Book Title: Dharm Sarvasvadhikar tatha Kasturi Prakaran
Author(s): Shravak Bhimsinh Manek
Publisher: Shravak Bhimsinh Manek

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Page 116
________________ ११२ हवे इंजियप्रक्रम कहे . सारंगान् चमरानिलांश्च शललान् मीनांश्च मृत्युंगतान् । कर्णघ्राणशरीरनेत्ररसनाकामैः प्रकामोत्सुकः ॥ दृष्ट्वा शिष्टपथप्रवृत्तिविपिनश्रेणीसमुत्पाटने । साटोपपिमिप्रियव्रजमिमं धीमान् विधत्ते वशम् ॥ १२५॥ अर्थ-कान, नाशिका, स्पर्श, नेत्र तथा जीनना रसथी,(अनुक्रमे) हरिणो,त्रमरो,हाथी,पतंगी , तथा माउलांउने मृत्यु पामेला जोश्ने, उत्तम मागनी प्रवृत्तिरूपी वननी श्रेणिनोनाश करवामां उड़त थएला हाथीसरखा, आइंजिना समूहने, बुद्धिवान माणस अत्यंत उत्सुक थश्ने वशमा राखे बे. ॥१२५॥ दंलांनोरुहिणीविकाशन विधौ योऽनोजिनीवसनो। यो लांपठ्यकलाकलापजलधौ पीयूषपादोपमः॥ यः स्पर्धावसुधारुहालिजलदो यश्चोत्पथप्रस्थितौ । पारीणश्च तमुध्धुरं विषयिणां वातं जयन् नजनाक॥१६॥ अर्थ-जे जियोनो समूह कपटरूपी कमलनीने विकस्वर करवामां सूर्यसमान , तथा लंपटतानी कलाना समूहरूपी समुज्ने(वृद्धि करवामां)चंउसमान बे, तेम जे स्पर्धारूपी वृदोनी पंक्तिने (जगामवामां) वरसाद समान ,अने उन्मार्गना प्रस्थानमा जे पारंगामी , एवा उझत इंजिर्जना समूहने जीततो थको प्राणी कल्याणने नजनारो थाय . ॥ १५६ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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