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________________ उए परिग्रहनी लोलताने धारण करता नथी,एवा निर्दोष गुरुने संसार तरवानी छावाला मनुष्योए सेववा. ५७ ये व्यापारपरायणाः प्रणयिनीप्रेमप्रवीणाश्च ये। ये धान्यादिपरिग्रहाग्रहगृहं सर्वानिलाषाश्च ये॥ ये मिथ्यावचनप्रपंचचतुरा येऽहर्निशं नोजिनस्ते सैव्या न नवोदधौ कुगुरवः सचिञपोता इव ॥ १८ ॥ अर्थ-जेश्रो व्यापारमा तत्पर रहेला बे,स्त्रीश्रोना प्रेममा प्रवीण थया बे,धान्यादिक परिग्रहना स्थानक तुल्य ,सर्व वस्तुभोना लालचुबे, मिथ्यावादना प्रपंचमां चतुरबे,तथा जेभोरातदहामोजोजनमां श्रासक्त . एवा कुगुरुयोने आ नवरूपी समुषमा (बुमामवाने)बिजवाला वहाणतुल्य(जाणीने)सेववाज नहीं. ये विश्वासपदं च ये प्रतिनुवो निर्वाणशर्मार्पणे । ये चाधोगतिर्गमार्गगमनघारप्रवेशार्गलाः ॥ धर्माधर्महिताहितप्रकटनप्राप्तप्रमोदाश्च ये । ते सेव्या जववारिधी सुगुरवो निश्चितपोता इव ॥ एए॥ अर्थ-जेश्रो विश्वासना स्थानकरूप मे, मोक्षसुख श्रापवामां शादित बे, नीच गतिना पुर्गम मार्गमां गमन करवाना हार प्रते प्रवेश करवामां जोगल समान ,तथा जेश्रो धर्म, अधर्म,हित,अहित विगेरे प्रगट करवाथी श्रानंद मेलवनारा बे, एवा उत्तम गुरु Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003690
Book TitleDharm Sarvasvadhikar tatha Kasturi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1908
Total Pages144
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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