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________________ यूनां चेतसि कांदिशिकहरिणी नेत्रेव चेछः प्रिया । तत्सत्संगमनंगरंगरसिकाः सेवध्वमात्मप्रियाः ॥ २ ॥ अर्थ-अनंग रंगमां रसिक तथा आत्मा ने प्रिय जेमने एवा हे प्राणी!युवानोना मनमां दिङ्मूढ थएली हरिणी सरखी आंखोवाली स्त्री, जेम प्रिय , तेम तमोने पाप, धर्म, हित, अहित, प्रिय, अप्रिय, श्रनिधेय, अननिधेय, ध्येय, तथा शुन अने अशुननाअंतरने जाणवाना विवेकमां जो खुशी होय, तो तमो सजानोनो संग अंगीकार करो ? कीर्ति कंदलयत्यघं दलयति प्रल्हादमुलासयत्यायासं निरुणधि बुधिविनवं सूते निशेते रिपून् । श्रेयः संचिनुते च बंधुरधियं धत्ते पिधत्ते जयं । किं किं कल्पलतेव नैव तनुते सद्यः सतां संगतिः ॥७३॥ अर्थ-सङनोनी सोबत कीर्ति- मूल नांखे , पापने दली नांखे , हर्षने उपजावे ने श्रमने रोके ,बुछिना विनवने उत्पन्न करे ,शत्रुठने नाश करे , कल्याणने एक करे बे, मनोहर बुधि आपे बे, तथा नयने आबादित करे जे; एवी रीते सजनोनी सोबत कपवहीनी पेठे हमेशां शुं शुं (उत्तम) कार्य नथी करती ? (अर्थात् सर्व उत्तम कार्यों करे बे.) ॥ ३ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003690
Book TitleDharm Sarvasvadhikar tatha Kasturi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1908
Total Pages144
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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