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________________ १२ " अर्थ- मांसने पुत्रसमान जाणीने, सर्व प्राणीश्रोनां मांसनो त्याग करवो, केमके, गाउ पण रुषिधोए दया ने दाननी शुद्धिमाटे ते तजेल बे ॥ ४४ ॥ नग्राद्यानि न देयानि षटू वस्तूनि च पंक्तैिः ॥ निर्मधु विषं शस्त्रं, मद्यं मांसं तथैवच ॥ ४५ ॥ अर्थ-नि, मध, विष, शस्त्र, मदिरा छाने मांस ए व वस्तु पंकितोए ग्रहण करवी नहीं, तेम कोइने देवी पण नही. ॥ ४५ ॥ यावंति पशुरोमाणि, पशुगात्रेषु जारत ॥ तावघर्षसहस्राणि पच्यते पशुघातकाः ॥ ४६ ॥ अर्थ- वली हे जारत ! पशुनां शरीरपर जेटलां रूवां होय बे, तेटला हजार वर्षो सुधी पशुहिंसा करनारा पकावाय बे ॥ ४६ ॥ ● आकाशगामिनो विप्राः पतिता मांसभक्षणात् ॥ " " विप्राणां पतनं दृष्ट्वा तस्मान्मांसं न जयेत् ॥ ४७ ॥ अर्थ- वली हे युधिष्टर ! आकाशमां गमन करनारा एवा पण ब्राह्मणो मांस जणथी पतित थए ला बे, माटे एवी रीते ब्राह्मणोनुं पतन जोइने, मांस जक्षण कर नही. ॥ ४७ ॥ घातक श्चानुमंता च, जनकः क्रयविक्रयी ॥ लिप्यंते प्राणिघातेन, पंचाप्येते युधिष्ठिर ॥ ४८ ॥ अर्थ- वली हे युधिष्टर ! प्राणीनी घात करनार, तथा प्राणीघातनी श्राज्ञा श्रापनार, मांसनुं नक्षण For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org Jain Educationa International
SR No.003690
Book TitleDharm Sarvasvadhikar tatha Kasturi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1908
Total Pages144
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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