Book Title: Dharm Sarvasvadhikar tatha Kasturi Prakaran
Author(s): Shravak Bhimsinh Manek
Publisher: Shravak Bhimsinh Manek

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Page 137
________________ १३३ यस्माद्याचकलोककोकरुचिमानर्थः समर्थोदयः । कामश्चें प्रिय चित्तवृत्तितटिनी प्रोत्कर्षवर्षागमः ॥ धर्मश्च त्रिदिवा पुनर्जवजवः प्रादुर्भवत्यंजसा । नव्योऽयं मुदमातनोतु महतामौचित्यचिंतामणिः ॥ १६८ ॥ अर्थ- जे विनयरूपं चिंतामणि रत्नथी, याचक लोकरूपी चकोरप्रते चंद्र सरखो, तथा समर्थ उदयवालो अर्थ उत्पन्न थायडे, तथा इंद्रियाने चित्तनी वृत्तिरूपी नदीने जलसायमान करवामाटे वरसादना यागमन रूप काम उत्पन्न थाय बे, तथा देवगति ने मोहरूपी धर्म जेथी तुरत उत्पन्न याय बे, एवं या विवेकरूपी नवुं चिंतामणि रत्न महान पुरुषोना यानंदने विस्तारो ? नक्तिस्तीर्थकृतां नतिः प्रशमिनां जैनागमानां श्रुतिमुक्तिर्मत्सरिणां पुनः परिचितिर्ने पुष्य पुण्यात्मनाम् ॥ अन्येषां गुणसंस्तुतिः परहृतिः क्रोधादिविद्वेषिणां । पापानां विरती रतिःस्वसुदृशामेषा गतिर्धर्मिणाम् ॥ १६९ ॥ अर्थ - तीर्थंकरोनी जक्ति, मुनिधोने नमस्कार, जैन सिद्धांतोनुं श्रवण, मत्सरीयोनो त्याग, माहापणथी पवित्र थला माणसोनो संग, परना गुणोनी स्तुति, क्रोधादिक वैरीयोनो परिहार, पापोनी विरति, तथा पोतानी स्त्रीयोप्रते प्रेम, एवी रीतनुं लक्षण धर्मी माणसोनुं बे ॥ १६७ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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