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________________ ए३ क्रोधादीनां निरोधो यदि यदि च वनेऽवस्थितिःप्रीतिपूर्णा । क्वेशावेशप्रवेशनिदिह हृदि तदा स्वैरमन्येति शुद्धिः ॥६॥ अर्थः-हे प्राणी जो,वाणी विकार रहित होय,नेत्रो समतायुक्त होय पवित्र एवा गात्रपर (मुखपर) उत्तम ध्याननी मुखा होय, गति मंदमंद प्रचारवाली होय, क्रोधादिकोनो निरोध होय,तथाप्रीतिपूर्वक जोवनमां स्थिति होय. तो क्वेशना आवेशना प्रवेशने बेदनारी (मननी) शुकि पोतानी मेलेज हृदयमां प्राप्त थाय बे. असौ नस्मान्यंगः किमु किमुत जूमौ विलुग्नं । जटाटोपः कोऽयं किमु वपुरिदं निर्विवसनम् ॥ कचालोचः कोऽयं प्रचुरतपसां किं च तपनं । न चेच्चेतःशुधिः सुकृतसफलीकारकरणम् ॥ ७ ॥ अर्थ:-जो पुण्यने सफल करवाना कारणरुप एवी मननी शुद्धता न होय तो शरीरे लश्म चोलवाश्री गुं थवानुं ? तेम पृथ्वीपर लोटवाथी पण शुं थवानुं ? जटानो बाटोप धारण करवाश्री शुं थवानुं ? शरीरने वस्त्र रहित राखवाथी शुं थवानुं ? वालोनो लोच करवाथी शुं थवानुं बे ? तथा घणा तपो तपवाथी पण शुं थवानुं ? ( मननी शुधि विना सघलु निष्फल . ) ॥ ७ ॥ स्वैरं नमन् जगति चित्तनिशाकरोऽयं । यैर्यत्रितः सुकृतकृत्यमनोझमंत्रैः॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003690
Book TitleDharm Sarvasvadhikar tatha Kasturi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1908
Total Pages144
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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