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________________ १२७ वित्तावाप्तिर्भवति च बहोरूद्यमादेव दिव्या | वस्त्रप्रोद्यमपरिचयैः प्राप्यते नो गुणौघः ॥ १५६ ॥ अर्थ - पवित्र एवी वेषनी रचना निर्मल वस्त्रथीज शके बे, तेम मनोहर ने शोजनिक एवी विद्या पोतानी बुद्धिना वैजवथीज मली शके बे, अने दिव्य एव धननी प्राप्ति अत्यंत उद्यम करवायीज थाय बे, पण ते वस्त्र, बुद्धि अने उद्यमना परिचयोथी गुणोनो समूह प्राप्त थइ शकतो नथी. ॥ १५६ ॥ पाषाणखान्यपि मौक्तिकानि । यत्संक्रमाब्लोलविलोचनानाम् ॥ वक्षः स्थलेऽलंकरणी जवन्ति । तेषां गुणानां महिमा महीयान् ॥ १५७ ॥ अर्थ- जे गुणना ( दोरीना ) संक्रमणथी, चपल नेत्रोवाली (स्त्रीओना ) हृदयस्थलमां पाषाणना ghari पण मोतीरुपे थर आभूषण तरिके थाय टुकमा बे, तेवा गुणोनो महिमा मोटोज बे ॥ १५७ ॥ जातिः शारदशर्वरीश्वररूचां सौंदर्यसंहारिणी । बुद्धि बहसमान वाङ्मयसरिन्नाथप्रमाथा विराट् ॥ रूपं दर्पकदर्पसर्पफणनृत्प्रत्यर्थितुल्यं पुनस्तादृग्गौरवनाजनं नवति नो यादृग्गुणानां गए ः॥ १५० ॥ अर्थ- जेवो गुणोनो समूह गौरवना जाजनरूप थाय For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org Jain Educationa International
SR No.003690
Book TitleDharm Sarvasvadhikar tatha Kasturi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1908
Total Pages144
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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