Book Title: Dharm Sarvasvadhikar tatha Kasturi Prakaran
Author(s): Shravak Bhimsinh Manek
Publisher: Shravak Bhimsinh Manek
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बे, तेवी, शरद कतुना चंद्रनी कांतियोनी सुंदरताने हरनारी जाति पण घती नथी, तेम अतुल्य एंवा विद्यारूप समुद्रने (मंथन करवामां ) मंथाचल सरखी बुद्धि पण थती नथी, ने कामदेवना अहंकाररुपी सर्पने गरुम समान एवं रूप पण तेवी रीतना गौरवना जाजनरूप यतुं नथी ॥ १५८ ॥
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हवे वैराग्यप्रक्रम कहे बे.
ग्रामीणेष्विव नागरोsर्ककुसुमस्तोमेष्विवालिर्युवा । मातंगो मरुमेदिनीष्विव मृगो दग्धेषु दावेषु च ॥ चक्रश्चंदिरदीधितिष्विव शमीगर्नेष्विवांजश्चरो । नो जोगेषु रतिं करोति हृदयं वैराग्यनाजां क्वचित् ॥ १५॥ | अर्थ- गांममी यामां जेम नगरनो रहेवासी, याकमाना पुष्पोमां जेम युवान जमरो, मारवामनी भूमि
मां जेम हाथी, दावानलथी सल गेलां (वनोमां) जेम हरिण, चंद्रनां किरणोमां जेम चक्रवाक तथा अग्निमां जेम जलचर प्राणी, तेम वैराग्यवंत माणसोनुं हृदय कोइ पण जोगोने विषे नंदने मेलवतुं नथी ॥ १५णा
यांति न दुर्भगामिव वधूं प्रोत्तुंगपीनस्तनीं । यत्स्त्रिांति न तस्करैरिव सदा मुत्सुंदरैः सोदरैः ॥ नो मुह्यंति च पन्नगेष्विव मणिहारेष्वपारेषु च । योगोद्योगनियोगिनः प्रशमिनस्तत्साम्यलीलायितम् ॥ १६० ।
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