Book Title: Dharm Sarvasvadhikar tatha Kasturi Prakaran
Author(s): Shravak Bhimsinh Manek
Publisher: Shravak Bhimsinh Manek
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{០០ कलाउनी क्रीमा , तथा जे अतुल्य रूपनी रचना, एवं परधन जेए चोरेबुं , तेए सघj हरेलु बे.
वैरं विश्वजनैरकारि कलहः कीर्त्या च लोकष्यी। कृत्यैर्मत्सर उत्सवैश्च विरहः सौख्यैरसूयोदयः॥ प्राणै रप्रियता प्रियैरलपनं प्रोहश्च धर्मेच्या। विधेनेन हपश्च तैरतिश यश्चौरिका निर्ममे ॥ ११७ ॥
अर्थ-जे अत्यंत पुष्टोए चोरी करेली बे, तेश्रोए जगतना लोको साथे वैर करेवु ,कीर्तिसाथे क्लेश करेलो बे, बन्ने लोकोना कार्योसाथे मत्सर करेलो , उ. त्सवो साथे विरह करेलो , सुखो साथे अदेखाश्नो उदय करेलो ने,प्राणोसाथे अप्रीति करेली बे,स्नेही साथे अबोला कर्या , धर्मनी श्वासाथे खोह करेलो बे, तथा विश्वास साथे हठ करेलो . ॥ ११ ॥ तत्कीर्तिः कुमुदेन्दुकुन्दकालिकाकर्पूरपूरोपमा । तत्स्फुर्तिः परमप्रमोदविलसत्पावित्र्यपाथः प्रपा ॥ तन्मूर्तिः स्मरपार्थिवस्मयशशिस्वाणुरुद्ञाजते । चौर्य यैर्मुमुचे लसदगुणगणारामैकदावानलम् ॥ ११ ॥ अर्थ-जेनए उलसायमान थता गुणोना समूहरूपी बगीचाने (बालवामां) दावानल सरखी चोरीने तजेली ,तेउनी कीर्ति, चंडविकासी कमल, चंड, डोलरनी कली, तथा कपूरसरखी उज्वल , तथा तेउनी स्फुर्ति, उत्कृष्ट हर्षथी फेलावो पामतुं जे पवित्रपणुं
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