Book Title: Dharm Sarvasvadhikar tatha Kasturi Prakaran
Author(s): Shravak Bhimsinh Manek
Publisher: Shravak Bhimsinh Manek
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ए तेषामशेषसुखपोषिणि सिधिसौधे ।
वासः सदाः समजनिष्ट समाधिनाजाम् ॥ ७ ॥ अर्थ-समताने नजनारा एवा जे माणसोए, जगतमा स्वेछाचारथी भ्रमण करता एवा चित्तरूपी रादासने पुण्यनां कार्योरुपी मनोहर मंत्रोए करीने यंत्रित करेलो , ते माणसोनो सर्व सुखोने पोषण करनारा एवा मोक्षरुपी मेहेलमांहमेशां वास थएलोबे॥॥
विना मनः शुधिमशेषधर्मकर्माणि कुर्वन्नपि नैति सिघम् ॥ दृग्न्यां विना किं मुकुरं करेण ।
वहन्नपीदेत जनः स्वरूपम् ॥ ए॥ अर्थ-मननी शुद्धिविना सर्व धर्मकार्योंने करतो एवो पण प्राणी मोक्षमा जश् शकतो नथी; केमके हाथमां आरीसो पकमीने फरतो, एवो पण प्राणी आंखोविना पोतानं स्वरूप जोइ शकतो नथी. ॥ नए॥ दूतीं मुक्तिमृगीदृशो यदि मनःशुधिं विधातुं रतिस्तत्स्वर्णे रमणीजने च ह्रदयं रदयं प्रयुज्यत्सखे ॥ एतदोलनरानिजूतहृदये न स्वार्थसार्थप्रथा । प्राउ वमुपैति शंवररुहां रोहः शिलायामिव ॥ ए॥
अर्थ-हे मीत्र! मुक्तिरूपी स्त्रीने (वश करवामा) दूती समान,एवी मननी शुद्धिने धारण करवानी जो तने श्वा होय, तो सुवर्ण अने मनोहर एवी स्त्रीमा
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