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________________ ចិច हवे पैशून्य प्रकृम कहे . चेत्पापापचयं चिकीर्षसि रिपोमूर्ध्नि क्रमौ धित्ससि । क्वेशध्वंसमजीप्ससि प्रवसनं सर्वागसां दित्ससे ॥ कुकीत प्रजिहीर्षसि प्रतिपदं प्रेत्यश्रियं लिप्ससे । सर्वत्र प्रविधेहि तत्प्रियसखे पैशुन्यशून्यं मनः ॥ ७६॥ अर्थ-हे प्रिय मित्र!जो तुंपापोने नाश करवाने श्वतो होय,शत्रुना मस्तकपर पगो मुकवाने (अर्थात् शत्रुजैनो नाश करवाने) श्वतो होय,क्लेशनो विध्वंस करवाने श्छतो होय, सर्व अपराधोने दूर करवाने श्वतो होय, पगले पगले अपकीर्तिने हरवाने श्वतो होय, तथा पुनर्नवमां जो लदमी (मेलवाने) श्चतो होय, तो सर्व जगोए तुं (तारा)मनने चुगलीथी रहित कर? नागौ नीररुहं न सर्पलपने पीयूषपुरः प्रना। नर्तुर्नान्युदयश्च पश्चिमगिरौ वही न च व्योमनि ॥ न स्थैर्य पवने मरौ न मरुतामूर्वीरुहः स्याद्यथा । दौर्जन्ये यशसां तथा नहि जरःसोमत्विषां सोदरः ॥ ७ ॥ अर्थ-जेम अग्निमां कमल,सर्पनी जीजमां अमृतनो समूह, पश्चिम गिरिपर सूर्यनो उदय, श्राकाशमां वेलमी, पवनमां स्थिरता, तथा मारवाममां कल्प वृद होतुं नथी, तेम उर्जनतामां चंड समान (उज्वल) यशनो समूह खरेखर थतो नथी. ॥ ७ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003690
Book TitleDharm Sarvasvadhikar tatha Kasturi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1908
Total Pages144
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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