Book Title: Dharm Sarvasvadhikar tatha Kasturi Prakaran
Author(s): Shravak Bhimsinh Manek
Publisher: Shravak Bhimsinh Manek
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७३
हवें लोनप्रक्रम बे.
नाशं यो यशसां करोति रजसां व्रातोऽनिलानामिव । त्रासं यो महसां तनोति वयसां पातः शराणामिव ॥ शोनां यो वचसां हिनस्ति पयसां वृष्टिर्घनानामिव । त्यक्त्वाकृत्यकरींऽकुंजशरनं सोनं शुभंयुर्जव ॥ ४६ ॥
अर्थ- जे लोज पवनोनो समूह जेम रजोनो, तेम यशोनो नाश करे बे, तथा बाणोनुं परुवुं जेम जींदगिने, तेम जे ( पोताना) तेजने त्रास आपे बे, तथा मेघनीवृष्टि जेम पाणीने ( मोलुं करे बे.) तेम जे, वचननी शोजाने हो बे, तथा जे करवायोग्य कार्यरूपी हाथीना कुंजस्थलने दवामां सिंहसमान बे, एवा लोजने तजीने हे प्राणी ! तुं कल्याणयुक्त था ? ॥४६॥
किं ध्यानैर्मुखपद्ममुद्रणचणः किं चेंद्रियाणां जयैरुचैस्तपसां पुनः प्रतपनैः किं मेदसां शोषणैः ॥ किं वाचां जनितश्रमैः परिचयैः किं क्लेशयुक्तैर्व्रतैचेल्लोनोऽखिलदोषपोषणपटुर्जागर्ति चित्ते तिनूः ॥ ४७ ॥ हे प्राणी ! सघला दोषोने पोषण करवामां समर्थ तथा दुःखना स्थानकरूप एवो लोग जो चित्तमां जाग तो रह्यो बे, तो पी मुखरूपी कमलने मुद्रित करवामां समर्थ, एवाध्यानथी शुं थवानुं बे ? तेम इंडियाने जीतवाथी पण शुं यवानुं बे ? तेम इछाने रोधनार तथा
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