________________
२०० जायात्वं जननी प्रयाति जननीजावं च जायाजनो । धर्मध्वंसधुरधुरीमधुनः पानानिनूतात्मनाम् ॥ १०० ॥ अर्थ-धर्मना नाशरुपी धोंसरीने धरवामां बलद स मान एवा मद्यपानथी पराजव पामेल बे श्रात्मा जेर्जनो एवा माणसो चाकरने शेव रूप लेखेबे, शेठने चाकररूप लेखे बे; शत्रुने नाइ लेखे बे, अने नाइने शत्रु लेखे बे; तथा पोतानी माताने पोतानी स्त्रीतरिके लेखे बे, ने पोतानी स्त्रीने पोतानी माता तरिके लेखे बे. ॥१००॥
ददात्यदेयं च दधात्यधेयं । गायत्यगेयं च पिवत्यपेयम् ॥
जयत्यजेयं च नयत्यनेयं । न किं सुरापानकरः करोति ॥ १०१ ॥
अर्थ - मदिरापान करनारो माणस नहीं देवालायक वस्तु दीए बे; नहीं धारण करवा लायक धारण करे बे, नहीं गावाजोग गाय बे; नहीं पीवा लायक पीए बे, नहीं जीत करवा लायकने जीते बे; तथा नहीं लेश्वा लायकने लेइ जाय बे; माटे एवी रीते मदिरापान करनार माणस शुं कार्य नथी करतो ? ( अर्थात् सघलुं योग्य कार्य करे बे.) ॥ १०१ ॥ याम्यंति गृहे गृहे विवसना यच्चत्वरे शेरते । यद्भूमौ निपतंत्यमुतिमुखा यच्चारटंति स्फुटम् ॥
For Personal and Private Use Only
Jain Educationa International
www.jainelibrary.org