Book Title: Dharm Sarvasvadhikar tatha Kasturi Prakaran
Author(s): Shravak Bhimsinh Manek
Publisher: Shravak Bhimsinh Manek
View full book text
________________
ug
स्फुर्जत्कीर्ति
पीयूषादिव नीरुजत्वमचिरात् पूजा च पुण्यादिव । नरं पिशुनतात्यागादुपागच्छति ॥ ८० ॥ अर्थ- सौभाग्यथी जेम सुंदरी, उत्तम विनयथी जेम विद्या, उद्यमथी जेम लक्ष्मीनी श्रेणि, साहसथी जेम महामंत्रादिकनी सिद्धि, अमृतथी जेम तुरत निरोगीपणुं, तथा पुण्यथी जेम मोटाइ मले बे, तेम चुगलीना त्यागथी माणसने स्फुरायमान कीर्तिनो समूह प्राप्त थाय बे ॥ ८० ॥
हवे सत्संगप्रक्रम कहे बे.
यत्पंकोऽपि नरेंद्रनाल फलके कस्तूरिकानावनाक् । काचोऽप्याजरणेषु नूपसुदृशां हीरोपमां याति यत् ॥ यत्काकोsपि रसालशालशिखरे ताम्राकृतामश्नुते । तत्संगान्महतां जवत्यपि गुणैहींना गुणानां गृहम् ॥ ८१ ॥ अर्थः- राजाना ललाटस्थलमां कादव पण जे कस्तू रीना जावने जजनारो थाय बे, तथा राणीश्रोना श्राभूषणोमां काच पण जे हीरानो उपमाने प्राप्त थाय बे, तेम बाना वृनी टोंचपर रहेलो कागको पण जे कोयलपणाने जे बे, ते सघलुं उत्तमना संगथी थएलुं बे, माटे एवी रीते गुणहीनो पण उत्तमना संगथी गुणोना स्थानकरूप थाय बे ॥ ८१ ॥ पापापापहिताहितप्रियतमाप्रेयोऽनिधेयेतरध्येयाध्येयशुभाशुभप्रकटन के विवेके रतिः ॥
For Personal and Private Use Only
Jain Educationa International
www.jainelibrary.org

Page Navigation
1 ... 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144