्धि प्राप्त थाय बे ॥ २५ ॥ कारैरिवांबरमपां प्रकरैरिवांगं । शाणैरिवास्त्रमनसैरिव जातरूपम् ॥ नूर्मार्जनैरिव च नेत्रमिवांजनैश्च नैर्मस्यमावहति तीव्रतपोनिरात्मा ॥ २६ ॥ अर्थ - खाराथी जेम वस्त्र, पाणीना समूहथी जेम अंग, सराणाथी जेम शस्त्र, अग्निश्री जेम सुवर्ण, मार्जनथी जेम जमीन, तथा अंजनथी जेम नेत्र, तेम तीव्र तपथी आत्मा निर्मल थाय बे. ॥ २६ ॥ हवे जावप्रक्रम कड़े बे. दत्ते येन विना घनेऽपि हि धने स्यादुस्सहस्तद्व्ययश्री येन विनाजिकामविमले शीले च जोगक्षयः ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ तप्ते येन विना च दुस्तरतपः स्तोमे च काइर्योदयः ॥ कार्यस्तत्फल मिनिः शुनतरे जावेऽत्र जव्यैर्लयः ॥ २७ ॥ अर्थ- जे जावविना घणा धननुं दान देवार्थी पण ते दुःखे सहन थाय एवो (फोकट ) खरचज बे, तथा जे जावविना इति धने निर्मल एवं शील पालवाथी पण ( केवल ) जोगोनोज काय बे, तथा जे जावविना करा तपनो समूह करवायी पण ( केवल ) कृशतानोज उदय बे, माटे एवी रीतना अत्यंत शुभ जावमां, ते ते कार्योना फलनी इछावाला जव्य लोकोए आसक्तपणुं करवुं ॥ २७ ॥ श्रीहनिं ददतामुपैति दधतां शीलं च जोगक्ष्यः । संक्लेशः सृजतां तपश्च पठतां कंठे जवेत् कुंवता ॥ पूज्यानां नमतां च मानमथनं दुःखं वृतं विज्रतां । मत्वैवं न कथं करोषि सुकरे जावे मनस्विन् मनः ॥ २८ ॥ अर्थ- दान देवाथी लक्ष्मीनी हानि थाय बे शील पालवाथी जोगोनो दय थाय बे, तप करवाथी क्लेश थाय बे, जणवाथी कंठशोष थाय बे, पूज्योने नमवाथी माननी हानि थाय बे, तथा वृत धारण करवायी दुःख याय बे, एवं मानीने पण हे मनस्वी ! (बुद्धिवान् !) तुं उत्तम जावमां मनने केम जोमतो नथी ? ॥ २८ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५ नीरेणेव सरः सरोरुहमिवामोदेन सीतांशुना । तुंगीवाम्बुज बंधुनेव दिवसः कुंजीव दानांम्बुना ॥ पुत्रेणेव कुलं कुरंगनयना चर्चेव धत्ते श्रियं । जावेन प्रचुरापि पुण्यपटुता प्रोल्लासमीता क्रिया ॥ २५ ॥ अर्थ- जलथी जेम सरोवर, सुगंधिथी जेम कमल, चंद्रथी जेम रात्रि, सूर्यथी जेम दिवस, मदश्री जेम हाथी, पुत्रथी जेम कुल, तथा जर्तारथी जेम स्त्री शोजाने धारण करे बे, तेम, घणी एवी पण किया जा वथी पुण्यनी पटुताना प्रोल्लासने पामे बे. ॥ २५ ॥ कैश्विद्दाममदायि शीलममलं चापालि कैश्चित्तपः । कष्टं कैश्चिदधाय्यकारि विपिने कैश्चिन्निवासोऽनिशम् ॥ कैश्चियानमधारि कैश्चिदनघश्चापूजि देववजो । यत्तेषां फलमापि चापरनरैस्तनाव विस्फुर्जितम् ॥ ३० ॥ अर्थः- केटलाकोए दान दीधुं, केटलाकोए निर्मल शील पाल्युं, केटलाकोए तपनुं कष्ट सहन कर्यु, केटलाकोए हमेशां वनमां निवास कर्यो, केटलाकोए ध्यान धर्यु, तथा केटलाकोए निर्मल देवसमूहने पूज्यो, पण ते सवलानुं फल तो वीजा ने मल्युं; माटे तेमां जावनुं प्राबल्य जाणवुं ॥ ३० ॥ सिद्धांजनं जनितयोगिजनप्रजावं । जावं वदति विदुषां निवहा नवीनम् ॥ १" निशीथिनी निशा निट्च, श्यामा तुंगी तमा तमी " इति नामनिधानम् Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ सियो जवेन्मनसि संनिहिते यदस्मिन् ॥ पश्यन् जगति मनुजो जगतामदृश्यः ॥ ३१ ॥ अर्थ-उत्पन्न करेल वे योगीजनो प्रते प्रजाव जेणे, एवा जावने, पंकितोना समूहो नवीन प्रकारनुं (यश्चर्यकारक ) सिद्धांजन कहे बे; केमके ते जावरूपी सिद्धांजनने मनमां धारण करवाथी मनुष्य सिद्ध थइ जगतोने जोतो थको ( पोते तो जगतोने अदृश्य थाय बे. ३१ ed starम कहे बे. स्कंधो युद्धमहीरुहस्य कुमतेः सौधी निबंधों हसां । योधो कुर्नयनूपतेः कृतकृपारोधोऽप्रबोधो हृदाम् ॥ व्याधो धर्ममृगे वधो धृतिधियां गंधो विपक्षीरुधामंधो दुर्गतिपद्धतौ समुचितः क्रोधो विहातुं सताम् ॥ ३२ ॥ अर्थः- युद्धरूपी वृक्षना घडसरखो, डुर्बुद्धिना मेहेल सरखो, पापोना कारण सरखो, अन्यायरूपी राजाना योद्धा सरखो, दयाने रोकनारो, हृदयने नहीं प्रबोध करनारो, धर्मरूपी हरिणने मारवामां पाराधि सरखो, धैर्याने बुद्धिनो नाश करनारो, श्रापदारूपी वृक्षोनी १ साधारण अंजन तो मां धारण कराय बे, पण आ जावरूपी अंजनने तो हृदयमां धारण करवाथी अदृश्य रहीने जगतने जोवाय वे माटे ते आश्चर्यकारक सिद्धांजन बे. For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७ गंध सरखो,तथा पुर्गतिमां पामवाने अंध सरखो,एवो क्रोध उत्तम माणसोने तजवो लायक . ॥ ३ ॥ वायुर्यथा जलमुचां समिधां यथाग्निः। सिंहो यथा करटिनां तमसां यथार्कः॥ हस्ती यथावनिरुहां पयसां यथोष्णः। शक्तस्तथा प्रशमनाय शमो रुषाणाम् ॥ ३३ ॥ अर्थ-मेघनो नाश करवामां जेम वायु, काष्टोनो नाश करवामां जेम अग्नि, हाथीओनो नाश करवामां जेम सिंह, अंधकारनो नाश करवामां जेम सूर्य, वृदोनो नाश करवामा जेम हाथी, तथा जलोनो नाश करवामां जेम उनालो समर्थ डे, तेम क्रोधने नाश करवामां समता समर्थ बे. ॥३३॥ तपःपूरं पायोमुचमिव मरुत्संहरति यः। कृपाकेलिं मुस्तांकुर मिव वराहः खनति यः॥ सुहन्नावं नाशं हिममिव पयो नयति यः। स कोपः साटोपः प्रविशति सतां चेतसि किमु ॥३४॥ अर्थः-पवन जेम वरसादने,तेम जे कोप तपनासमूहने हरे ,तथा मुकर जेम *मुस्तना (मोथना)अंकु. राने तेम जे दयानी क्रीमाने उखेमी नाखे , तथा बरफ जेम कमलनेतेम जे मित्राश्नो नाश करे , एवो * “ कुरुविंदो मेघनामा, मुस्ता मुस्तकमस्त्रियाम्” इत्यमरः Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज श्राटोप सहित कोप,शुंसजनोनां चित्तमा प्रवेश करी शके ले ? (अर्थात् ते प्रवेश करी शकतो नथी.) ॥३॥ ते धन्या अभिवंदनीयमिह तत्पादारविंदघयं । ते पात्रं सकलश्रियां जगति तत्कीर्तिनरीनति च ॥ तन्माहात्म्यमसंनिन्नं सुरनरा सर्वेऽपि तत्किंकरा । ये कोपधिपसिंहशावसदृशं स्वांते शमं बिज्रति ॥ ३५ ॥ अर्थ-जे माणसो क्रोधरूपी हाथीने (हणवामां) सिंहना बच्चा सरखी समताने मनमां धारण करे ,तेउने धन्य ! तथा था जगतमां तेना बन्ने चरणकमलो वंदन करवालायक बे; वली ते सघली लक्ष्मीश्रोना पात्र बे, तथा तेनी कीर्ति श्रा जगतमा नाच्या करे बे; वली तेनुं माहात्म्य अतुल्य , तथा सघला देवो अने मनुष्यो तेना चाकरो थश्ने रहे ॥३५॥ वनवन्हिर्नवः कोऽपि, कोपरुपः प्ररूपितः॥ आंतरं यस्तपोवित्तं, जस्मसात्कुरुते दणात् ॥ ३६॥ अर्थ-क्रोधरूपी दावानल तो कोश्क नवीन प्रकारनोज(आश्चर्यकारक)जणाएलो , केमके जे अंतरंग तपरूप धनने (पण) क्षणवारमा बालीने नश्म करे हवे मानप्रक्रम कहे बे. जात्यैश्वर्यबलश्रुतान्वयतपोरुपोपलब्धिश्रितं । गर्व सर्वगुणैकपर्वतपविं मात्मन् कृथाः सर्वथा ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ संग त यत्र यत्र यदसौ तत्तद्विनाशास्पदं । प्रेत्य प्राणतो जवत्यनिमतप्राप्तिप्रहीणाः क्षणात् ॥ ३७ ॥ अर्थ- हे आत्मा ! सर्व गुणोरूपी पर्वतने ( नेदवामां ) वज्ञ सरखा एवा जातिमद, ऐश्वर्यमद, बलमद, ज्ञानमद, कुलमद, तपमद, रूपमद, तथा धनादिकना प्राप्तिमदने तुं सर्वथा प्रकारे श्राचर नहीं? केमके, उपर कहेली जे जे बाबतोमां ते मदनो (अहंकारनो) संग थाय बे, ते ते बाबतो प्राणीउने परजवमां अनिष्ट मले बे. अने एवी रीते पोताने मनोहर लागती एवी प्रातिथी ते कण वारमां रहित थ‍ जाय बे ॥ ३७ ॥ औचित्यचारुचरितांबुजशीतपादं । सत्कर्मकौशलकुचेलकठोरपादम् ॥ संसेव्य सेवनवनद्रुमसामयोनिं । मानं विमुंच सुकृतांबुधिकुंज योनिम् ॥ ३८ ॥ अर्थ - श्रौचित्यतारूप जे मनोहर आचरण, ते रूपी ( सूर्यविकासि ) कमलनो ( नाश करवामां ) चंद्रसरखा, तथा उत्तम कार्यनी कुशलतारूपी ( चंद्र विकासि ) कमलने ( नाश करबामां) सूर्य सरखा, अने याचरवालायक कार्यरूपी वनवृने ( नाश करवामां ) हाथी सरखा, तथा पुण्यरूपी समुद्रने ( शोषवामां ) अगस्ति ऋषि सरखा एवा मानने, हे प्राणी ! तुं तजीदे? १ " प्रेत्यामुत्रनवांतरे ” इत्यमरः For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ go विपदां सद्म गर्वोय-मपूर्वः पर्वतः स्मृतः प्राप्नुवत्युर्द्धमुर्द्धानो, यमारुढा अधोगतिम् ॥ ३९ ॥ अर्थ- आपदाओना स्थानक सरखो, एवो या गर्वरूपी पर्वत तो कोइ विचित्र प्रकारनो (आश्चर्यकारक ) बे, केमके उंचु मस्तक राखीने (अक्कम रहीने) ते पर्वतपर चडेला माणसो (उलटा ) नीची गतिने पामे बे ! दष्टो येन जनो जहाति विनयप्राणान् प्रसिद्धिप्रदान् । यद्दष्टेन विवेकनी तिनयने संमील्य संस्थीयते ॥ यद्दष्टस्य च कीलकीलितमिव स्तब्धं वपुर्जायते । दर्प सर्पमिवातिजिह्मगहनं कस्तं स्पृशेत्कोविदः ॥ ४० ॥ अर्थ- जे अहंकाररूपी सर्पना खवाथी, माणस पोताने कीर्त्ति पनारा विनयरूपी प्राणोने तजे बे, तथा विवेक ने न्यारूपी पोतानी यांखो मीची जाय बे, तथा जेना डंखथी पोतानुं शरीर जाणे खीलामां कीलित यर गयुं होय नहीं तेम थ‍ जाय बे, एवा सर्प सरखा अत्यंत रथी जयंकर थएला अहंकारने कयो पंति माणस स्पर्श करे ? ॥ ४० ॥ हवे मायाप्रक्रम कहे बे. द बका इव विधाय दुराशया ये । मीना निवाखिलजनान् प्रतिवचयंति ॥ तैः सौहृदादमलकीर्तिलतापयोदादात्मा प्रपंचचतुरोऽचतुरैरवंचि ॥ ४१ ॥ For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ-जे उर्बुद्धिो कपट करीने बगलांश्रो जेम मत्स्योने तेम सर्व जनोने उगे , ते मूर्योए निर्मल कीर्तिरूपी लताप्रते वरसाद सरखी मित्राश्थी प्रपंचमां चतुर एवा पोताना आत्माने उग्यो बे. ॥४१॥ मायामिमां कुटिलशीलविहारविज्ञां । मान्यमहे हृदि नुजंगवधूं नवीनाम् ॥ दष्टोऽनया स्मितसरोजसहोदरास्यो । मोहं नयेद्यदितरान्मधुरं ब्रुवाणः ॥४॥ अर्थ-कुटिल शीलना (पुराचारना) विहारमा चतुर एवी मायारूपी सर्पणीने श्रमो हृदयमां विचित्र प्रकारनी (आश्चर्यकारक)मानीए बीए; केमके जेनाथी मंखाएलो माणस विकखर थएला कमल सरखा मुखवालो थयो थको,तथा मीठां मीठां वचनो बोलतोथको (उलटो) बीजाने मोहमा नांखे बे. ॥ ४२ ॥ विधेनं नुजगीव जीविततनुं व्याहंति या देहिनां । या सौहार्दमपाकरोति शुचितां स्पर्शोऽशुचीनामिव ॥ या कौटिल्यकलां कलामिव विधोः पुष्णाति पक्षः सितस्तां निर्मोकमिवोरगः दतगतिं मायां न को मुंचति ॥४३॥ अर्थ-जे माया (कपट) सर्पणी जेम जीवितने, तेम माणसोना विश्वासने हणे ,तथा अशुचि पदाअॅनो स्पर्श जेम पवित्रताने, तेम जे मित्राश्ने पूर करे Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ‍ बे, घने शुक्ल पक्ष जेम चंद्रनी कलाने, तेम जे कुटिलताने ( वकपणाने) पोषे बे, एवी (शुभ) गतिने अटकावनारी मायाने, सर्प जेम ( पोतानी) कांचलीने, तेम कोण बोमतो एथी ? ॥ ४३ ॥ ये कौटिल्यकलाकलाप कुशलास्ते संत्यनेके दितौ । ये हार्यार्जववर्यवीर्यसदनं ते केचिदेव ध्रुवम् ॥ सज्यंते हि पदे पदे फलनरै नम्रा दरिद्रुमाः । संप्रीणन् जुवनानि पेशलफलैरल्पो हि कल्पद्रुमः ॥ ४४ ॥ अर्थ-कपटनी कलाना समूहमां कुशल एवा तो श्रा पृथ्वी मां अनेक लोको बे, पण मनोहरएवी श्रार्जवताना उत्तम वीर्यना स्थानरूप तो विरलाज होय बे; केमके, फलोना समूहोथी नमेला तु वृहो तो पगले पगले म लेबे, पण पोताना उत्तम फलोथी त्रणे जगतोने खुशी करनार कल्पवृक्ष तो अल्प होय बे ॥ ४५ ॥ उमाया इव मायायाः, संपर्क मुंच मुंच रे ॥ ईश्वरोऽपि नरो नूनं, यत्संगादू जीमतां जजेत् ॥ ४५ ॥ अर्थ- हे प्राणी ! पार्वतीनो जेमतेम मायानो संग तुं बोमीज दे ? केमके जेना संगथी ( पदे पार्वतीना संगथी ) ऐश्वर्यवानने पण ( पदे महादेवने पण ) जयंकरपएं ( जीमप) धारण करवुं पडयुंडे. ॥ ४५ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३ हवें लोनप्रक्रम बे. नाशं यो यशसां करोति रजसां व्रातोऽनिलानामिव । त्रासं यो महसां तनोति वयसां पातः शराणामिव ॥ शोनां यो वचसां हिनस्ति पयसां वृष्टिर्घनानामिव । त्यक्त्वाकृत्यकरींऽकुंजशरनं सोनं शुभंयुर्जव ॥ ४६ ॥ अर्थ- जे लोज पवनोनो समूह जेम रजोनो, तेम यशोनो नाश करे बे, तथा बाणोनुं परुवुं जेम जींदगिने, तेम जे ( पोताना) तेजने त्रास आपे बे, तथा मेघनीवृष्टि जेम पाणीने ( मोलुं करे बे.) तेम जे, वचननी शोजाने हो बे, तथा जे करवायोग्य कार्यरूपी हाथीना कुंजस्थलने दवामां सिंहसमान बे, एवा लोजने तजीने हे प्राणी ! तुं कल्याणयुक्त था ? ॥४६॥ किं ध्यानैर्मुखपद्ममुद्रणचणः किं चेंद्रियाणां जयैरुचैस्तपसां पुनः प्रतपनैः किं मेदसां शोषणैः ॥ किं वाचां जनितश्रमैः परिचयैः किं क्लेशयुक्तैर्व्रतैचेल्लोनोऽखिलदोषपोषणपटुर्जागर्ति चित्ते तिनूः ॥ ४७ ॥ हे प्राणी ! सघला दोषोने पोषण करवामां समर्थ तथा दुःखना स्थानकरूप एवो लोग जो चित्तमां जाग तो रह्यो बे, तो पी मुखरूपी कमलने मुद्रित करवामां समर्थ, एवाध्यानथी शुं थवानुं बे ? तेम इंडियाने जीतवाथी पण शुं यवानुं बे ? तेम इछाने रोधनार तथा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only 61 Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरवीने (शरीरना पुष्टपणाने ) शोषनार एवा तपो तपवाथी पण शुं थवानुं ? तेम श्रमयुक्त एवा वचनोना परिचयथी पण शुं थवानुं बे ? तथा क्लेशो युक्त एवा व्रतोश्री पण शुं थवानुं ? ॥४७॥ स स्थैर्यैकनिकेतनं स सुनटश्रेणिषु चूडामणिः । स प्रागहन्यपरानुनावसुलगः स ध्यानधुर्धर्वहः ॥ स श्रेष्ठः स च पुण्यवान् स च शुचिः स श्लाधनीयः सतां । येनागण्यगुणालिवसिकलनो लोनो नृशं स्तंलितः ॥ ४ ॥ अर्थ-असंख्याता गुणोणी श्रेणिरूप वेलमीन( नाश करवामां ) हाथी सरखा, एवा लोजने जे माणसे विशेषे करीने अटकाव्यो बे, ते माणस स्थिरताना एक स्थानकरूप बे, ते सुनटोनी पंक्तिमां अग्रेसर बे, मोटाश्ना उत्कृष्ट नावथी मनोहर थएलो डे, ध्याननी धोंसरीने धारण करवामां समर्थ डे, पुण्यवान अने पवित्र , तथा ते उत्तम माणसोने प्रशंसा करवा लायक जे. मैत्री विमुंचति सुहृधिनयं विनेयः। सेवां च सेवकजनः प्रणयं च पुत्रः ॥ नीतिं नृपो व्रतमृषिश्च तपस्तपस्वी । लोलाजिनूतहृदयः कुलजोऽपि लजाम् ॥ ४ए॥ अर्थ-लोनथी पराजव पामेलु डे हृदय जेनुं एवो मित्र मित्राश्ने तजे , शिष्य विनयने तजे , चाकर Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ सेवाने तजे बे, पुत्र नम्रताने तजे बे, राजा नीतिने तजे बे, मुनि व्रतने तजे बे, तपस्वी तपने तजे बे, तथा एवो कुलीन माणस पण लकाने तजे बे ॥४८॥ लोनांजोजालिशीतद्युतिर हिमरुचिः पुण्यपाथोजपुंजे । शुध्यानैकसौधः प्रगुणगुणमणिश्रेणिमाणिक्य खानिः ॥ श्रेयोवरस्यालवालः कलिमल कमलाराम संहारहस्ती । तृष्णाकृष्णा हिमंत्रो विशतु हदिसतामेष संतोषपोषः ।। २० ।। अर्थ-लोजरूपी (सूर्य विकासी) कमलोनी श्रेणिनो ( नाश करवामां ) चंद्र सरखो, पुण्यरूपी कमलना समूह ने ( विकस्वर करवामां ) सूर्य सरखो, शुद्ध ध्यानना एक मेहेल सरखो, उत्तम गुणोरूपी माणिनी ने (उत्पन्न करवामां ) मणिक्यनी खाए सरखो, कल्याणरूपी वेलडीने (प्रफुल्लित करवामां ) क्यारा सरखो, क्वेश ने मंलीनतारूपी कमलना बगीचानो नाश करवामां हाथी सरखो, तथा तृष्णारूपी कृष्णसर्पने ( वश करवामां ) मंत्र सरखो, एवो आ संतोषनो पोष ( पुष्टि ) सनोना हृदमां दाखल था ? ॥ ५० ॥ हवे पितृप्रक्रम कहे बे. तेनावादि यशः प्रसिद्धिपटहः प्राकारि यात्रोत्सवस्तीर्थानां च सताममोदि हृदयं प्राणोदि पापप्रथां ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ श्रेयाश्रेणिरवापि वंशसदने चारोपि धर्मध्वजो । येनापूजि पदयी हितवती पित्रोः पवित्रात्मनोः ॥ ५१ ॥ अर्थ-जे माणसे पवित्र एवा मातपितानां हितकारी बन्ने चरणोने पूज्या , तेणे (श्रा जगतमा पोताना) यशनो जाहेर पडो वजमाव्यो बे, तीर्थोनी यात्रानो उत्सव करेखो , सजानोना हृदयने आनंदित कर्यु बे, पापोना विस्तारने दूर कयों बे, कल्याणनी परंपरा मेलवी , तथा तेणे पोताना कुलरूपी घरपर धर्मध्वज श्रारोपण कर्यो बे, (एम जाणवू.) ॥५१॥ लक्ष्मीस्तत्र पयोनिधाविव सरिलेणिः समेति स्वयं । नोगास्तत्र वसंति शाखिशिखरावासे विहंगा श्व ॥ पूजास्फातिमुपैति तत्र सलिले वीथीव पाथोरुहां । नक्तिर्यत्र पवित्रपुण्यपरयोः पित्रोरनुष्ठीयते ॥ ५ ॥ अर्थ-पवित्र पुण्यमां तत्पर ऐवा मातपितानी ज्यां नक्ति कराय बे त्यां, समुजमां जेम नदीओनी श्रेण, तेम लक्ष्मी पोतानी मेलेज आवे बे; वली वृदनी टोंचरूपी श्रावासमां जेम पक्षियो, तेम त्यां लोगो (श्रावीने) वसे बे; तथा पाणीमां जेम कमलोनी श्रेणि, तेम त्यां मान विस्तारने पामे . ॥ ५५ ॥ न स्नानरैपि तीर्थपूतपयसां शुषैश्च सिखात्मनो । नो जापैरपि नापि चारुचरितैर्नापि श्रुतानां श्रमैः ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 99 न त्यागैरपि संपदा जवति सा नापि व्रतानां व्रजैर्या पित्रोः पदपूजनैः सुनगयोः शुद्धिर्भृशं जंजते ॥ ५३ ॥ अर्थ - मातपिताना मनोहर चरणोनी पूजाथी (प्राणीने) जे अत्यंत शुद्धि थाय बे, तेवी शुद्धि तीर्थोना पवित्र जलोना स्नानोथी पण थती नथी, सिद्ध प्रजुना शुद्ध जापोथी पण यती नयी, मनोहर आचरणोथी पण ती नथी, सिंद्धांतो (सांजलवाना) श्र. मोथी पण थती नथी, लक्ष्मीना दानी पण थती नथी, तथा व्रतोना समूहोथी पण ती नयी . ॥ ५३ ॥ विद्मः स्वर्गतरंगिणी प्रकटिता तांगले मंरुले । Sःस्थस्य प्रविवेश वेश्मनि मनः कामप्रदा स्वर्गवी ॥ प्रादुर्भावमुपेयिवान्मरुनुवि कोणी रुहः स्वर्गिणां । यत्पित्रोः प्रविधीयते प्रतिदिनं क्तिःशुमस्मिन् युगे ॥ ५४ ॥ अर्थ - कलिकालमां पण हमेशां मात पितानी शुन नक्ति जे करवामां आवे बे, तेथी हुं एम जाएं बुं के, जंगलना प्रदेशमां देवगंगा प्रगट थर बे, तथा मनना इति ने देनारी कामधेनुए दरिडिना घरमा प्रवेश कर्यो बे, तथा मारवामनी भूमिमां कपवृक्षोनी उत्पत्ति थइ बे ! ! ॥ २४ ॥ यत्प्रसादवशतः करिलीलां, पूतरप्रतिमितोऽप्युपंयाति ॥ पादयोः प्रविदधीत न पित्रोः, किं तयोः सतनयः समुपास्तिम् ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 90 अर्थ-जे मातपितानी कृपाथी, (जन्म समये) पूरा सरखो पण पुत्र, (यौवन समये) हाथी समान लीलानेप्राप्त थाय बे,तेवा मातपिताना चरणोनी सेवाने, ते पुत्र शामाटे अंगीकार न करे? (अर्थात् करेज.) हवे गुरुप्रक्रम कहे जे. किं पाथसां मथनवत् कुरुषे सुखेल्नु । बंधो मुधैव विविधं निकर क्रियाणाम् ॥ वस्तुप्रकाशनपटुः प्रकटप्रजावो ॥ दीप्रप्रदीप्त श्व चेद् गुरुराहतो न ॥ ५६ ॥ श्रर्थ-देदीप्यमान दीपकनी पेठे वस्तुश्रोने प्रकाश करवामां समर्थ, तथा प्रगट प्रनाववाला, एवा गुरूने, हे बंधु ! जो तें अंगीकार कर्या नथी, तो सुखनी श्वाश्री जलना मथननी पेठे फोकट क्रीयाओनो समूह तुं शामाटे करे ? ॥ ५६ ॥ न ध्वंसं विदधाति यस्तनुमतां ब्रूते न लाषां मृषां । न स्तेयं वितनोति न प्रकुरुते लोगांश्च वक्रचुवाम् ॥ न स्वर्णादिपरिग्रहग्रहिवतां धत्ते च चित्ते कचित् । संसेव्यो गुरुरेष दोषविमुखः संसारपारेबुनिः॥ ५७॥ अर्थ-जे गुरु जीवोनी हिंसा करता नथी, मृषावाद बोलता नथी. चोरी करता नथी,स्त्रीश्रोना जोगो नोगवता नथी,तथा मनमां को पण वखतेसुवर्णादिकना Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उए परिग्रहनी लोलताने धारण करता नथी,एवा निर्दोष गुरुने संसार तरवानी छावाला मनुष्योए सेववा. ५७ ये व्यापारपरायणाः प्रणयिनीप्रेमप्रवीणाश्च ये। ये धान्यादिपरिग्रहाग्रहगृहं सर्वानिलाषाश्च ये॥ ये मिथ्यावचनप्रपंचचतुरा येऽहर्निशं नोजिनस्ते सैव्या न नवोदधौ कुगुरवः सचिञपोता इव ॥ १८ ॥ अर्थ-जेश्रो व्यापारमा तत्पर रहेला बे,स्त्रीश्रोना प्रेममा प्रवीण थया बे,धान्यादिक परिग्रहना स्थानक तुल्य ,सर्व वस्तुभोना लालचुबे, मिथ्यावादना प्रपंचमां चतुरबे,तथा जेभोरातदहामोजोजनमां श्रासक्त . एवा कुगुरुयोने आ नवरूपी समुषमा (बुमामवाने)बिजवाला वहाणतुल्य(जाणीने)सेववाज नहीं. ये विश्वासपदं च ये प्रतिनुवो निर्वाणशर्मार्पणे । ये चाधोगतिर्गमार्गगमनघारप्रवेशार्गलाः ॥ धर्माधर्महिताहितप्रकटनप्राप्तप्रमोदाश्च ये । ते सेव्या जववारिधी सुगुरवो निश्चितपोता इव ॥ एए॥ अर्थ-जेश्रो विश्वासना स्थानकरूप मे, मोक्षसुख श्रापवामां शादित बे, नीच गतिना पुर्गम मार्गमां गमन करवाना हार प्रते प्रवेश करवामां जोगल समान ,तथा जेश्रो धर्म, अधर्म,हित,अहित विगेरे प्रगट करवाथी श्रानंद मेलवनारा बे, एवा उत्तम गुरु Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रोने जवरूपी समुअमां विनरहित (अखंम) वहाण तुल्य जाणीने सेववा. ॥ एए ॥ चेद्दानशीलतपसां फलमाप्तुमीहा । स्वर्गापवर्गपुरयोः पथि चेधियासा ॥ वांग च चेत्सुकृतःकृतयोविवेके । सेव्यः समाधिनिधिरेष गुरुस्तदायः ॥ ६ ॥ अर्थ-जो दान, शील अने तपना फलने मेलववानी श्वा होय,अने खर्ग तथा मोद नगरना मार्गमा जवानी जोश्वा होय तथा पुण्य पापनो विवेक (तफावत) जाणवानी जो श्वा होय, तो समाधिना नंमाररूप ते सुगुरुने उत्तम माणसोए सेववाः ॥ ६० ॥ हवे देवप्रक्रम कहे बे. ज्योतिर्जालमिवाजिनीप्रियतमं प्रीतिनं तं मुंचति । श्रेयःश्रीवतीह तत्सहचरी ज्योत्स्ना सुधांशोरिव ॥ सौलाग्यं तमुपैति नाथमवने सेनेव तं कांदति । स्वब्रह्माधिसुता वशेव तरुणं योऽर्चा विधत्तेऽहताम् ॥६॥ अर्थ-जे माणस श्रीअरिहंत प्रजुनी पूजा करे , तेने, सूर्यने जेम ज्योतिनो समूह तेम प्रीति डोमती नथी,तथा चांदनी जेम चंपनी,तेम कल्याणनी लक्ष्मी तेनी सहचरी थाय ने, तथा राजाप्रते जेम सेना, तेम Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ सौनाग्य तेनी समीप यावे बे, तथा युवान पुरुषने जेम स्त्री, तेम वर्ग ने मोहनी लक्ष्मी तेने इछे बे. ६१ स श्लाघ्यः कृतिनां ततिः सुकृतिनां तं स्तौति तेनात्मनो । वंशोऽशोनिनमंति योजितकरास्तस्मै व्रजा जूनुजाम् ॥ तस्मान्नप्रथितः परोऽस्ति नुवने जागर्ति चित्तार्तिहृत् । कीर्तिस्तस्य वसंत जोग निवास्तस्मिञ् जिनं योऽर्चति ॥ ६२ ॥ अर्थ- जे माणस जिनेश्वर प्रजुने पूजे बे, ते कृतार्थ पुरुषोमां (पण) वखाणवालायक बे, तथा पुण्यवंतोनी श्रेणि तेनी स्तुति करे बे, वली तेणे पोतानुं कुल शोजाव्युं वे, तेम तेनी पासे राजाना समूहो हाथ जोगीने रहे बे, वली तेना समान या पृथ्वीमां कोइ पण बीजो माणस प्रख्यात यएलो नथी, तेम चित्तनी पीमाने हरनारी एवी तेनी कीर्ति जागृत थाय बे, तथा तेनामां जोगोना समूहो ( श्रवीने) वसे बे. ॥ ६२॥ तस्माद्दूरमुपैति दुःखमखिलं सिंहादिवेज जो । विघ्नोपश्च विजेति सर्पनिकरः कंसारियानादिव ॥ विवात्पंक जिनीपतेरिव निशा नश्यत्यनर्हा गतिः । पूज्यंते जिनमूर्तयः प्रतिदिनं यानि सस्फुर्तयः ॥ ६३ ॥ अर्थ - जे मनुष्यना घरमां स्फुरायमान एवी जिननी मूर्तियो हमेशां पूजाय बे, ते माणस पासेथी, सिंहथी जेम हाथी योनो समूह, तेम सघलुं दुःख दूर जाय बे, तथा गरुमथी जेम सर्पोनो समूह, तेम तेनाथी विघ्नोनो For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समूह मरतो रहे , तथा सूर्यश्री जेम रान्नि, तेम तेनाथी कुराचरण तो नासतुंज फरे . ॥ ६३ ॥ पवेर्धाराकारा व्यसनशिखरिण्युत्सववने । वसंतः संकेतस्त्रिदिवशिवसंपत्तियुवतेः॥ नवांनोधौ पोतः सुकृतकमलानां च सरसी। जिनेंजाणामर्चा प्रथितमहिमानां च सदनम् ॥ ६ ॥ अर्थ-जिने प्रजुयोनी पूजा (साते) व्यसनोरूपी पर्वतने (नेदवामां) वजनी धारा सरखी बे, उत्सवरूपी वनने (विकवर करवामां) वसंत ऋतु सरखी बे, देवलोक अने मोदनी संपदारुप युवान स्त्रीने (बोलाववामां) संकेत सरखी बे, जवरूपी समुउने (तरवामां) नाव सरखी डे, पुण्यरूपी कमलोने जत्पन्न करवामां तलाव सरखी , तथा विस्तार पा. मेला महिमाना स्थानक समान वे ॥ ६४ ॥ न भूः साटोपकोपा न च करयुगलं चापचक्रादिचिन्हें । कांताकांतश्च नांको न च मुखकमलं सप्रकोपप्रसादम् ॥ यानासीना न मूर्ति च नयनयुगं कामकामानिरामं । हास्योत्फुलोन गयो सनय नवनिदो यस्य देवःस सेव्यः॥६॥ अर्थ-नययुक्त नवनेनेदनारो एवा जे देवनी चुकु. टी बाटोप सहित कोपवाली नथी,जेना बन्ने हाथो चा पचक्र श्रादिकथी चिह्नित थएला नथी, जेनो खोलो Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ आरामः पृथिवीरुहां कुमुदिनी प्रेयान् कलानां यथा । कासारः सरसीरुहां च विनयः स्थानं गुणानां तथा ॥ ६७॥ अर्थ-जेम ताराशोनुं स्थानक आकाश , पाणीनुं स्थानक समुस, कांतिओनुं स्थानक सूर्य डे, देवोनुं स्थानक वर्ग , मनुष्यो, स्थानक पृथ्वी , हाथीअोनुं स्थानक विंध्याचल , वृदोनुं स्थानक बगीचो बे, कलाश्रोनुं स्थानक चं, तथा कमलोनुं स्थानक जेम तलाव , तेम (सर्व) गुणोनुं स्थानक विनय बे. नस्वर्णानरणैर्विनूषितवपुः सम्जिन च त्राजितो। नो मुक्ताफलहारहारिहृदयो नो दिव्यवासोवृतः॥ नो रुपोपचितो न सिंधुरवरस्कंधाधिरुढश्च तत् ॥ सौलाग्यं समुपैति यदिनयिता जूषालिरामः पुमान् ॥ ६ ॥ अर्थ-विनयरूपीनूषणथी मनोहर थएलो(माणस) जे सौजाग्यने पामे, ते सौजाग्यने सुवर्णना आजूषणोथी शोनितां शरीरवालो पण पामतो नथी, तेम पुष्पमालाओथीनूषितथएलो पण ते सौलाग्यने पामी शकतो नथी, वली मोतीना हारोथी मनोहर हृदयवालो पण ते सौलाग्यने पामी शकतो नथी, तथा दिव्य वस्त्रोवालो पण ते सौजाग्यने पामी शकतो नथी, तेम रूपवंत माणस पण ते सौजाग्यने पामी शकतो नथी, तथा हाथीना मनोहर स्कंधपर चडे. लो माणस पण ते सौनाग्यने पामी शकतो नथी, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्यैर्गुणैरलमलंकरण नराणां । यद्यस्ति चेधिनयममनमेकमंगे। आयांति नायकमिव ध्वजिनीजना यत् । सर्वे गुणाः स्वयमिदं हृदये वहन्तम् ॥ ६ए॥ अर्थ-फक्त एक विनयरूपाजूषणज जो अंगपर धारण कयुं होय, तो पली बीजा गुणोरुपी थानूषणोनी मनुष्योने कंश जरुर नथी. केमके हृदयमा ते विनयने धारण करनार माणसनी पासे, सेनापति प्रते जेम सेनाना माणसो तेम सर्वे गुणो पोतानी मेलेज आवी पहोंचे बे. ॥ ६॥ प्रेमपात्रं प्रजायंते, विनीताः पशवोऽपि हि ॥ तस्माधिनय एवायं, स्वीकार्यः कार्यकोविदैः ७० ॥ अर्थ-विनयवाला पशुश्रो पण प्रेमना पात्ररूप थाय डे, (अर्थात् बहुज वहालां लागे , ) माटे (पोताना) कार्यमां चतुर एवा माणसोए ते विनयनोज स्वीकार करवो. ॥ ७० ॥ हवे न्याय प्रक्रम कहे . प्राणा यांतु सुरेंजचापरुचयः संपत्तयश्चाचिरा। संचाराः पितृपुत्रमित्ररमणी मुख्या:समा बुदबुदैः॥ तारुण्यादिवपुर्गुणा गिरिनदी वेगैकपारिप्लवाः। कीर्तेः केलिगृहं तु नीतिवनितासंगश्चिरं तिष्ठतु ॥ १॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jar Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ - ( वर्षाकालमा यता) इंद्रधनुष्य सरखी (चपल) कांतिवाला प्राणो जले चाल्या जायो ? चंचल संपदा पण जले चाली जाओ ? परपोटा सरखा पिता, पुत्र, मित्र, स्त्री आदिक संचारो जले चाल्या जाश्रो, तेम पर्वतमांथी निकलती नदीना वेग सरखा चंचल एवा शरीरना तारुण्य यादिक गुणो पण जले चाया जार्ज ? पण कीर्तिने कीमा करवाना वनसरखो नीतिरूपी स्त्रीनो संग फक्त लांबा काल सुधी रहो? पायैर्विना निम्न-वनीमेति नदीवहः ॥ स्वयं नयवतोऽन्यर्णं, तथान्येति श्रियां जरः ॥ ७२ ॥ अर्थ-जेम नदीनो प्रवाह उपायविनाज नीची जमनप्रते जाय बे, तेम लक्ष्मीनो समूह पण न्यायवंत माणसनी पासे पोतानी मेलेज जाय बे ॥ ७२ ॥ संबंधी प्रणयैः सरः कुवलयैः सेना च रंगदूहयैः । स्त्री बाहुवलयैः पुरी च निलयैर्नृत्यं च तातालयैः ॥ गंधर्वश्च यैः सा सहृदयैरात्तत्रतो वाङ्मयैः । शिस्यौधो विनयैः कुलं च तनयै राजाति भूपो नयैः ॥ ७३ ॥ अर्थ-जेम संबंधि प्रीतिथी, तलाव कमलोथी, सेना उबलता घोमाथी, स्त्रीनो हाथ चुडी खोथी, नगरी मेहेलोथी, नृत्य " ताता थ" इत्यादिक तानोथी; घोमो वेगथी, सजा विद्वानोथी, मुनि शास्त्रोथी, शि " For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ B ष्योनो समूह विनयोथी तथा कुल जेम पुत्रोथी शोने दे, तेम राजा न्यायोथी शोने . ॥ ३ ॥ नीतिः कीर्तिवधूविलाससदनं नीतिः प्रसिधेधुरा। नीतिः पुण्यधराधिपप्रियतमा नीतिः श्रियां संगमः ॥ नीतिः समतिमार्गदीपकलिका नीतिःसखी श्रेयसां । नीतिः प्रीतिपरंपराप्रसविनी नीतिःप्रतीतेपदम् ॥ ४ ॥ अर्थ-नीति बेते कीर्तिरूपी स्त्रीने विलास करवानुं घरडे, प्रसिद्धिने धारण करनारीने,पुण्यरूपी राजानी (वहाली) स्त्री, लक्ष्मीनो संग करावनारी बे, सजतिना मार्गमा दीपकनी कलिका सरखी बे, कल्याणोनी सखी ने, प्रीतिनी परंपराने उत्पन्न करनारी बे, तथा ते विश्वासनुं स्थानक . ॥ ४ ॥ पूज्योपास्ति रनादरोऽधमनरे नो वंचना धर्मिणाम् । सत्या वाक् पुरतःप्रनोरनुचिनत्यागोऽनुरागो निजैः॥ संगः साधुषु नित्यकृत्यकरणं स्नेहःसहौजस्विनिदीनानाथजनेषु चोपकरणं न्याय्योऽयमध्वा सताम् ॥ १५ ॥ अर्थ-पूज्योनी सेवा,नीच माणसमां अनादर,धर्मी माणसोने नहीं गवापणुं,शेग्नी समीपे सत्य वाणी, अनुचित(आचरणोनो)त्याग,सगायोनी साथे प्रीति, साधुश्रोनी सोबत, नित्यकर्मोनुं करवापणुं, प्रतापीउनी साथे स्नेह,तथा दीन अने अनाथो प्रते उपकार एवी रीतनो सझनोनो न्यायमार्ग . ॥ ५ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ចិច हवे पैशून्य प्रकृम कहे . चेत्पापापचयं चिकीर्षसि रिपोमूर्ध्नि क्रमौ धित्ससि । क्वेशध्वंसमजीप्ससि प्रवसनं सर्वागसां दित्ससे ॥ कुकीत प्रजिहीर्षसि प्रतिपदं प्रेत्यश्रियं लिप्ससे । सर्वत्र प्रविधेहि तत्प्रियसखे पैशुन्यशून्यं मनः ॥ ७६॥ अर्थ-हे प्रिय मित्र!जो तुंपापोने नाश करवाने श्वतो होय,शत्रुना मस्तकपर पगो मुकवाने (अर्थात् शत्रुजैनो नाश करवाने) श्वतो होय,क्लेशनो विध्वंस करवाने श्छतो होय, सर्व अपराधोने दूर करवाने श्वतो होय, पगले पगले अपकीर्तिने हरवाने श्वतो होय, तथा पुनर्नवमां जो लदमी (मेलवाने) श्चतो होय, तो सर्व जगोए तुं (तारा)मनने चुगलीथी रहित कर? नागौ नीररुहं न सर्पलपने पीयूषपुरः प्रना। नर्तुर्नान्युदयश्च पश्चिमगिरौ वही न च व्योमनि ॥ न स्थैर्य पवने मरौ न मरुतामूर्वीरुहः स्याद्यथा । दौर्जन्ये यशसां तथा नहि जरःसोमत्विषां सोदरः ॥ ७ ॥ अर्थ-जेम अग्निमां कमल,सर्पनी जीजमां अमृतनो समूह, पश्चिम गिरिपर सूर्यनो उदय, श्राकाशमां वेलमी, पवनमां स्थिरता, तथा मारवाममां कल्प वृद होतुं नथी, तेम उर्जनतामां चंड समान (उज्वल) यशनो समूह खरेखर थतो नथी. ॥ ७ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ פח तत्संपत्तिमनुद्यमं प्रकटयन् कीर्ति च कुर्वन् कलिं । प्राणान् प्राणनृतां हरंश्च सुकृतं नृत्यं वितन्वंस्तृपाम् ॥ आरोग्यं च गिलन्नपथ्यमशनं विद्यां च नित्रां दधत् । कांहत्येष यदीहते सुजगतां पैशून्यमासूत्रयन् ॥ ७८ ॥ अर्थ- जे माणस चुगली करतो थको सौभाग्यपपाने छे छे, ते माणस उद्यमविना संपदाने इछे बे, कंकास करतो को कीर्तिने इबे बे, प्राणी खोना प्राणोने हरतो को पुण्यने छे बे, लकाने धरतो थको नाचवाने छे छे. कुपथ्य जोजन करतो थको निरोगीपणाने इछे बे, तथा निद्रा लेतो थको विद्याने इछे बे. (अर्थात् ते सघलुं संवित एटले न बने तेवुं बे ) ॥ ७८ ॥ धर्म धुनोति विधुनोति धियां समृद्धिं । श्लाघां सिनोति च पुनोति दयाविलासम् ॥ चिंतां चिनोति च तनोति तनूप्रतापं । क्रोधं धिनोति च नृणां पिशुनत्वमेतत् ॥ ७९ ॥ अर्थ - चुगली पणुं माणसोना धर्मने नाश करे बे, बुद्धिनी समृद्धिने दूर करे बे, कीर्तिने गली जाय ठे, दयाना विलासने जावे बे, चिंता उपजावे बे, शरीरने ताप पे बे, तथा क्रोधने वधारे बे. ॥ ७७ ॥ सौनाग्यादिव सुंदरी सुविनयाद्विद्येववीथिः श्रियामुद्योगादिव साहसादिव महामंत्रादिसिद्धिः पुनः ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ug स्फुर्जत्कीर्ति पीयूषादिव नीरुजत्वमचिरात् पूजा च पुण्यादिव । नरं पिशुनतात्यागादुपागच्छति ॥ ८० ॥ अर्थ- सौभाग्यथी जेम सुंदरी, उत्तम विनयथी जेम विद्या, उद्यमथी जेम लक्ष्मीनी श्रेणि, साहसथी जेम महामंत्रादिकनी सिद्धि, अमृतथी जेम तुरत निरोगीपणुं, तथा पुण्यथी जेम मोटाइ मले बे, तेम चुगलीना त्यागथी माणसने स्फुरायमान कीर्तिनो समूह प्राप्त थाय बे ॥ ८० ॥ हवे सत्संगप्रक्रम कहे बे. यत्पंकोऽपि नरेंद्रनाल फलके कस्तूरिकानावनाक् । काचोऽप्याजरणेषु नूपसुदृशां हीरोपमां याति यत् ॥ यत्काकोsपि रसालशालशिखरे ताम्राकृतामश्नुते । तत्संगान्महतां जवत्यपि गुणैहींना गुणानां गृहम् ॥ ८१ ॥ अर्थः- राजाना ललाटस्थलमां कादव पण जे कस्तू रीना जावने जजनारो थाय बे, तथा राणीश्रोना श्राभूषणोमां काच पण जे हीरानो उपमाने प्राप्त थाय बे, तेम बाना वृनी टोंचपर रहेलो कागको पण जे कोयलपणाने जे बे, ते सघलुं उत्तमना संगथी थएलुं बे, माटे एवी रीते गुणहीनो पण उत्तमना संगथी गुणोना स्थानकरूप थाय बे ॥ ८१ ॥ पापापापहिताहितप्रियतमाप्रेयोऽनिधेयेतरध्येयाध्येयशुभाशुभप्रकटन के विवेके रतिः ॥ For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यूनां चेतसि कांदिशिकहरिणी नेत्रेव चेछः प्रिया । तत्सत्संगमनंगरंगरसिकाः सेवध्वमात्मप्रियाः ॥ २ ॥ अर्थ-अनंग रंगमां रसिक तथा आत्मा ने प्रिय जेमने एवा हे प्राणी!युवानोना मनमां दिङ्मूढ थएली हरिणी सरखी आंखोवाली स्त्री, जेम प्रिय , तेम तमोने पाप, धर्म, हित, अहित, प्रिय, अप्रिय, श्रनिधेय, अननिधेय, ध्येय, तथा शुन अने अशुननाअंतरने जाणवाना विवेकमां जो खुशी होय, तो तमो सजानोनो संग अंगीकार करो ? कीर्ति कंदलयत्यघं दलयति प्रल्हादमुलासयत्यायासं निरुणधि बुधिविनवं सूते निशेते रिपून् । श्रेयः संचिनुते च बंधुरधियं धत्ते पिधत्ते जयं । किं किं कल्पलतेव नैव तनुते सद्यः सतां संगतिः ॥७३॥ अर्थ-सङनोनी सोबत कीर्ति- मूल नांखे , पापने दली नांखे , हर्षने उपजावे ने श्रमने रोके ,बुछिना विनवने उत्पन्न करे ,शत्रुठने नाश करे , कल्याणने एक करे बे, मनोहर बुधि आपे बे, तथा नयने आबादित करे जे; एवी रीते सजनोनी सोबत कपवहीनी पेठे हमेशां शुं शुं (उत्तम) कार्य नथी करती ? (अर्थात् सर्व उत्तम कार्यों करे बे.) ॥ ३ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Tuş संगात्सतां प्रथितबुद्धिसमृद्धिसिद्धेरुच्चैः पदं समुपयांत्यपमाननीयाः ॥ यत्सूत्रतंतुमपि सौरजसार पुष्पसंगात मुकुटेषु नराधिनाथाः ॥ ८४ ॥ अर्थ-विस्तार करेल बे बुद्धिनी संपदानी सिद्धि जेणे एवा सत्संगथी नीच पण उंची पदवीने पामे बे, केमके सुगंधयुक्त उत्तम पुष्पोनासंग थी सुतरना तांतणानेपण राजार्ज ( पोताना ) मुकुटोमां धारण करे बे. ॥ ८४ ॥ दत्ते चेsसनाः पतिः फलनृतामायुश्च पाथोजनूः । स्थैर्य निर्जरन्धरः सुरगुरुगः कौशलं चातुलम् ॥ सर्वज्ञत्वमुमापतिश्च रजनीराजः कलाः पेशलाः । स्तोतुंतांस्तदयं क्षमेत महतां ये संगतः स्युर्गुणाः ॥ ८५ ॥ अर्थ- सनोना संगथी जे गुणो उत्पन्न थाय बे, ते गुणोनी स्तुति करवाने तो, जो शेषनाग पोतानी जीजो आपे, ब्रह्मा खयुष्य आपे, मेरूपर्वत स्थिरता श्रापे, सुरगुरु वचनोनुं अतुल्य कौशल आपे, महादेव सर्वज्ञपणुं पे, तथा चंद्र जो पोतानी मनोहर कलार्ड थापे, तोज तेनी स्तुति थइ शके ॥ ८५ ॥ हवे मनः शुद्धिप्रक्रम कड़े बे. पाच निर्विकारा यदि शमनिनृते नेत्रपत्रे पवित्रे | गात्रे सध्यानमुद्रा यदि यदि च गतिमंदमंदप्रचारा ॥ For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ए३ क्रोधादीनां निरोधो यदि यदि च वनेऽवस्थितिःप्रीतिपूर्णा । क्वेशावेशप्रवेशनिदिह हृदि तदा स्वैरमन्येति शुद्धिः ॥६॥ अर्थः-हे प्राणी जो,वाणी विकार रहित होय,नेत्रो समतायुक्त होय पवित्र एवा गात्रपर (मुखपर) उत्तम ध्याननी मुखा होय, गति मंदमंद प्रचारवाली होय, क्रोधादिकोनो निरोध होय,तथाप्रीतिपूर्वक जोवनमां स्थिति होय. तो क्वेशना आवेशना प्रवेशने बेदनारी (मननी) शुकि पोतानी मेलेज हृदयमां प्राप्त थाय बे. असौ नस्मान्यंगः किमु किमुत जूमौ विलुग्नं । जटाटोपः कोऽयं किमु वपुरिदं निर्विवसनम् ॥ कचालोचः कोऽयं प्रचुरतपसां किं च तपनं । न चेच्चेतःशुधिः सुकृतसफलीकारकरणम् ॥ ७ ॥ अर्थ:-जो पुण्यने सफल करवाना कारणरुप एवी मननी शुद्धता न होय तो शरीरे लश्म चोलवाश्री गुं थवानुं ? तेम पृथ्वीपर लोटवाथी पण शुं थवानुं ? जटानो बाटोप धारण करवाश्री शुं थवानुं ? शरीरने वस्त्र रहित राखवाथी शुं थवानुं ? वालोनो लोच करवाथी शुं थवानुं बे ? तथा घणा तपो तपवाथी पण शुं थवानुं ? ( मननी शुधि विना सघलु निष्फल . ) ॥ ७ ॥ स्वैरं नमन् जगति चित्तनिशाकरोऽयं । यैर्यत्रितः सुकृतकृत्यमनोझमंत्रैः॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ए तेषामशेषसुखपोषिणि सिधिसौधे । वासः सदाः समजनिष्ट समाधिनाजाम् ॥ ७ ॥ अर्थ-समताने नजनारा एवा जे माणसोए, जगतमा स्वेछाचारथी भ्रमण करता एवा चित्तरूपी रादासने पुण्यनां कार्योरुपी मनोहर मंत्रोए करीने यंत्रित करेलो , ते माणसोनो सर्व सुखोने पोषण करनारा एवा मोक्षरुपी मेहेलमांहमेशां वास थएलोबे॥॥ विना मनः शुधिमशेषधर्मकर्माणि कुर्वन्नपि नैति सिघम् ॥ दृग्न्यां विना किं मुकुरं करेण । वहन्नपीदेत जनः स्वरूपम् ॥ ए॥ अर्थ-मननी शुद्धिविना सर्व धर्मकार्योंने करतो एवो पण प्राणी मोक्षमा जश् शकतो नथी; केमके हाथमां आरीसो पकमीने फरतो, एवो पण प्राणी आंखोविना पोतानं स्वरूप जोइ शकतो नथी. ॥ नए॥ दूतीं मुक्तिमृगीदृशो यदि मनःशुधिं विधातुं रतिस्तत्स्वर्णे रमणीजने च ह्रदयं रदयं प्रयुज्यत्सखे ॥ एतदोलनरानिजूतहृदये न स्वार्थसार्थप्रथा । प्राउ वमुपैति शंवररुहां रोहः शिलायामिव ॥ ए॥ अर्थ-हे मीत्र! मुक्तिरूपी स्त्रीने (वश करवामा) दूती समान,एवी मननी शुद्धिने धारण करवानी जो तने श्वा होय, तो सुवर्ण अने मनोहर एवी स्त्रीमा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एय लोजातां एवा (तारा)हृदय तारे रक्षण करवू जोइए; केमके, लोजना समूहथी पराजव पामेलां हृदयमां, शिलामा जेम कमलोनं उगवं तेम, आत्मार्थना समूहना विस्तारनी उत्पत्ति थती नथी. हवे द्यूतप्रक्रम (जुगार- प्रक्रम ) कहे बे. जक्तिं ननक्ति विनयं विनिहंति तृष्णां । पुष्णाति तर्जयति वर्यमजर्यवीर्यम् ॥ पूजां परालवति नीतिमपाकरोति । द्यूतं विदूरयत तव्यसनाध्वसूतम् ॥ १ ॥ अर्थ-हे प्राणी ! जे जुगार नक्तिने तोमीपाडे , विनयने नाश करे , तृष्णाने पुष्ट करे डे, मनोहर तथा निबिम एवा वीर्यनी तर्जना करे बे, पूजानो (कीर्तिनो)परानव करे ,तथा नीतिने दूर करे डे,एवा मुखना मार्गने उत्पन्न करनारा जुगारने तमो दूर करो वध्यां धाम्नि वधू विधाय स कुधीधुर्यः सुतानीहते । ऊंपापातमुपेत्य पर्वतपतेः प्राणान् स च प्रेप्स्यति ॥ सनिजामधिरुह्य नावमुदधेः कूलं च कांदत्यसौ। कृत्वा कैतवकौतुकं प्रकुरुते वित्तस्पृहां यो जमः ॥ ए॥ अर्थ-जे मूर्ख माणस जुगारनुं कौतुक करीने धननी श्वा करे , ते कुबुझिनो सरदार माणस घरमां वंध्या स्त्री राखीने पुत्रोने श्वे , मेरुपर्वतपरथी ऊंपापात Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करीने ते प्राणोनी श्छा राखे ,तथा बीउवाला वाहाएमां बेसीने ते किनारे पहोंचवानी श्छा करे .ए॥ जातन् नूतलराजिनूत इव यलुब्धो दृशा नेदते । नक्तोक्ति शृणुते न च ज्वरितवद्यद्दत्तचित्तः पुमान् ॥ लजामुन्फति मद्यमूचित श्वासक्तश्च यत्र द्रुतं । द्युतं वित्तविनाशनं त्यज सखे तन्मूर्खमैत्रीमिव ॥ ए३ ॥ अर्थ-जे जुगारमा आसक्त थएलो माणस,जाणे नूतोनासमूहथी परानव पामेलो होय नहीं जेम, तेम जाने तो आंखेथी जोतो पण नथी; तेम ते जुगारमां रहेलां चित्तवालो माणस ताप चडेलानी पेठे सेवकना वचनने पण सांजलतो नथी; वली तेमां लीन थएलो माणस मदिराथी मूर्छित थएलानी पेठे तुरत लजानो पण त्याग करे ;माटे हे मित्र! मूर्खनी मित्राइनीपेठे धननो नाश करनारा,एवा जुगारते तुं बोमीदे यत्रापदां वृंदमुपैति वृधि । कंदस्तरूणामिव वारिलूमौ॥ त्यति तत्किं न मनीषिमुख्या । द्यूतं दुराकूतमनूतमार्यैः ॥ एव ॥ अर्थ-जे जुगारमां,जलवाली जमीनमा जेम वृदोनुं मूल, तेम फुःखोनो समूह वृद्धि पामे डे; एवा पुष्ट आशयवाला,तथा उत्तमजनोथी नहीं स्तुति कराएला जुगारने, हे पंमितमुख्यो ! तमो केम तजता नथी ? Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ En स्थानं शून्यगृहं विटाः सहचराः स्निग्धश्च वेश्याजनः । पार्षद्याः परमोषिणः परिजनाः कादंबरिपायिनः ॥ व्यापारश्च परप्रियापरिचयः ख्यातिश्च वित्तव्ययो । येषां द्यूतकृतां कथामपि कथं कुर्यात्समं तैः सुधीः ॥ ए४ ॥ अर्थ- जे जुगारीनुं स्थानक तो उगम घर होय बे, जेथोना सोबती ओो तो लफंगा होय बे, वेश्यास्त्री जेउनी स्नेही होय बे, लोकोने उगनारा माणसो जेउनी पासे बेसनारा होय बे, मदिरापान करनारा जेर्जनो परिवार होय बे, परस्त्रीना परिचयरुप जेथोनो व्यापर होय बे, तथा धनना नाशरुपी जेउनी ख्याति होय बे, एवा जुगारीनी साथे उत्तम बुद्धिवाने वात पण शामाटे करवी जोइए ? ॥ ए४ ॥ मांसप्रक्रम हे बे. निःकर्णेष्विव गीतिरी तिरफला सद्ध्यानधौरेयता । कारुण्यस्य कथा वृथा मृगदशां दृक्केलिरंधेष्विव ॥ निर्जीवेष्विव वस्त्रवेपरचना वैदग्ध्यबुद्धिर्मुधा । मांस स्वादिषु देहिषु प्रायिता व्यर्था लतेवाग्निषु ॥ एए ॥ अर्थ- बहेरा माणसो प्रते जेम गायननी रचना, तेम मांस जक्षण करनारामां ध्याननुं धौरेयपएं निष्फल बे, वली अांधलाई प्रते जेम स्त्रीजना कटाकोनी क्रीमा, तेम ते प्रते करेली दयानी कथा पण निष्फल बे, वली मुमदां प्रते जेम वस्त्राभूषणनी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ՍԵ रचना, तेम तेर्जमां रहेली चतुराश्नी बुद्धि पण निष्फल , तथा अग्निमां जेम वेलडी, तेम ते प्रते स्नेहनाव राखवो ते पण वृथा . ॥ ए५ ॥ हित्वा हारमुदारमौक्तिकमयं तैर्धीयतेऽहिर्गले । त्यक्त्वा दीरमनुष्णधामधवलं मूत्रं च तैः पीयते ॥ मुक्त्वा चंदनमिंजुकुंदविशदं तैतिरल्यंग्यते । संत्यज्यापरलोज्यमत्रुततरं यैरामिषं तुज्यते ॥ ए६॥ अर्थ-जे माणसो बीजां अत्यंत मनोहर जोजनने तजीने मांसजें जक्षण करे बे, ते मोतीयोना मनोहर हारने तजीने गलामा सर्पने नांखे बे; चंद्रसरखा सफेद धने तजीने ते मूत्र पीए ; तेम चंड तथा मोलर सरखा निर्मल चंदनने तजीने तेओ शरीरपर राख चोले . ॥ ए६ ॥ स्वं ज्वालाजटिलेऽनले स बहले दिप्त्वेहते शीतता। मुत्संगे नुजगं निधाय सविषं स प्राणितं कांक्षति ॥ कीर्ति काम्यति चाकृशां कृपणतामासूत्र्य स त्रस्तधीर्यःकर्तुं करुणामनीप्स्यति जमो जग्ध्वा पलं प्राणिनाम् ॥७॥ अर्थ-जे बुद्धिविनानो मूर्ख माणस प्राणिश्रोनुं मांस नदण करीने दया करवाने श्छे डे, ते माणस ज्वालाओथी व्याकुल थएला मोटा अग्निमां पोताना शरीरने फेंकीने मकने श्वे , तथा खोलामा फेरी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एए सर्पने राखीने ते जीवितने श्छे बे, तेम अत्यंत कृ. पणपणुं राखीने ते कीर्तिने श्छे . ॥ ए॥ चैतन्यं विषलक्षणादिव मधोः पानादिव प्राज्ञता। विद्यालस्य समागमादिव गुणग्रामोऽजिमानादिव ॥ शीलं स्त्रीजनसंस्तवादिव मनः क्वेशादिवध्यानधीदेवार्चाशुचितादिपुण्यमखिलं मांसाशनान्नश्यति ॥ ए॥ अर्थ-जेम फेरना नदणथी चैतन्य, मदिरापानथी डाहापण, बालसना समागमथी विद्या, अनि. मानथी गुणोनो समूह, स्त्रीोना (अंगोपांगनी) प्रशंसाथी शील, तथा मनना क्लेशथी जेम ध्याननी बुझि, तेम मांसजदणथी देवपूजा तथा पवित्रपणादिकथी (उत्पन्न थएबुं) सर्व पुण्य नाश पामे बे. एG पारदारिकनरः परपत्नीं, तस्करश्च परकीयविजूतिम् ॥ नोक्तुमिन्नति यथेह तथा सा, वामिषोपचितमामिषलुब्धः एy अर्थ-जेम परस्त्रीनो लालचुमाणस पारकी स्त्रीने श्छे , तथा चोर जेम परना धनने श्छे बे, तेम मांसनदणमां लुब्ध थएलो माणस मांसथी पुष्ट थएला (पशुने) श्ले बे.॥ एए॥ हवे मद्यप्रक्रम कहे . स्वामित्वं समुपैति किंकरनरः प्रेष्यत्वमेति प्रन्नुः । शत्रुः सोदरता मुपैति जजते प्रत्यर्थितां सोदरः ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० जायात्वं जननी प्रयाति जननीजावं च जायाजनो । धर्मध्वंसधुरधुरीमधुनः पानानिनूतात्मनाम् ॥ १०० ॥ अर्थ-धर्मना नाशरुपी धोंसरीने धरवामां बलद स मान एवा मद्यपानथी पराजव पामेल बे श्रात्मा जेर्जनो एवा माणसो चाकरने शेव रूप लेखेबे, शेठने चाकररूप लेखे बे; शत्रुने नाइ लेखे बे, अने नाइने शत्रु लेखे बे; तथा पोतानी माताने पोतानी स्त्रीतरिके लेखे बे, ने पोतानी स्त्रीने पोतानी माता तरिके लेखे बे. ॥१००॥ ददात्यदेयं च दधात्यधेयं । गायत्यगेयं च पिवत्यपेयम् ॥ जयत्यजेयं च नयत्यनेयं । न किं सुरापानकरः करोति ॥ १०१ ॥ अर्थ - मदिरापान करनारो माणस नहीं देवालायक वस्तु दीए बे; नहीं धारण करवा लायक धारण करे बे, नहीं गावाजोग गाय बे; नहीं पीवा लायक पीए बे, नहीं जीत करवा लायकने जीते बे; तथा नहीं लेश्वा लायकने लेइ जाय बे; माटे एवी रीते मदिरापान करनार माणस शुं कार्य नथी करतो ? ( अर्थात् सघलुं योग्य कार्य करे बे.) ॥ १०१ ॥ याम्यंति गृहे गृहे विवसना यच्चत्वरे शेरते । यद्भूमौ निपतंत्यमुतिमुखा यच्चारटंति स्फुटम् ॥ For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०१ यवीथीषु विशंति कोशितदृशो जस्पंत्यजप्यं च यद्यद्वाढं च रुदंति मूढमतयस्तन्मद्य विस्फुर्जितम् ॥ १०२ ॥ अर्थ - ( मदिरापान करनारा मूढ बुद्धिवाला माणसो) जे घरे घरे जटक्या करे बे, नग्न थइने चोवटामां सुइ रहे बे, खुल्लां मुखो राखीने पृथ्वीपर पडे बे; प्रगट रीते बराडा पाडे बे, यांखो वींचीने गलीओमां प्रवेश करे बे, नहीं बोलवालायक (अपशब्दो) बोले बे, तथा जे अत्यंत रड्या करे बे; ते सघलुं मद्यपाननुं परिणाम बे. ॥ १०२ ॥ व्याधीनामवधिं पदं च विपदामुन्मादमाद्यधियां । धामाधन्यगिरां गुहामयशसां स्थानं खनिं चैनसाम् ॥ आधारं च युधां क्रुधां परिषदं संजोगभूमिं जियां । मुंचाचार विचारचारुरचना निर्धारिणीं वारुणीम् ॥ १०३ ॥ अर्थ- दुःखोनी सीमासरखी, श्रापदाधोना स्थानसरखी, उन्माद ने प्रमादनी बुद्धिना धाम सरखी, खराब वचनोनी गुफासरखी, अपयशना स्थानक सरखी, पापोनी खाण सरखी, लगाइना आधार सरखी, क्रोधनी सजा सरखी,जयोनी संगमनू मिसरखी, तथा याचारना विचारनी मनोहर रचनाने अटकाबनारी एवी मदिराने, हे मित्र ! तुं तजी दे? ॥ १०३ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ मतिकमलिनीनागं गगं पुरूहहविर्नुजः । प्रकटितदयादैन्यं सैन्यं प्रमादमहीपतेः॥ व्यसनपयसां सिंधुं बंधुं कषायधरास्पृशां । परिहर सुरापानं यानं विपत्पुरवमनि ॥ १०४॥ अर्थ-बुद्धिरूपी कमलिनीनो ( नाश करवामां) हाथी समान, कुतर्करूपी अग्निप्रते बोकमासमान, प्रगट करेल ने दयाप्रते दैन्यजाव जेणे एवा, प्रमादरूपी राजाना सैन्य सरखा, आपदारूपी पाणीना समुज सरखा, कषायरूपी प्राणीऊना बंधुसरखा, तथा कुःखरूपी नगरना मार्गमां वाहन सरखा एवा सुरापानने, हे प्राणी ! तुं तजी दे ? ॥ १०४ ॥ हवे वेश्याप्रक्रम कहे . यक्त्रं विटकोटिवक्त्रनिपतन्निष्टीवनानां घटी। यदाश्च जनंगमादिजनतापाणिप्रहारास्पदम् ॥ यजात्रं बहुबाहुदंमनिबिमकोमीकृतिनशितं । प्रेमैतासु दधाति धावकशिलातुट्यासु वेश्यासु कः ॥ १०५॥ अर्थ-जे वेश्यायोगें, मुख, क्रोमो गमे लफंगाउना मुखमांथी पडता थुकनी कुंमी सरखं बे, तथा जेनी बाती चांमाल आदिकना हाथोथी हणाएली बे, तथा जेश्रोन अंग घणा माणसोना बाहुदंमना आलिंगनथी शिथिल थरंगयुंडे,एवी धोबीनी शीला Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०३ सरखी वेश्याउँमा कयो माणस प्रेमने धारण करे ? (अर्थात् को पण धारण न करे.)॥ १५ ॥ रत्येवासमसायकः पशुपतिः पुत्र्येव नूमिनृतः । शच्येवाप्सरसां पति मुररिपुः पुत्र्येव पायोनिधेः॥ रोहिण्येव सुधामरीचिरवनेः पुत्र्येव पौलस्त्यजिद् । बाहुन्यां परिरच्यते गणिकया वित्तेहया कुष्टयपि ॥ १०६ ।। अर्थः-कामदेव जेमरतीथी,महादेव जेम पार्वतीथी, जेम शाणीथी, विष्णु जेम लक्ष्मीथी, चंड जेम रोहिणीथी, तथा राम जेम सीताथी आलिंगन कराय बे, तेम कुष्टी पण गणिकाथी (फक्त) धननी श्वाए करीनेज बन्ने हाथोथी आलिंगन कराय बे. ॥१६॥ यासु व्रजन् याति जनः कदाचिजाम्यां च त्रातयपि मोहमूढः ॥ अनेकलोकैः प्रतिसेवितासु । किं तासु वेश्यासु रतिः शुजाय ॥१०॥ अर्थ-जे वेश्या प्रते गमन करनारो माणस कोश वखते तो बेहेन तथा माताप्रते पण मोहथी मूढ थर जाय बे, एवी अनेक लोकोथी सेवाएली ते वेश्यामां (करेली) प्रीति शुं कल्याणकारी निवडे ? (अर्थात् नश्रीज नीवडती.)॥ १७ ॥ धनं प्रीतिर्यासां धनमपि च रूपं निरुपमं । धनं चार्वाचारो धनमपिच बुधिर्निरवधिः ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ धनं देवो यासां धनमपिच यासां गुरुरिह । विधत्ते वेश्यासु प्रणयमिह कस्तासु मतिमान् ॥ १७ ॥ अर्थ-जे वेश्याश्रोनेप्रीति, निरूपम रूप,मनोहर आचार, अत्यंत बुझि,देव तथा गुरु पण धनज , एवी वेश्यामां कयो बुद्धिवान माणस आ जगतमां प्रेम धारण करे? (अर्थात् को पण न करे.)॥ १७ ॥ मास्म स्मर स्मरनरेशवरुथिनीनां । तासां पणांबुजदृशां हि दृशां विलासान् ॥ यपदीपकलिकासु मनोहरासु। स्नेहदयासु बहवः शलजीजवन्ति ॥ १०ए॥ अर्थ-हे प्राणी ! कामदेवरूपी राजानी सेना समान, एवी ते वेश्याना आंखोना कटादो-तुं स्मरण नहीं कर ? केमके जे वेश्यानां स्नेहने क्षय करनारी (तेलने दय करनारी) रूपरुपी मनोहर दीवानी शिखाउमां घणा माणसो पतंगीथानी क्रीडाने प्राप्त थाय बे. (अर्थात् नेवटे मृत्यु पामे बे.) ॥ १० ॥ हवे पापर्धि (शिकारनुं ) प्रक्रम कहे . तेन्यः स्वापदपेटकैः सहसुखैः सर्वैरपित्रस्यते। तैः सार्ध जषणा ब्रमति विपदां पूराजवप्रोन्मुखाः॥ विध्यंते विविधायुधैश्च पशवः पुण्यैः समं तैः समे। ये मूढा अटवीमटन्ति विकटां प्रारब्धपापर्षयः॥३१० ॥ अर्थ-धारण करेल ने शिकार, व्यसन जेए, एवा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०५ जे मूढ माणसो (शिकारमाटे) जयंकर जंगलमा जटक्या करे बे, तेश्रोथी वनवासी प्राणीयो सहित सघलां सुखो पण त्रास पामे डे, वली तेश्रोनी साथेज वेगवाला कुतरा सहित कुःखना समूहो पण जम्या करे , वली विविध प्रकारना आयुधवाला एवा तेश्रो पशुधोनी साथे (पोतानां) पुण्योने पण वींधी नाखे बे. ॥ ११० ॥ संपर्क नरकैः कलिं च कुशलैर्वैरं सतां संगमैः । प्रीति नीतिनरै रघैः परिचयं प्रेमापदां प्रापणैः॥ उधेगं विनयैर्नयैरमिलनं चेदीहसे हे सखे । सत्ववातनयंकरं कुरु तदा साटोपमाडोटनम् ॥ १११ ॥ अर्थ-हे मीत्र! जो तुं नरकसाथे संगम करवाने, पुण्यसाथे क्लेश करवाने, सजनोनी सोबतसाथे वैर करवाने, नयना समूहसाथे प्रीति करवाने, पापोनी साथे परिचय करवाने, फुःखदायक वस्तुउँसाथे प्रेम करवाने, विनयसाथे जोग करवाने, तथा न्यायसाथे नहीं मलवाने श्छतो होय, तोज प्राणीना समूहने जय करनारा एवा शिकारने आटोपसहित कर ? १११ आक्रंदा वनवासिनामसुमतां गीतानि तेषामसृकू । कुड्याः कुंकुमहस्तका अनुचराः कुराः शुनां राशयः ॥ जंतुव्रातपलान्यहो रसवती यस्मिन् मृगव्यामहे । श्वत्रस्त्री परिरभ्यते मृगयुनिःकस्तत्र गत् सुधीः॥ ११॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ अर्थ-जे शिकाररूपी (विवाहना ) महोत्सवमा वनवासी प्राणीउना आक्रंदरूपी गीतो बे, तेश्रोना रुधीरथी नराएलां खाबोचीरूपी कुंकुमना हाथाउ (गपां) डे, ज्यां क्रूर कुतराउंना समूहो सोबती (जानैया) , वली अहो! ज्यां प्राणीउँना समूहना मांसनी रसोइ बे, तथा ज्यां नरकरूपी स्त्री आवीने शिकारीने आलिंगन करे , एवा ते महोत्सवमा कयो उत्तम बुद्धिवान माणस जाय?(अर्थात् न जाय.) ये नीरं विपिबन्ति निरनवं कुंजे च ये शेरते । ये चाश्नन्ति तृणानि कानननुवि ब्राम्यन्ति येऽहर्निशम् ।। ये च स्वरविहारसारसुखिता निर्मन्तवो जन्तवो। हत्वा तान् मृगयासु कः समनबवनेषु नान्यागतः ॥११३॥ . अर्थ-जे बिचारा निरपराधी (वनवासी) पशु करणाउनुं पाणी पीए के, कामीमां सुश रहे , घासो खाय , वननी नूमिमां हमेशां ब्रमण करे , एवी रीते जे स्वेछाचारी मनोहर विहारथी सुखी थएला डे, तेयोने शिकारमा हणीने, कयो माणस नरकनो परोणो थयो नथी? ॥ ११३ ॥ जावान् नतां यत्र नलोंऽबुनूगान् । जवत्रयार्थः समुपैति हानिम् ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०७ आखोटक पेटकमापदां कः । कौतूहलेनापि करोति धीमान् ॥ ११ ॥ अर्थ-जे शिकारमां, खेचर,जलचर, अने थलचरने हणनारा शिकारीना त्रणे पुरुषार्थो हानि पामे बे, एवा फुःखना समूहसरखा शिकारने क्रीडामात्रथी पण कयो बुझिवान आचरे?(अर्थात् नज आचरे) ११४ हवे चौरिकाप्रक्रम कहे बे. प्रहारो यष्टयाथै स्तदनु शिरसो मुंमनमथो । खरारोपाटोप स्तदनु च जगद्गालिसहनम् ॥ ततः शूलारोहो जवति च ततो मुर्गतिगतिविचार्यंतच्चौर्याचरणचरितं मुंचति न कः॥ ११५॥ अर्थ-जे चोरी करवाथी प्रथम तो लाकमी आदिकथी मार पडे बे,पड़ी मस्तक मुंडाव, पडे, पड़ी गधे डापर बेस पडे बे, पळी जगतनी गालो सहन करवी पडे , पठी शूलिपर चमवु पडे , तथा तेथी बेवटे उर्गतिमां उपजवू पडे बे, एवी रीतना चोरीना आचरणना हवाल विचारिने,तेनो कोण त्याग न करे? ११५ नृणां प्राणा बाह्या यदनघयशो यद्यदमलः । कुलाचारो यच्चानुपममहिमा यच्चगरिमा ॥ कलानां यत्केलिर्यदसमतमा रूपरचना। धनं तद्यैरात्तं निखिलमपि तैः संहृतमिदम् ॥ ११६॥ अर्थ-जे धन माणसोना बाह्य प्राणो, निर्दोष यश बे, निर्मल कुलाचार , अनुपम महिमा बे, मोटा, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ {០០ कलाउनी क्रीमा , तथा जे अतुल्य रूपनी रचना, एवं परधन जेए चोरेबुं , तेए सघj हरेलु बे. वैरं विश्वजनैरकारि कलहः कीर्त्या च लोकष्यी। कृत्यैर्मत्सर उत्सवैश्च विरहः सौख्यैरसूयोदयः॥ प्राणै रप्रियता प्रियैरलपनं प्रोहश्च धर्मेच्या। विधेनेन हपश्च तैरतिश यश्चौरिका निर्ममे ॥ ११७ ॥ अर्थ-जे अत्यंत पुष्टोए चोरी करेली बे, तेश्रोए जगतना लोको साथे वैर करेवु ,कीर्तिसाथे क्लेश करेलो बे, बन्ने लोकोना कार्योसाथे मत्सर करेलो , उ. त्सवो साथे विरह करेलो , सुखो साथे अदेखाश्नो उदय करेलो ने,प्राणोसाथे अप्रीति करेली बे,स्नेही साथे अबोला कर्या , धर्मनी श्वासाथे खोह करेलो बे, तथा विश्वास साथे हठ करेलो . ॥ ११ ॥ तत्कीर्तिः कुमुदेन्दुकुन्दकालिकाकर्पूरपूरोपमा । तत्स्फुर्तिः परमप्रमोदविलसत्पावित्र्यपाथः प्रपा ॥ तन्मूर्तिः स्मरपार्थिवस्मयशशिस्वाणुरुद्ञाजते । चौर्य यैर्मुमुचे लसदगुणगणारामैकदावानलम् ॥ ११ ॥ अर्थ-जेनए उलसायमान थता गुणोना समूहरूपी बगीचाने (बालवामां) दावानल सरखी चोरीने तजेली ,तेउनी कीर्ति, चंडविकासी कमल, चंड, डोलरनी कली, तथा कपूरसरखी उज्वल , तथा तेउनी स्फुर्ति, उत्कृष्ट हर्षथी फेलावो पामतुं जे पवित्रपणुं Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०ए तेरूपी पाणीनी परब सरखी , तेम तेश्रोनी मूर्ति, कामदेवरूपी राजाना (रूपना) गर्वरूपी चंजने (ग्रस्त करवामां ) राहुसरखी शोने . ॥ ११ ॥ श्रीकीर्तिविस्फुर्तिलताम्बुवाहं । दौलाग्यदैन्याम्बुजसप्तवाहम् ॥ विधनधाराधरगन्धवाहं । विमुंच चौर्य उरितप्रवाहम् ॥ ११ए॥ अर्थ-अपकीर्तिना फेलावारूपी वेलमीने (वृद्धि करवामां) वरसाद सरखी, पुर्नाग्यपणुं तथा द रिजतारूपी कमलने (विकस्वर करवामां) सूर्य सरखी, अने विश्वासरूपी मेघने (नाश करवामां) पवन सरखी, तथा पापोना प्रवाह सरखी, एवी चोरीने, हे प्राणी! तुं तजी दे ? ॥ ११ ॥ हवे परस्त्रीप्रक्रम कहे . नो हास्यं सुरतप्रपंचचतुरं नालिंगनं निर्लरं । नैवोरोजसरोजयुग्मललुत् पाणिं प्रमीलामलम् ॥ नो बिंबाधरचुंबनं स्थिरतया कुर्यात् पुमान् प्रेयसीमन्येषां रमयन्निकामचकितः कामीति काम्या न ताः॥१०॥ अर्थ-कामी माणस परस्त्रीनी साथे विलास करतो थको ते समये अत्यंत बीकनोमार्यो, तेणीनीसाथे संजोगना प्रपंचमां योग्य एवं हास्य करी शकतो नथी, तेणीने अत्यंत आलिंगन करी शकतो नथी, तेणीना Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० स्तनरूपी कमलना युग्मपर (बरोबर) हस्ताक्षेप करी शकतो नथी,(अत्यंत सुखथी)सारी रीते आंखो वींची शकतो नथी, तेम स्थिरताथी तेणीना बिंबसरखां होग्नुं चुंबन पण लेश शकतो नथी, माटे तेवी परस्त्रीने (नोगववानी) श्छाज करवी नहीं. ॥ १० ॥ पौराणां पुरतः प्रपंच्य महिमां दत्तः पितृन्यां स्वयं । यो दत्वा स्वकरं करेण च वृतः सप्तार्चिषां सादिकम् तं हित्वा पतिमीहते यदितरं या कामिनी कामिनं । तन्नूनं कथमात्मसानवति सा स्वछंदसंचारिणी ॥११॥ अर्थ-जे पतिने नगरना लोकोनी समीपे महोत्सवपूर्वक माबापे पोते आपेलो बे, तथा जेने, पोतानो हाथ तेना (पतिना) हाथमां श्रापीने अग्निनी साहिए वरेलो , ऐवा पतिने तजीने जे स्त्री बीजा कामी पुरुषने इछे बे, ते स्वछंदाचारी स्त्री खरेखर " पोतानी” शीरीते थाय ? ॥ ११॥ पूर्णोऽप्यन्यपरानवैकतमसा यत्संगतो ग्रस्यते । प्राऽतकलंकपंककलितः सुश्लोकशीतद्युतिः ॥ नीचाचारविधौ महानिव नवेदापातमात्रप्रिये । कोऽस्मिन् स्वैरविहारकारिणि सुधीः प्रीतः परस्त्रीजने ॥१२शा अर्थ-जे परस्त्रीना संगथी प्रख्यात अने संपूर्ण पण चंड अन्यना (राहुना) परानवरूपी अंधकारथी ग्रस्त Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १११ थायबे, तथा उत्पन्न थएला कलंकरूपी पंकथी बवाएलो यो बे, माटे नीचना आचारनी विधिमा जेम सन, तेम एवी दुःखदायक तथा स्वेच्छाचारी परस्त्री मां कयो उत्तम बुद्धिवान माणस प्रीतिवालो थाय ? ॥१२२॥ घो स्थितिमी स विमतिर्मुक्त्वामराणां पुरीं । त्यक्त्वा मंदर मेदिनी मवकरानुत्खातुमुत्कश्च सः ॥ पातुं वांति मुक्तनिर्मलजलः स ग्राममार्गोदकम् । त्यक्त्वात्मप्रमदाः पर प्रियतमा यः सेवितुं कांति ॥ १२३ ॥ अर्थ- जे माणस पोतानी स्त्रीने तजीने परस्त्रीने सेववाने इछे छे, ते बुद्धि विनानो माणस देवतानी नगरीने बोडीने गोकुलमां (गायोना टोलामां) र हेवानुं इवे बे, तथा (सुवर्णमाटे) मंदराचलनी जूमिने तजीने करमा खोदवाने वे बे, तेम निर्मल जल तजीने गामकानी गटरनुं पाणी पीवाने ते इछे बे ॥ १२३ ॥ निजांगना संगमनंगरंगा दन्येषु वत्सु यथात्मकोपः ॥ तथा परेषामिति मन्यमानास्त्यजन्ति संतः परकीयपत्नीः ॥ १२४ ॥ अर्थ-जेम अन्य माणसो, कामदेवना रंगथी पोतानी स्त्रीना संगमने वेबते, पोताने जेम क्रोध चडे बे, तेम परने पण चडे, एवं विचारता थका सन पुरुषो परस्त्रीनो त्याग करे छे. ॥ १२४ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only ' Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ हवे इंजियप्रक्रम कहे . सारंगान् चमरानिलांश्च शललान् मीनांश्च मृत्युंगतान् । कर्णघ्राणशरीरनेत्ररसनाकामैः प्रकामोत्सुकः ॥ दृष्ट्वा शिष्टपथप्रवृत्तिविपिनश्रेणीसमुत्पाटने । साटोपपिमिप्रियव्रजमिमं धीमान् विधत्ते वशम् ॥ १२५॥ अर्थ-कान, नाशिका, स्पर्श, नेत्र तथा जीनना रसथी,(अनुक्रमे) हरिणो,त्रमरो,हाथी,पतंगी , तथा माउलांउने मृत्यु पामेला जोश्ने, उत्तम मागनी प्रवृत्तिरूपी वननी श्रेणिनोनाश करवामां उड़त थएला हाथीसरखा, आइंजिना समूहने, बुद्धिवान माणस अत्यंत उत्सुक थश्ने वशमा राखे बे. ॥१२५॥ दंलांनोरुहिणीविकाशन विधौ योऽनोजिनीवसनो। यो लांपठ्यकलाकलापजलधौ पीयूषपादोपमः॥ यः स्पर्धावसुधारुहालिजलदो यश्चोत्पथप्रस्थितौ । पारीणश्च तमुध्धुरं विषयिणां वातं जयन् नजनाक॥१६॥ अर्थ-जे जियोनो समूह कपटरूपी कमलनीने विकस्वर करवामां सूर्यसमान , तथा लंपटतानी कलाना समूहरूपी समुज्ने(वृद्धि करवामां)चंउसमान बे, तेम जे स्पर्धारूपी वृदोनी पंक्तिने (जगामवामां) वरसाद समान ,अने उन्मार्गना प्रस्थानमा जे पारंगामी , एवा उझत इंजिर्जना समूहने जीततो थको प्राणी कल्याणने नजनारो थाय . ॥ १५६ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११३ स प्राज्यैज्वलनैर्विना रसवतीपाकं चिकीर्षुः कुधीस्त्यक्त्वा पोत मगाधवार्धितरणं दो विधित्सुश्च सः ॥ वीजानां वपनैर्विनेति स च देत्रेषु धान्योजमं । योऽक्षाणां विजयैर्विना स्पृहयति ध्यानं विधातुं शुभम् ॥ २७ ॥ अर्थ- जे माणस इंडिजना जीतवा विना शुज ध्यान धरवाने छे छे, ते कुबुद्धि माणस देदीप्यमान अग्नि विना रसोइपाक करवाने इसे बे, तथा वहाणने तजीने हाथोथी अगाध समुद्र तरवाने इछे बे, तेम बीज वाव्याविना ते क्षेत्रोमा धान्यनी उत्पत्तिने इछे बे. ॥ १२७ ॥ रागद्वेषविनिर्जयाम्बुजवने यः पद्मिनीनां पतिः । कृत्याकृत्य विवेककाननपयोवाहप्रवाहश्च यः ॥ यः सद्द्बोधविरोधभूधर शिरःशंबप्रहारोपमः । साम्योल्लासमयं तमिंद्रियजयं कृत्वा जवानंदवान् ॥ २७ ॥ अर्थ-जे इंडिनो जय, रागद्वेषना जयरूपी कमलोना वनने ( विकवर करवामां ) सूर्यसमान बे, तथा जे कृत्याकृत्यना विवेकरूपी वनने ( वृद्धि करवामां ) वरसादना प्रवाहतुल्य बे; तेम जे उत्तम बोधना विरोधरूपी पर्वतना शिखरने (नेदवामां ) वज्जना प्रहारतुल्य बे, एवा समताना उल्लासवाला इंडियना जयने करीने, हे प्राणी! तुं आनंदित था ? ॥ १२८ ॥ विधांसो बहुशो विचारवचनैश्चेतश्चमत्कारिणः । शूराः संति सहस्रशश्च समरव्यापारबन्धादशः ॥ For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ दातारोऽपि पदे पदे घनधनैः कट्पद्रुकल्पाः कलौ । ते केऽपींघियतस्करैरपहृतं येषां न पुण्यं धनम् ॥ २२ ॥ अर्थ-(आ जगतमां) विचारपूर्वक वचनोए करीने चित्तमां आश्चर्य उपजावनारा घणा विद्वानो , तेम रणसंग्रामरूपी व्यापारमा आदरवाला थएला एवा शूराउ पण हजारो गमे ,तेम घणां धनथीथा कलिकालमां कल्पवृक्ष सरखा पगले पगले दान देनाराओ पण घणा बे, पण जेोनुं पुण्यरूपी धन इंजिशोरूपी चोरोए चोरेलु नथी, एवा तो विरलाज होय ॥१॥ हवे दयाप्रक्रम कहे . शक्रस्यैव सुरक्षिषो मधुरिपोरेवांमजानां पतिः । श्रीदस्यैव च पुष्पकं पशुपतेरेवोदचूमामणिः ॥ स्कंदस्यैव नुजंगनुग्गणपतेरेवोंपुरो वाहनं । धन्यस्यैव शिवाध्वनि प्रविदिता यानं कृपा कोविदैः ॥१३॥ अर्थ-इंअनुज जेम ऐरावण हाथी, विष्णुमुंज जेम गरुम, धनदनुज जेम पुष्पकविमान, महादेव-जजेम बलद, कार्तिकेयनुज जेम मयूर, तथा गणपतिनुंज जेम उंदर वाहन , तेम मोदमार्गप्रते (जवामां) को धन्य माणसनुंज दयारूपी वाहन होय ,एम पंमितोए कहेj . ॥ १३० ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११५ गांभिर्य जलधेर्धनं धनपतेरैश्वर्यमेके क्षणात् । सौंदर्य स्मरतः श्रियं जलशयादायुश्च दीर्घ ध्रुवात् ॥ सौभाग्यं शुन मश्विनी सुतयुगान्वक्तिं च सत्याः सुतालावा तं विदधे विधिर्विधिमनाश्चक्रे कृपा योंsगिषु ॥ १३० ॥ अर्थ- जे माणसे प्राणी प्रते दया करेली बे, तेने विधिमा बे चित्त जेनुं एवा ब्रह्माए समुद्रमांथी गंजीरताने, कुबेरपासेश्री धनने, महादेवपासेथी ऐश्वर्यने, कामदेव पासे थी सुंदरताने, विष्णुपासे थी लक्ष्मीने, ध्रुव पासेश्री दीर्घ आयुष्यने, अश्विनी पुत्रोपाथी मनोहर सौनाग्यने, तथाव्यासपासे थी शक्तिने ले इनेबनावेलोबे नानामौक्तिकम विद्रुममणिद्युम्नाह्वयं गोमयं । दुग्धं दुग्धपयोधिहारिलहरीशुभ्रं यशः संचयम् ॥ विश्वं विश्वजनेहनीयमहसं स्वर्गापवर्गोदयं । या यत्यनिशं दयामरगवी सा रक्ष्यतामयम् ॥ १३२ ॥ अर्थ- जे दयारूपी कामधेनु, हमेशां नाना प्रकारना मोती, सुवर्ण, परवालां, मणि तथा धनरूपी गोमयने (बाण) पेबे, तथा कीर समुद्रना मनोहर मोजां सरखा श्वेत यशना समूहरूपी दूधने थापे बे, वली जे जगतमां मनोहर प्रजाववाला एवा स्वर्ग अने मोक्षना उदयरूप वत्सने ( वाबरमाने ) पे बे, एवी दयारूपी कामधेनुनुं जेम तेनो विनाश न थाय, तेवी रीते रक्षण करतुं ॥ १३२ ॥ For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ स्तारुदयं रवेः स लवणान्माधुर्यमास्याददेः । पीयूषं च कुहोरनुष्ण किरणं हानिं कुपथ्यादुजाम् ॥ पावित्र्यं श्वपचाद्दिनं च रर्जने दीक्षां श्रियां संग्रहात् । कांतारान्नगरं च कांति वधाद्यो धर्ममित्यधीः ॥ १३३ ॥ अर्थ- जे बुद्धिविनानो माणस (प्राणीयोना) वधथी धर्मने इछे बे, ते अस्ताचलप्रतेश्री सूर्यना उदयने इ बे, लवणमांथी मीठाशने इछे बे, सर्पना मुखमांथी केरने इवे, अमावास्याथी चंद्रने इछे बे, अपथ्य जोजनथी रोगोनी हानिने इछे बे, चांडालथी पवित्रपपाने इछे बे, रात्री थी दिवसने इसे बे, लक्ष्मीना संग्रही दीक्षाने छे वे, तथा ते वनमांथी नगरने इछे बे. धर्माणां निधिरास्पदं च यशसां संजोग मिः श्रियामास्थानं महसां च जूरविपदां यानं जवांजोनिधौ ॥ स्कंधः सम्मतिवीरुधां प्रियसखी स्वर्गापवर्गश्रियां । धन्यानां दयिता दयास्तु दयिता क्लेशैरशेपैरलम् ॥ १३४ ॥ अर्थ-धर्मोना जंगाररूप, यशोना स्थानकरूप, लक्ष्मी उनी संयोगनू मिरूप, प्रजावोनी सज्जारूप, सुखोनी भूमिरूप, जवरूपी समुद्रप्रते वहाणरूप, उत्तम बुद्धिरूपी वृहोना स्कंधरूप, तथा स्वर्ग ने मोलक्ष्मीनी वहाली सखीरूप एवी दयारूपी वहाली स्त्री धन्यपुरुषोने था? बीजा क्लेशोथी सर्यु. ॥ १३४ ॥ १ ङीषनावरेज निरपि Jain Educationa International For Personal and Private Use Only - Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१७ हवे सत्यप्रक्रम कहे . कीर्तों कल कूर्चकं हलमुखं विश्वासविश्वातले । नानानर्थकदर्थनावनघनं कौली नकेलिगृहम् ॥ प्रेमप्रौढपयोदपूरपवनं सन्मानमुस्तांकुरे । कोल कोलसदाशयोऽङ्गुतमतिर्माषां मृषां जाषते ॥ १३५ ॥ अर्थ - कीर्तिप्रते काजलना कूर्चक (पीठी) सरखा, विश्वासरूप पृथ्वीतलप्रते हलसरखा, नाना प्रकारना अनर्थोनी कदर्थनारूप वनप्रते मेघ सरखा, दुष्ट कार्योने कीमा करवाना घरसरखा, प्रेमरूपी निविम वरसादना समूहप्रते पवन सरखा, तथा सन्मानरूपी मोथना अंकुराते कोलसारखा ( सुअर सरखा ) एवा जूठा वचनने, जलसायमान श्राशयवाली थएली बे बुद्धि जेनी एवो कयो माणस बोले ? (अर्थात् न बोले ). १३५ सिंदूर : करिमूर्ध्नि मंदिरमणिर्गे च देहेऽसुमां | स्तारुष्यं चलचषि तिपतियोंनि द्विजेशो निशि ॥ प्रासादे प्रतिमालिके च तिलकं भूषा यथा जायते । कीर्तेः केलिगृहं तथा तनुमतां वक्त्रै वचः सूनृतम् १३६ अर्थ-जेम हाथीना मस्तकपर सिंदूर, घरमा दीपक, शरीरमां जीव, स्त्री मां तारुण्य, आकाशमां सूर्य, रात्री ए चंद्र, देवालयमां प्रतिमा, तथा जेम ललाटमां तिलक शोनारूप थाय बे, तेम कीर्तिने क्रीमा करवाना घर For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ समान एवं सत्यवचन प्राणिश्रोना मुखमां भूषणरूप थाय बे ॥ १३६ ॥ " हानिमेति ददतां धनमुच्चैः । शीलतो भवति जोगवियोगः ॥ जायते च तपसा तनुका । हीयते किमपि नानघवाक्यैः ॥ १३७ ॥ अर्थ- घणुं दान देवाथी धननी हानि थाय बे, शील ( पालवाथी) जोगोनो वियोग थाय बे, तप ( तपवाथी) शरीर डुबलुं थाय बे, पण सत्य वचन बोलवाथी तो कंइ पण नुकशान यतुं नथी ॥ १३७ ॥ • अग्निः शाम्यति मुंचति प्रनुरपामौद्धत्यमोघो रुजां । यात्यस्तं विकटा घटा करटिनामाटीकते नान्तिकम् ॥ शैथिल्यं समुपैति सिंधुररिपुः सर्पोऽपि नोत्सर्पति । प्राग् दूरापयाति दस्युरणजीः सत्यं वचोजहपताम् ॥ १३८॥ अर्थ- सत्य वचन बोलनारायप्रते अग्नि शांत याय बे, समुद्र कोजने तजे बे, रोगोनो समूह नाश पामे बे, हाथी थोनी जयंकर श्रेणि तेनी समीप यावती नथी, सिंह शिथिल थर जाय बे, सर्प पण तेनी नजदीक श्रवतो नयी, तेम तेनाथी चोर ने रणसंग्रामनी बीक तो तुरत दूर चाली जाय बे ॥ १३८ ॥ तस्माद्वैरमुपैति दूरमुरगश्रेणिः सुपर्णादिव || शो नश्यति जास्करादिव तमस्तस्मादकस्माद्भवः । For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ तस्माद्जी स्तु हिना दिवांबुरुहिणी संजायते नश्वरा । सत्यति गीर्यदीयवदनादू गंगेव गौरीगुरोः ॥ १३५ ॥ अर्थ - हिमाचलमांथी जेम गंगा, तेम जेनां मुखमांथी सत्य वाणी निकले बे, तेनी पासेश्री, गरुमथी जेम सर्पोनी श्रेणि, तेम वैर दूर जाय बे, तथा सूर्यथी जेम अंधकार, तेम तेनाथी अकस्मात यएलो क्वेश नाशी जाय बे ने हिमथी जेम कमलिनी तेम तेनी पासेथी जय तो नष्टज थाय बे ॥ १३८ ॥ हवे दत्तप्रक्रम कहे बे. प्रेमपंकरुहिणीपति पूर्वशैलं । धर्मार्थकामकमलाकर शर्वरीशम् ॥ स्वर्गापवर्गपुर मार्ग निरोधयोधं । स्तेयं निराकुरुत कीर्तिलताकुगरम् ॥ १४० ॥ - प्रीतिरूपी सूर्यना ( उदयमाटे) पूर्वाचल समान, तथा धर्म अर्थाने कामरूपी कमलोना वनने ( नाश करवामां ) चंद्रसमान, श्रने स्वर्ग तथा मोक्षरूपी नगरीना मार्गने रोकवामां सुजट समान, तेम कीर्तिरूपी वेलमीने (कापवामां ) कुठारसमान एवी चोरीने, हे प्राणी तुं दूर कर ? ॥ १४० ॥ कीर्ति हंति खलश्च बालमिलनं माहात्म्यमंगंमहाव्याधिस्तनयः कुलं च विमलं चिंता मनश्चारुताम् ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० स्त्रीशीलं स्मरलंपटश्च कपटः पुण्यं गुणानीचता । मत्यैर्वित्तमदत्तमात्तमिह यैः सर्व हतं तैरिदम् ॥ ११ ॥ अर्थ-पुर्जन माणस कीर्तिनो नाश करे ,मूर्खसाथेनो मेलाप मोटाइनो नाश करे डे, (मरकी श्रादिक) महारोग शरीरनो नाश करे , कुपुत्र निर्मल कुलनो नाश करे , चिंता माननी मनोहरतानो नाश करे बे, कामातुर थएलो (माणस) स्त्रीना शीलनो नाश करे , कपट पुण्यनो नाश करे , तथा नीचपणुं गुणोनो नाश करे , पण जे माणसोए था जगतमां चोरी करीने धन मेलव्यु , तेश्रोए ते सर्वनो नाश कों बे; ( एम जाणवू.)॥ १४१॥ नुक्त्वोच्चै विषमं विषं विषनृता तैः कामितं जीवितं । तैरब्धेरतुलं निपीय सलिलं तृष्णादयोऽनीप्सितः ॥ क्षिप्त्वा कुन्तमुखं च तैर्नयनयोः कंमुदतिः कांदिता । यैरादाय परधिमात्मसदने पूर्तिः श्रियामीहिता ॥ १५ ॥ अर्थ-जेश्रोए परनुं धन चोरीने पोताना घरमां लदमीनी पूर्णता श्चेली बे, तेश्रोए सोनुं आकरुं फेर खूब खाइने जीवितने बयु डे, तेम तेश्रोए समुपर्नु पाणी खूब पीने पोतानी तृषानो नाश श्यो , तथा तेश्रोए नालांनी अणि आंखोमा नांखीने (तेमांथी ) खरजनो नाश श्वयो . ॥ १४ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्त्रीणां हार श्वातिपीनकुचयोः कांचीव कांचीपदे । गो पत्रलतेव कळालमिवालंकारकृच्चक्षुषोः ॥ रेणु मिविभूषणं चरणयोः पुण्यात्मनां जायते । ऽन्येषां वित्तमदत्तमत्र जहतां पुंसां प्रशंसापहम् ॥ १४३ ॥ अर्थ-स्त्रीश्रोना अति कठिन एवां स्तनोपर जेम हार,केम्पर जेम कंदोरो, गालपर जेम वक्षरी (पील) तथा आंखोमां जेम काजल अलंकाररूप थाय , तेम प्रशंसाने पात्र एवा नहीं दीधेला (अदत्त) परनाधननो त्याग करनारा पवित्र माणसोना चरणोनी रज (समस्त ) पृथ्वीना अलंकाररूप थाय जे. ॥१३॥ अदत्तादानमाहात्म्य- महो वाचामगोचरम् । यदर्थमाददानाना- मनर्थोऽन्येति सद्मनि ॥ १४ ॥ अर्थ-( कवि कहे बे के,) अहो!! चोरीनुं माहात्म्य वचनोने पण अगोचर ने. केमके, चोरोनुं अर्थ (धन) लेनाराओना घरमा उलटो अनर्थ आवे . ए आश्चर्य . ॥ १५४ ॥ हवे ब्रह्मप्रक्रम कहे . दो- ये जलधेस्तरन्ति सलिलं पद्न्यां ननःप्रांगणे । ये ब्राम्यन्ति च वारवापरहिताः कुर्वन्ति ये चाहवम् ॥ ये उष्टामटवीमटन्ति पटवस्ते सन्ति संख्यातिगास्ते केचिच्चलचकुषां परिचयैश्चित्तं यदीयं शुचि ॥ १४५ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ अर्थ - जे बन्ने हाथोथी समुद्रना पाणीने तरे बे, तथा जेर्ज आकाशमां पगोथी भ्रमण करे बे, तेम जे बख्तर ने बाणो विना रणसंग्राम करे बे, छाने जे चालाक थया थका जयंकर जंगलमां जटके बे, एवा तो संख्याता माणसो बे, पण जेयोनुं चित्त चलायमान चोवाली स्त्रीयोना परिचयथी पण पवित्र रहेतुं बे, एवा तो विरलाज होय बे ॥ १४५ ॥ खद्योतैरिव नानुमांश्च जपणैः कुंजीव जंनदिषः । सारंगैरिव केसरी मखनुजां नर्तेव दैत्यव्रजैः ॥ सौपर्णेय श्वोरगैश्च मरुतां स्तोमैरिवस्वर्गिरि स्त्री निजि यदी यहृदयं शूराय तस्मै नमः ॥ १४६ ॥ अर्थ - पतंगी थी जेम सूर्य, कुतराउंथी जेम इंद्रनो हाथी, हरिणोथी जेम केसरी सिंह, दैत्योना समूहोथी जेम इंद्र, सर्पोथी जेम गरुम तथा पवनना समूहोथी जेम मेरुपर्वत, तेम जेनुं हृदय स्त्री खोथी नेदायुं नथी, तेवा शूरा पुरुषप्रते नमस्कार थाश्रो ? ॥ १४६ ॥ गुह्यं दुर्जनचेतसीव सलिलं मूर्तीव धात्रीनृतो । युद्धोर्व्यामिव कातरः कलिमलः स्वांते सुसाधोरिव ॥ दौर्गत्यं धरणीरुही मरुतां भेजे न चेतोंबुजे । स्थैर्य यस्य मृगीदृशां विलसितं धन्याय तस्मै नमः ॥ १४७ ॥ अर्थ- दुर्जनना चित्तमां जेम गुह्य वात, पर्वतना शिखरपर जेम पाणी, समरांगणमां जेम कायर, उत्तम मु Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२३ नीना मनमा जेम क्लेशनो मेल, तथा वृदोमां जेम पवनोनु उहतपणुं स्थिर रहेढुं नथी, तेम जेनां चितरूपी कमलमां स्त्रीश्रोनो विलास स्थिर रहेलो नथी, एवा धन्य पुरुषप्रते नमस्कार थायो ? ॥१४॥ नंगनोगैर्लसदंतरालैनेणीदृशां देहसदर्पसपैः॥ सध्यानदीपः समियाय शांतिं । तस्मै नमः संयमिकुंजराय ॥ १४ ॥ अर्थ-अंदर उलसायमान थता चुकुटीना नंगरुपी फणावाला, एवा स्त्रीयोना शरीररुपी उन्नत सोए करीने, जेनो उत्तम ध्यानरुपी दीपक ठरी गएलो नथी, एवा संयमीश्रोमां अग्रेसर सरखा पुरुष प्रते नमस्कार थाओ? ॥ १४ ॥ हवे परिग्रहप्रक्रम कहे . नूयोनारजराजिततरणी वा विवोनीषणे । संसारे सपरिग्रहा तनुजुषां राजिर्निमजात्यधः॥ तत्कांदन्ति परिग्रहं जपतपश्चारित्रपावित्र्यधीः । शुमध्यानविधौ विधुतुदममुं मोक्तुं विमुक्तौ रताः॥१४॥ अर्थ-नयंकर समुडमा घणा नारना समुहथी सुबुंमुबु थएला वाहणनी पेठे, या संसारमा परिग्रहयुक्त, एवी माणसोनी श्रेणि नीचे नीचे (नरकादिक Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ गतिमां) मुबे जे; तेथी मुक्तिरुपी स्त्रीमा श्रासक्त थएला प्राणीयो जप, तप, चारित्र, पवित्रता, बुद्धि, अने शुक्र ध्यानरुपी चंडने (प्रसवामां) राहु सरखा ते परिग्रहने डोमवाने श्छे बे. ॥ १४ए ॥ प्रषबंधुः कलहैकसिंधुः। प्रमादपीनः कुमताध्वनीनः ॥ औचत्यहेतु कृतिधूमकेतुः। परिग्रहोऽयं उरितद्रुतोऽयम् ॥ १५ ॥ अर्थ-वेषना बंधुसरखो, क्लेशना समुनसरखो. प्रमादथी पुष्ट थएलो, कुमतमा दोरी जनारो, उछतपणाना हेतुरुप, तथा धीरजप्रते धूमकेतु सरखो आ परिग्रह पापोथी उपजवयुक्त थएलो वे.॥१५॥ पित्रोरूपास्तिं सुकृतानुशास्ति । प्राज्ञैः प्रसंगं गुणवत्सु रंगम् ॥ परिग्रहप्रेरितचितवृत्ति जहाति चैतन्यमिव प्रमीतः ॥ १५१ ॥ अर्थ-मृत्यु पामेलो प्राणी जेम चैतन्यने, तेम परिग्रथी प्रेराएली ने चित्तनी वृत्ति जेनी, एवो माणस माबापनी सेवाने, पुण्योनी शिखामणने, विद्वानो साथेना संगने, अने गुणवानो प्रतेना चित्तानिलाषने पण तजे . ॥ १५१ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२५ नादित्यादपरः प्रतापनपटुर्नाब्धेः परस्तोयवान् । नैवान्यः पवमानतश्च चटुलो दुष्टो न मृत्योः परः ॥ नैवाग्नेरितरः कुधाजितधी चौरः स्मरान्नेतरो । दोषान्यान्न परिग्रहात्परमधस्थानं तथा सर्वथा ॥ १५२ ॥ अर्थ- जे सूर्यथी बीजो कोइ प्रतापी नथी, समुइथी बीजो कोई पाणीवालो नथी, पवनथी बीजो कोइ चंचल नथी, मृत्युथी बीजो कोइ दुष्ट नथी, अग्निथी बीजो को मुखावरो नथी, तथा कामदेवथी जेम बीजो कोइ चोर नथी, तेम डूषणोथी नरेला एवा परिग्रहथी बीजं कोइ पण पापोनुं स्थानक नथी. १५२ धर्मध्यानमधीरयंस्तरुमिव प्रोत्सर्पि कपानिलः । प्रीतिं पंजिनीमिव पिपतिर्निर्मूलमुन्मूलयन् ॥ प्रावीण्यं च पयोजिनी पतिमिव स्वर्णाणुराबादयन् । लाघामेति परिग्रहः किमु कदा कादंबरीपानवत् ॥ १५३ ॥ अर्थ - जलसायमान थतो एवो कल्पांतकालनो पवन जेम वृने, तेम धर्मध्यानने चलित करतो, मदोन्मत्त हाथी जेम कमलिनीने, तेम प्रीतिने मूलमांथी उखे मी कहाडतो, तथा राहु जेम सूर्यने, तेम पंगिताइने आछादित करतो, एवो परिग्रह, मदिरापाननी पेठे शुं प्रशंसाने पामे बे ? ( अर्थात् नथी पामतो. ) ॥ १५३ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ हवे गुण प्रक्रम कहे . तुंबेषु चापेषु च मौक्तिकेषु । गुणाधिरोपान्महिमामुदीदय ॥ कार्यः कदर्यै रिव कांचनेषु । यत्नो गुणेष्वेव मनस्विमान्यैः ॥ १५४ ॥ अर्थ-तुबमांश्रोमां, मनुष्योमां, अने मोतीमां गुणोना ( दोरीना ) आरोपणथी (थता) महिमाने जोश्ने, लोनी माणसो जेम व्योमां, तेम पंडितोमां अग्रेसर एवा माणसोए गुणोमांज प्रयत्न करवो. ॥ १५४ ॥ दौर्जन्यसले मनुजे वसन्तो। गुणा नवेयुर्नहि गौरवाय ॥ गुणाधिरोपः परपीमनाय । कदापि चापेष्विव किं न दृष्टः॥ १५५ ॥ अर्थ-उर्जनताथी नरेला मनुष्यमा रहेला गुणो पण गौरवपणामाटे थव शकता नथी, केमके, धनुव्योमा रहेलो गुणनो (दोरीनो) श्रारोप परनी पीडा माटे थाय ने, ए, (हे प्राणी!) तें शुं को दहामो जोयुं नथी ? ॥ १५५ ॥ वेषव्यतिर्विशदवसनादेव साध्यातिमेध्या। विद्या हृद्या स्वमतिविनवादेवलच्यातिसन्या । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२७ वित्तावाप्तिर्भवति च बहोरूद्यमादेव दिव्या | वस्त्रप्रोद्यमपरिचयैः प्राप्यते नो गुणौघः ॥ १५६ ॥ अर्थ - पवित्र एवी वेषनी रचना निर्मल वस्त्रथीज शके बे, तेम मनोहर ने शोजनिक एवी विद्या पोतानी बुद्धिना वैजवथीज मली शके बे, अने दिव्य एव धननी प्राप्ति अत्यंत उद्यम करवायीज थाय बे, पण ते वस्त्र, बुद्धि अने उद्यमना परिचयोथी गुणोनो समूह प्राप्त थइ शकतो नथी. ॥ १५६ ॥ पाषाणखान्यपि मौक्तिकानि । यत्संक्रमाब्लोलविलोचनानाम् ॥ वक्षः स्थलेऽलंकरणी जवन्ति । तेषां गुणानां महिमा महीयान् ॥ १५७ ॥ अर्थ- जे गुणना ( दोरीना ) संक्रमणथी, चपल नेत्रोवाली (स्त्रीओना ) हृदयस्थलमां पाषाणना ghari पण मोतीरुपे थर आभूषण तरिके थाय टुकमा बे, तेवा गुणोनो महिमा मोटोज बे ॥ १५७ ॥ जातिः शारदशर्वरीश्वररूचां सौंदर्यसंहारिणी । बुद्धि बहसमान वाङ्मयसरिन्नाथप्रमाथा विराट् ॥ रूपं दर्पकदर्पसर्पफणनृत्प्रत्यर्थितुल्यं पुनस्तादृग्गौरवनाजनं नवति नो यादृग्गुणानां गए ः॥ १५० ॥ अर्थ- जेवो गुणोनो समूह गौरवना जाजनरूप थाय For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२७ बे, तेवी, शरद कतुना चंद्रनी कांतियोनी सुंदरताने हरनारी जाति पण घती नथी, तेम अतुल्य एंवा विद्यारूप समुद्रने (मंथन करवामां ) मंथाचल सरखी बुद्धि पण थती नथी, ने कामदेवना अहंकाररुपी सर्पने गरुम समान एवं रूप पण तेवी रीतना गौरवना जाजनरूप यतुं नथी ॥ १५८ ॥ B हवे वैराग्यप्रक्रम कहे बे. ग्रामीणेष्विव नागरोsर्ककुसुमस्तोमेष्विवालिर्युवा । मातंगो मरुमेदिनीष्विव मृगो दग्धेषु दावेषु च ॥ चक्रश्चंदिरदीधितिष्विव शमीगर्नेष्विवांजश्चरो । नो जोगेषु रतिं करोति हृदयं वैराग्यनाजां क्वचित् ॥ १५॥ | अर्थ- गांममी यामां जेम नगरनो रहेवासी, याकमाना पुष्पोमां जेम युवान जमरो, मारवामनी भूमि मां जेम हाथी, दावानलथी सल गेलां (वनोमां) जेम हरिण, चंद्रनां किरणोमां जेम चक्रवाक तथा अग्निमां जेम जलचर प्राणी, तेम वैराग्यवंत माणसोनुं हृदय कोइ पण जोगोने विषे नंदने मेलवतुं नथी ॥ १५णा यांति न दुर्भगामिव वधूं प्रोत्तुंगपीनस्तनीं । यत्स्त्रिांति न तस्करैरिव सदा मुत्सुंदरैः सोदरैः ॥ नो मुह्यंति च पन्नगेष्विव मणिहारेष्वपारेषु च । योगोद्योगनियोगिनः प्रशमिनस्तत्साम्यलीलायितम् ॥ १६० । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ए अर्थ-योगना उद्योगमा जोमाएला समतावंतमाणसो,जे, पुर्नागिणीनी पेठे, जंचा अने कठीन स्तनोवाली स्त्रीने श्चता नथी, तथा चोरोसाथे जेम, तेम हमेशां हर्षवंत नाश्श्रो साथे पण स्नेह करता नथी, अने सर्पोमां जेम तेम घणा एवा मणियोना हारोमां पण जे मोह पामता नथी, ते सघर्चा समतानुं (वैराग्यनुं ) माहात्म्य बे. ॥ १६० ॥ यत्संसारसरोजसोमसदृशं यइंलदीपाती। सर्पः सूर्पकशत्रुदर्पदलने यचंचूमामणिः ॥ यत्सद्बुद्धिवधूविनोदसदनं यत्साम्यसंजीवनं । वैराग्यं लसदात्मने प्रियसुहत्तद्देहि देहि प्रियम् ॥ १६१ ॥ अर्थ-जे वैराग्य संसाररुपी कमलने ( नष्ट करवामां) चंड सरखो , कपटरुपी दीपकनी कांतिने (पूर करवामां) सर्प सरखो , कामदेवना अहंकारने दलवामां महादेव सरखो बे, उत्तम बुद्धिरुपी स्त्रीने क्रीमागृह सरखो , समताने जीवामनारो , श्रात्माप्रते प्रिय मित्र सरखो , तथा जे वैराग्य प्राणीयोने हितकारी , एवो वैराग्य मने श्रापो ? यत्कांताकेलिकुंवं यदमृतमधुरे जोजने जननावं । यन्माट्यामोदमंदं यदघननिनदे वाद्यवृंदे सनिजम् ॥ यत्सद्रूपस्वरूपे दाणसुखविमुखं यदाणे क्षीणकांदं । यघीत्ते वीतवांचं हृदय मिदमजूत्तविरक्तत्वचिन्हम् ॥१६॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० अर्थ-(प्राणीओनु) हृदय जे स्त्रीश्रोनी क्रिमामां कुंठित थयुं , अमृत सरखां मधुर जोजनमां नाव रहित थएबुं ने, पुष्पोनी सुगंधिमां मंद थएबुं बे, उत्तम नादोवाला वाजित्रोना समूहमा उत्कंग वि. नानुं थयुं , उत्तम रूपने जोवामां मलतां दणिक सुखथी विमुख थएवं बे, महोत्सवमा वांग रहित थयुं ने, तथा धनमां पण जे श्वा रहित थयुं बे, ते लघj वैराग्यनुं लक्षण जे. ॥ १६ ॥ हेमंते हिमवातवेखितवने वस्त्रैविनायस्थितिग्रीष्मे नीमखरांशुककेशरजःपुंजेषु शय्या च यत् ॥ यर्षासु गिरेगेंहासु वसतिश्चैकाकिनां योगिनां । ताननिबंधनै रविजितं वैराग्यविस्फुर्जितम् ॥ १६३ ॥ अर्थ-हेमंत ऋतुमां ठंमा वायुथी जरेलां वनमां वस्त्रो विना जे स्थिति, ग्रीष्म ऋतुमा प्रचंड सूर्यना कीरणोथी तपेली रेतीना ढगलमा जे शयन करवू, तथा वर्षा ऋतुमा पर्वतनी गुफाश्रोमांजे रहे,ते सघर्चा एकाकी रहेता योगियोनुं मुानना निबंधनोथी नहीं जीताएबुं एवं वैराग्यनुज महात्म्य . ॥ १६३ ॥ हवे विवेक प्रक्रम कहे बे. काव्यानां करणैः कृतं सुरूचिरैर्वाचां प्रपंचैः सृतं । पूर्ण बाहुबलैरलंच तपसां पूरैः प्रसिघयंकुरैः॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३१ एकश्छेकजनप्रमोदविपणिः सव्यो विवेकः सखे । सर्वा येन विर्नेऽनेव रजनिः श्रेणिर्गुणानां मुधा ॥१६॥ अर्थ-हे मित्र ! काव्यो करवाथी सर्यु; मनोहर वचनोना प्रपंचोथी सयु, जुजाना बलोथी सर्यु तथा कीर्तिना अंकुरा सरखा तपोना समूहोथी पण सयु, पण फक्त एक उत्तम माणसोना हर्षनी पुकान सरखो एवो विवेकज सेववो; केमके ते विवेकविना चंधविना जेम रात्रि, तेम ते गुणोनी सघली श्रेणि फोकटज बे. ॥ १६ ॥ यस्मिन् रम्यरूचेर्यशःकुमुदिनीनतुनवेत्संनवः । संप्राप्त्यै विबुधेश्वरैरिह गवां यः सेव्यते रत्ननूः ॥ येनोद्यत्कतिहारिणी गुणमणिश्रेणिश्च विश्राण्यते । दत्ते कस्य हरे रिवैष न रमां वैदग्ध्य मुग्धोदधिः॥१६॥ अर्थ-जे विवेकरुपी दीर समुखमांमनोहर कांतिवाला यशरुपी चंजनी उत्पत्ति थाय बे, तथा रत्ननी नूमिरुप एवो जे विवेकरुपी समुप महान पंमितोए करीने (इंशोए करीने) कीर्तिनी (पाणीनी ) प्राप्तिमाटे सेवाय , तथा जेमांथी उत्पन्न थती केटलाक मनोहर गुणोपी मणिोनी श्रेणि मेलवी शकाय बे, एवो ते विवेकरुपी क्षीरसमुज, विष्णुने जेम तेम कोने लक्ष्मी आपतो नथी ? (अर्थात् सर्वने श्रापे बे.) Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ वैराग्यं सुनगं तदेव यशसां राशिः स एवोल्लसन् । स्फुर्तिः सैव शुजा च सैव च गुणश्रेणिर्मनोहारिणी ॥ ध्यानं धन्यतमं तदेव वचसामोघस्स एवानघ - स्तारास्विंडर मंदनंदनवनं यत्रौचिती चंचति ॥ १६६ ॥ अर्थ - ताराोमां जेम चंद्र, तेम अत्यंत पूजानां स्थानकरूप एवो जेमां विवेक शोजी रह्यो बे, तेज वैराग्य मनोहर जावो, तेज यशोनो समूह जलसायमान जावो, तेज कीर्ति शुन जाणवी, तेज गुणोनी पंक्ति मनोहर जाणवी, तेज ध्यानने वधारे धन्य जाणवुं, तथा तेज वचनोनो समूह पण निर्मल जाएवो ॥ १६६ ॥ शुर्यधोरणविव करित्रातेष्विवैरावणः । · कल्पदुः पृथिवीरुहेष्विव फणिश्रेणिष्विवाही श्वरः ॥ स्वः शैलो धरणीधरेष्विव हयस्तोमेष्विवोच्चैःश्रवा । जाति ख्यातिगृहं गुणेषु विलसन्नेको विवेकोदयः ॥ १६७ ॥ अर्थ- होनी श्रेणियोमां जेम सूर्य, हाथीयोना टोलांओमां जेम ऐरावण, वृक्षोमां जेम कल्पवृक्ष, सर्पोनी श्रेणिश्रोमा जेम शेषनाग, पर्वतोमां जेम मेरु, तथा घोमाधोना समूहोमां जेम उच्चैःश्रवा (ईइनो घोमो ) तेम कीर्तिना स्थानक सरखो तथा उवसायमान थतो एवो एक विवेकनोज उदय सघला गुणोमां शोने बे ॥ १६७ ॥ For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३३ यस्माद्याचकलोककोकरुचिमानर्थः समर्थोदयः । कामश्चें प्रिय चित्तवृत्तितटिनी प्रोत्कर्षवर्षागमः ॥ धर्मश्च त्रिदिवा पुनर्जवजवः प्रादुर्भवत्यंजसा । नव्योऽयं मुदमातनोतु महतामौचित्यचिंतामणिः ॥ १६८ ॥ अर्थ- जे विनयरूपं चिंतामणि रत्नथी, याचक लोकरूपी चकोरप्रते चंद्र सरखो, तथा समर्थ उदयवालो अर्थ उत्पन्न थायडे, तथा इंद्रियाने चित्तनी वृत्तिरूपी नदीने जलसायमान करवामाटे वरसादना यागमन रूप काम उत्पन्न थाय बे, तथा देवगति ने मोहरूपी धर्म जेथी तुरत उत्पन्न याय बे, एवं या विवेकरूपी नवुं चिंतामणि रत्न महान पुरुषोना यानंदने विस्तारो ? नक्तिस्तीर्थकृतां नतिः प्रशमिनां जैनागमानां श्रुतिमुक्तिर्मत्सरिणां पुनः परिचितिर्ने पुष्य पुण्यात्मनाम् ॥ अन्येषां गुणसंस्तुतिः परहृतिः क्रोधादिविद्वेषिणां । पापानां विरती रतिःस्वसुदृशामेषा गतिर्धर्मिणाम् ॥ १६९ ॥ अर्थ - तीर्थंकरोनी जक्ति, मुनिधोने नमस्कार, जैन सिद्धांतोनुं श्रवण, मत्सरीयोनो त्याग, माहापणथी पवित्र थला माणसोनो संग, परना गुणोनी स्तुति, क्रोधादिक वैरीयोनो परिहार, पापोनी विरति, तथा पोतानी स्त्रीयोप्रते प्रेम, एवी रीतनुं लक्षण धर्मी माणसोनुं बे ॥ १६७ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ सौजन्यं जनकः प्रसूरुपशमस्त्यागादरः सोदरः। पत्नी पुण्यमतिः सुहृद्गुणगणः पुत्रस्त्रपासंगमः ॥ नैर्दन्यं नगिनी दया च मुहिता प्रीतिश्च मातृस्वसा। साजानंदकुटं कुटुंबकमिदं प्राहुः सतां धीधनाः ॥ १७ ॥ अर्थ-सजानतारूपी पिता,शांततारूपीमाता,दानना. श्रादररूपी नाइ,पुण्यनी बुद्धिरूपी स्त्री, गुणोना समूहरूपी मित्र,लजानासंगरूपीपुत्र,निर्दनतारुपीबेहेन, दयारूपीदीकरी,तथाप्रीतिरूपी मासी,एवी रीतनुश्रानंदनासमूहरूप सऊनोनुं कुटुंब बुद्धिवानोए कहेढुंबे. अर्चाहतां संयमिनां नमस्या । संगः सतां संश्रुतिरागमानाम् ॥ दानं धनानां करुणांगनाजां। मार्गोऽयमारुदितः शिवस्य ॥ १७१॥ अर्थ-अरिहंत प्रजुयोनी पूजा, संयमधारीने नमस्कार, सङनोनो संग, आगमोनुं श्रवण, तथा अव्योनुं दान, एवी रीतनो मोक्षमार्ग उत्तम माणसोए दयालु माणसोमाटे कहेलो . ॥ ११ ॥ विस्फुर्तिमत्कीर्तिरनिंद्यविद्या । समृधिरिया रमणीयरूपम् ॥ सौलाग्यसिद्धिर्विमलं कुलं च । फलानि धर्मस्य षमप्यमूनि ॥ १७ ॥ अर्थ-स्फुरायमान थती कीर्ति, पवित्र विद्या, वृद्धि Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३५ पामेली संपदा, मनोहर रूप, सौभाग्यनी सिद्धि तथा निर्मल कुल, ए ए धर्मनां फलो बे ॥ १७२ ॥ # सौहार्ददृष्टिः सुकृतैकपुष्टिः । परोपकारः करुणाधिकारः ॥ विवेकयोगः समतानियोगः । संतोषवृत्तिः कृतिनां प्रवृतिः ॥ १७३ ॥ अर्थ-मित्रतावाली दृष्टि, पुण्यनी पुष्टि, परनो उपकार, दयालुपएं, विवेकनो संयोग, समतानुं धारयुं, अने संतोषवृत्ति एटली पुण्यशाली उनी प्रवृत्ति बे. १७३ ज्ञानी विनीतः सुजगः सुशीलः । प्रभुत्ववान्न्यायपथप्रवृत्तः ॥ त्यागी धनाढ्यः प्रशमी समर्थः । पंचाप्यमी भूमिषु कल्पवृक्षाः ॥ १७४ ॥ अर्थ- ज्ञानी ने विनयी, सौभाग्यवालो थश्ने उत्तम शीलधारी, दोद्देदार थश्ने न्यायमार्गे चालनारो, धनाढ्य यइने दानेश्वरी, तथा सत्तावान थइने शांतवनाववालो, ए पांचे या जगतमां कल्पवृको (सरखा) बे. Sःस्थोऽपि यः पातकजीतचेता । युवापि यो मारविकारहीनः ॥ आढ्योऽपि यो नीतिमतां धुरीणस्त्रयोऽप्यमी देवनदी प्रवाहाः ॥ १७५ ॥ अर्थ- दरिद्री (धनहीन) बतां पण जेनुं चित्त पापो Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ श्री करे बे, तथा युवान बतां पण जे कामदेवना विकारथी रहित बे, अने ( सर्व वाते) समर्थ बतां पण जे न्यायी मां अग्रेसर बे, ए त्रणे देवनदीना ( गंगाना ) प्रवाहसारखा ( पवित्र ) बे ॥ १७५ ॥ वृत्तिनीतिमती रमा च परमा शश्वधिनीताः सुता । बंधुर्वधरधीर्मतिः स्मृतिमती वंशः प्रशंसास्पदम् ॥ वीर्य वर्यतरं वचश्च मधुरं मुर्तिश्च विस्फुर्तिजाक् । सानंद पिडुरैरिदं निगदितं धर्मस्य लीलायितम् ॥ १७६ ॥ अर्थ-नीतियुक्त वृत्ति, उत्कृष्ट शोजावाली स्त्री, हमेशां विनय करनारा पुत्रो, मनोहर बुद्धिवालो नाइ, याददास्ती वाली बुद्धि, प्रशंसायोग्य वंश, अतिउत्तम वीर्य (शक्ति). मधुर वचन, तथा देदीप्यमान मूर्ति, ते सघलो धर्मनो महिमा बे, एम पंमितोए श्रानंद सहित कहेलुं बे ॥ १७६ ॥ शास्त्रैः शास्त्रवतां बलैर्वलनृतां श्रीजिः श्रियाशालिनां । शीलैः शीलजुषां गुणै गुणजुषां घीनिश्च धीमालिनाम् ॥ सर्वेषां गुरुरस्त्यमी मम पुनर्मत्वेति येषां व्यधाविश्वानंदकरी जगद्गुरुरिति ख्यातिं दुमाऊ सुतः ॥ १७७॥ तेषां चंदन चंद्रमौक्तिक कुमुत्कैलासशैलोल्लसत् । कीर्तिस्फीतमरीचिमंमितदिशां प्रौढप्रतिष्टास्पृशाम् ॥ सूरीणां मुनिहीरही र विजयाह्वानां शिवश्रीमतां । राज्ये राजिनि विज्ञहेमविजयः सूक्तावलिं निर्ममे ॥ १७८ ॥ For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३७ अर्थ-शीलोए करीने सर्व शीलधारीउना, गुणोए करीने गुणवानोना तथा बुद्धिजेए करीने बुद्धिवानोना आ गुरु (श्रेष्ट) बे, अनेमारा पण गुरु बे, एम मानीने हुमायुना पुत्रे (अकबर बादशाहे) “श्रा जगतना गुरु डे” एवी रीतनी जगतमां आनंद करनारी जेयोनी प्रख्याति करेली , एवा तथा चंदन, चंद्र मोती, चंडविकासी कमल, तथा कैलास पर्वतसरखी जलसायमान थती जे कीर्ति, तेना देदीप्यमान किरणोथी मंमित करेली में दिशाउने जेथोए एवा उत्कृष्ट की. तिवाला तथा शिवश्रीवाला अने मुनिश्रोमां हीरासमान, एवा श्री हीरविजयसूरि महाराजना मनोहर राज्यमां (समयमां) पंमित श्री हेम विजय गणिजीए श्रा “कस्तूरीप्रकरण” नामनी सूक्तावली रची . १७७ कमल विजयसंझपाझपारीपाद यकमलविलासे लूंगतां संगतेन ॥ रसिकजनविनोदा सूत्रिता सूक्तिमाला । श्रियमयतु जनानां कंपीठे लुवंती ॥ ११ ॥ अर्थ-कमल विजयजी गणि नामना महा पंमित (गुरुना) बन्ने चरणोरूपी कमलना विलासप्रते भ्रमरतुल्य थएला (एवा श्री हेमविजयगणिजीए) बना. वेली, तथा माणसोने विनोद आपनारी श्रा “सूक्ति Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३७ माला"लोकोना कंठस्थलमारही थकी लक्ष्मीने श्रापो? सत्सूत्रमौक्तिकमहोदधितुट्यगुंफः। प्राझेंउहेमविजयेन विनिर्मितो यः॥ आदायसूक्तजलमंबुधरा श्वास्मादू । व्याख्याजुषः दितितलं सुखयंतु संतः ॥ १० ॥ अर्थ-उत्तम सूत्ररूपी मोतीयोना महासागर सरखी आरचना, विद्वानोमां चंछ सरखा श्री हेमविजयजी गणिए करेली के तेमांथी मेघोनी पेठे उत्तम माणसो "सूक्तरूपी” पाणीने लेश्ने, पृथ्वीतलपर व्याख्या करता थका सुख पामो ? ॥ १० ॥ __ एवी रीते सकल विछानोना समूहरूपी देवोमां इं सरखा पंडित श्री कमल विजयजी गणिना शिष्य पंडित श्री हेमविजय गणिजीए रचेली “कस्तूरीप्रकरण” नामनी सूक्तिमाला संपूर्ण थश्. - Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३५ श्री श्रादिजीन विन्ती. सुए जीनवर शेत्रुंजा धणीजी, दास तणी अरदास ॥ तुज आगळ बाळक परेजी, हुं तो करूं वेपासरे ॥ जीनजी मुज पापीने तार ॥ तुंतो करुणारस नर्योजी, तुं सद्दुनो हितकाररे जीनजी ॥ ज० ॥ १ ॥ हुं अवगुणनो ओरडोजी, गुण तो नहीं लवलेश । परगुण पेखी नवि शकुंजी, केम संसार तरेशरे जीनजी ॥ मुज० ॥ २ ॥ जीवतणां वध में कर्याजी, बोल्या मृषावाद, कपट करी परधन हर्यांजी, सेव्या विषय सवाद रे जीनजी ॥ मुज० ॥ ॥ ३ ॥ हुं लंपट हुं लालचीजी, कर्म कीधां केई क्रोम ॥ त्र वनमां को नहींजी, जे आवे मुज जोकरे जीनजी ॥ मुज० ॥ ॥ ४ ॥ परायां हनीशेजी, जोतो रहुं जगनाथ ॥ कुगति ती करणी करीजी, जोमयो तेहशुं साथरे जीनजी ॥ मुज० ॥ ॥ कुमति कुटील कदाग्रहीजी, वांकी गति मति मुज ॥ वांकी करणी महारीजी, शीसंजळावं तुजरे जीनजी ॥ मुज० ॥ ॥ ६ ॥ पुन्य विना मुज प्राणिखोजी, जाणे मेलुंरे श्रथ ॥ उंचां तरुवर मोरीयांजी, त्यांही पसारे हाथरे जीनजी ॥ मुच० ॥ ७ ॥ वीण खाधा वीण जोगव्याजी, फोगट कर्म बंधाय ॥ श्रर्तध्यान मी नहींजी, कींजे कवण उपायरे जीनजी ॥ मुज० ॥८॥ काजळथी प्रण शामळाजी, मारा मन परणाम | सोणां मांही ताहरु जी, संजारुं नहीं नामरे जीनजी ॥ मुज० ॥ ॥ मुग्ध लोक ठगवा जीजी, करूं अनेक प्रपंच ॥ कुरु कपट हुं केळवीजी, पाप तणो करु संचरे जीनजी ॥ मुज ॥ १० ॥ मन चंचळ न रहे की मेजी, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 140 राचे रमणीरे रूप // काम विटंबण शी कहुंजी, पमीश हुँ छ ति कुपरे जीनजी // मुज० // 11 // किश्या कहु गुण माहराजी किश्या कहुं अपवाद // जेम जेम संजालं हैयेजी, तेम तेम वा वखवादरे जीनजी // मुज० // 12 // गिरुआ ते नवि लेखवेजी निगुण सेवकनी वात। निचतणे पण मंदिरेजी, चंडन टाळे ज्य तरे जीनजी॥१३॥निगुणो तोपण ताहरोजी, नाम धराव्युं दास कृपा करी संसारजो जी, पुरजो मुजमन आशरे जिनजी।मुजन // 14 // पापी जाणी मुज नणीजी, मत मूको विसार // वि हळाहळ श्रादोजी, ईश्वर न तजे तासरे जीनजी // मुज // 15 // उत्तम गुणकारी हुजी, स्वार्थ विना सुजाण // करसा सिंचे सरनरेजी, मेह न लागे दाणरे जीनजी // मुज० // 16 तुं उपगारि गुणनिलोजी, तुं शेवक प्रतिपाळ // तुं समरथ सुं पूरवाजी, कर माहारी संजाळरे जीनजी // 17 // तुंजने | कहीए घणुंजी, तुं सौ वाते जाण // मुफने श्राजो साहिबाजी, लव ताहरी आणरे जीनजी // मुज // 17 // नानिराया / चंदलोजी, मारुदेवीना नंद, कहे जीन हरख निवाजज्योर देजो परमानंदरे जीनजी॥ मुज पापीने तार // 15 // इति Jain Educationa International For Personal and Private Use Only