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________________ go विपदां सद्म गर्वोय-मपूर्वः पर्वतः स्मृतः प्राप्नुवत्युर्द्धमुर्द्धानो, यमारुढा अधोगतिम् ॥ ३९ ॥ अर्थ- आपदाओना स्थानक सरखो, एवो या गर्वरूपी पर्वत तो कोइ विचित्र प्रकारनो (आश्चर्यकारक ) बे, केमके उंचु मस्तक राखीने (अक्कम रहीने) ते पर्वतपर चडेला माणसो (उलटा ) नीची गतिने पामे बे ! दष्टो येन जनो जहाति विनयप्राणान् प्रसिद्धिप्रदान् । यद्दष्टेन विवेकनी तिनयने संमील्य संस्थीयते ॥ यद्दष्टस्य च कीलकीलितमिव स्तब्धं वपुर्जायते । दर्प सर्पमिवातिजिह्मगहनं कस्तं स्पृशेत्कोविदः ॥ ४० ॥ अर्थ- जे अहंकाररूपी सर्पना खवाथी, माणस पोताने कीर्त्ति पनारा विनयरूपी प्राणोने तजे बे, तथा विवेक ने न्यारूपी पोतानी यांखो मीची जाय बे, तथा जेना डंखथी पोतानुं शरीर जाणे खीलामां कीलित यर गयुं होय नहीं तेम थ‍ जाय बे, एवा सर्प सरखा अत्यंत रथी जयंकर थएला अहंकारने कयो पंति माणस स्पर्श करे ? ॥ ४० ॥ हवे मायाप्रक्रम कहे बे. द बका इव विधाय दुराशया ये । मीना निवाखिलजनान् प्रतिवचयंति ॥ तैः सौहृदादमलकीर्तिलतापयोदादात्मा प्रपंचचतुरोऽचतुरैरवंचि ॥ ४१ ॥ For Personal and Private Use Only Jain Educationa International www.jainelibrary.org
SR No.003690
Book TitleDharm Sarvasvadhikar tatha Kasturi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1908
Total Pages144
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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