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________________ १०४ धनं देवो यासां धनमपिच यासां गुरुरिह । विधत्ते वेश्यासु प्रणयमिह कस्तासु मतिमान् ॥ १७ ॥ अर्थ-जे वेश्याश्रोनेप्रीति, निरूपम रूप,मनोहर आचार, अत्यंत बुझि,देव तथा गुरु पण धनज , एवी वेश्यामां कयो बुद्धिवान माणस आ जगतमां प्रेम धारण करे? (अर्थात् को पण न करे.)॥ १७ ॥ मास्म स्मर स्मरनरेशवरुथिनीनां । तासां पणांबुजदृशां हि दृशां विलासान् ॥ यपदीपकलिकासु मनोहरासु। स्नेहदयासु बहवः शलजीजवन्ति ॥ १०ए॥ अर्थ-हे प्राणी ! कामदेवरूपी राजानी सेना समान, एवी ते वेश्याना आंखोना कटादो-तुं स्मरण नहीं कर ? केमके जे वेश्यानां स्नेहने क्षय करनारी (तेलने दय करनारी) रूपरुपी मनोहर दीवानी शिखाउमां घणा माणसो पतंगीथानी क्रीडाने प्राप्त थाय बे. (अर्थात् नेवटे मृत्यु पामे बे.) ॥ १० ॥ हवे पापर्धि (शिकारनुं ) प्रक्रम कहे . तेन्यः स्वापदपेटकैः सहसुखैः सर्वैरपित्रस्यते। तैः सार्ध जषणा ब्रमति विपदां पूराजवप्रोन्मुखाः॥ विध्यंते विविधायुधैश्च पशवः पुण्यैः समं तैः समे। ये मूढा अटवीमटन्ति विकटां प्रारब्धपापर्षयः॥३१० ॥ अर्थ-धारण करेल ने शिकार, व्यसन जेए, एवा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003690
Book TitleDharm Sarvasvadhikar tatha Kasturi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1908
Total Pages144
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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