Book Title: Dharm Sarvasvadhikar tatha Kasturi Prakaran
Author(s): Shravak Bhimsinh Manek
Publisher: Shravak Bhimsinh Manek
View full book text
________________
११६
स्तारुदयं रवेः स लवणान्माधुर्यमास्याददेः । पीयूषं च कुहोरनुष्ण किरणं हानिं कुपथ्यादुजाम् ॥ पावित्र्यं श्वपचाद्दिनं च रर्जने दीक्षां श्रियां संग्रहात् । कांतारान्नगरं च कांति वधाद्यो धर्ममित्यधीः ॥ १३३ ॥ अर्थ- जे बुद्धिविनानो माणस (प्राणीयोना) वधथी धर्मने इछे बे, ते अस्ताचलप्रतेश्री सूर्यना उदयने इ बे, लवणमांथी मीठाशने इछे बे, सर्पना मुखमांथी केरने इवे, अमावास्याथी चंद्रने इछे बे, अपथ्य जोजनथी रोगोनी हानिने इछे बे, चांडालथी पवित्रपपाने इछे बे, रात्री थी दिवसने इसे बे, लक्ष्मीना संग्रही दीक्षाने छे वे, तथा ते वनमांथी नगरने इछे बे. धर्माणां निधिरास्पदं च यशसां संजोग मिः श्रियामास्थानं महसां च जूरविपदां यानं जवांजोनिधौ ॥ स्कंधः सम्मतिवीरुधां प्रियसखी स्वर्गापवर्गश्रियां । धन्यानां दयिता दयास्तु दयिता क्लेशैरशेपैरलम् ॥ १३४ ॥ अर्थ-धर्मोना जंगाररूप, यशोना स्थानकरूप, लक्ष्मी उनी संयोगनू मिरूप, प्रजावोनी सज्जारूप, सुखोनी भूमिरूप, जवरूपी समुद्रप्रते वहाणरूप, उत्तम बुद्धिरूपी वृहोना स्कंधरूप, तथा स्वर्ग ने मोलक्ष्मीनी वहाली सखीरूप एवी दयारूपी वहाली स्त्री धन्यपुरुषोने था? बीजा क्लेशोथी सर्यु. ॥ १३४ ॥
१ ङीषनावरेज निरपि
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
-
www.jainelibrary.org

Page Navigation
1 ... 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144