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________________ ३४ गाधे विमले शुद्धे, सत्यशीलसमे हृदि ॥ ज्ञातव्यं जंगमं तीर्थ, ज्ञानार्जवदयापरैः ॥ १३४ ॥ अर्थ - श्रगाध, निर्मल, शुद्ध, तथा सत्य, शील अने समतारूप हृदय होते बते, ज्ञान, श्रार्जव, अने दयामां तत्पर थऐला माणसोए जंगम तीर्थ जाणवुं. ॥१३४॥ आचारवस्त्रांतरगालितेन । सत्यप्रयत्नक्ष्मशीतलेन ॥ ज्ञानांबुना स्नाति चं यो हि नित्यं । किं तस्य नूयात्सलिलेन कृत्यम् ॥ १३५ ॥ अर्थ - श्राचाररुपी वस्त्रयी गालेला, तथा सत्यनो प्रयत्न ने क्षमाथी शीतल थएला एवा ज्ञानरुपी पाणीथी जे हमेशां स्नान करेबे, तेने जलना स्नाननुं शुं प्रयोजन बे ? ( अर्थात् कई प्रयोजन नथी . ) ॥ १३५ ॥ इदं तीर्थमिदं तीर्थ, ये भ्रमन्ति तमोवृताः ॥ येषां नाम्ना च तीर्थं हि तेषां तीर्थ निरर्थकन् ॥ १३६ ॥ अर्थ - श्रा तीर्थ, या तीर्थ, एवी रीते जे माणसो अज्ञानी छादित थया थका तीर्थोमां जमे बे, तथा जेोने फक्त नामरुपज तीर्थ बे, तेश्रोनुं तीर्थ निरर्थक बे ॥ १३६ ॥ न मृत्तिका नैव जलं, नाप्यग्निः कर्मशोधनम् ॥ शोधयंति बुधाः कर्म, ज्ञानध्यानतपोजलैः ॥ १३७ ॥ For Personal and Private Use Only Jain Educationa International www.jainelibrary.org
SR No.003690
Book TitleDharm Sarvasvadhikar tatha Kasturi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1908
Total Pages144
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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