Book Title: Dharm Sarvasvadhikar tatha Kasturi Prakaran
Author(s): Shravak Bhimsinh Manek
Publisher: Shravak Bhimsinh Manek
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२०१ यवीथीषु विशंति कोशितदृशो जस्पंत्यजप्यं च यद्यद्वाढं च रुदंति मूढमतयस्तन्मद्य विस्फुर्जितम् ॥ १०२ ॥ अर्थ - ( मदिरापान करनारा मूढ बुद्धिवाला माणसो) जे घरे घरे जटक्या करे बे, नग्न थइने चोवटामां सुइ रहे बे, खुल्लां मुखो राखीने पृथ्वीपर पडे बे; प्रगट रीते बराडा पाडे बे, यांखो वींचीने गलीओमां प्रवेश करे बे, नहीं बोलवालायक (अपशब्दो) बोले बे, तथा जे अत्यंत रड्या करे बे; ते सघलुं मद्यपाननुं परिणाम बे. ॥ १०२ ॥
व्याधीनामवधिं पदं च विपदामुन्मादमाद्यधियां । धामाधन्यगिरां गुहामयशसां स्थानं खनिं चैनसाम् ॥ आधारं च युधां क्रुधां परिषदं संजोगभूमिं जियां । मुंचाचार विचारचारुरचना निर्धारिणीं वारुणीम् ॥ १०३ ॥ अर्थ- दुःखोनी सीमासरखी, श्रापदाधोना स्थानसरखी, उन्माद ने प्रमादनी बुद्धिना धाम सरखी, खराब वचनोनी गुफासरखी, अपयशना स्थानक सरखी, पापोनी खाण सरखी, लगाइना आधार सरखी, क्रोधनी सजा सरखी,जयोनी संगमनू मिसरखी, तथा याचारना विचारनी मनोहर रचनाने अटकाबनारी एवी मदिराने, हे मित्र ! तुं तजी दे? ॥ १०३ ॥
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