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________________ ६६ सियो जवेन्मनसि संनिहिते यदस्मिन् ॥ पश्यन् जगति मनुजो जगतामदृश्यः ॥ ३१ ॥ अर्थ-उत्पन्न करेल वे योगीजनो प्रते प्रजाव जेणे, एवा जावने, पंकितोना समूहो नवीन प्रकारनुं (यश्चर्यकारक ) सिद्धांजन कहे बे; केमके ते जावरूपी सिद्धांजनने मनमां धारण करवाथी मनुष्य सिद्ध थइ जगतोने जोतो थको ( पोते तो जगतोने अदृश्य थाय बे. ३१ ed starम कहे बे. स्कंधो युद्धमहीरुहस्य कुमतेः सौधी निबंधों हसां । योधो कुर्नयनूपतेः कृतकृपारोधोऽप्रबोधो हृदाम् ॥ व्याधो धर्ममृगे वधो धृतिधियां गंधो विपक्षीरुधामंधो दुर्गतिपद्धतौ समुचितः क्रोधो विहातुं सताम् ॥ ३२ ॥ अर्थः- युद्धरूपी वृक्षना घडसरखो, डुर्बुद्धिना मेहेल सरखो, पापोना कारण सरखो, अन्यायरूपी राजाना योद्धा सरखो, दयाने रोकनारो, हृदयने नहीं प्रबोध करनारो, धर्मरूपी हरिणने मारवामां पाराधि सरखो, धैर्याने बुद्धिनो नाश करनारो, श्रापदारूपी वृक्षोनी १ साधारण अंजन तो मां धारण कराय बे, पण आ जावरूपी अंजनने तो हृदयमां धारण करवाथी अदृश्य रहीने जगतने जोवाय वे माटे ते आश्चर्यकारक सिद्धांजन बे. For Personal and Private Use Only Jain Educationa International www.jainelibrary.org
SR No.003690
Book TitleDharm Sarvasvadhikar tatha Kasturi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1908
Total Pages144
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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