Book Title: Dharm Sarvasvadhikar tatha Kasturi Prakaran Author(s): Shravak Bhimsinh Manek Publisher: Shravak Bhimsinh ManekPage 60
________________ ५६ वृक्षविनाना मारवाड देशमां जेम वृनी घाटी बाया, तथा मूर्खाइरुपी पुष्पोने उत्पन्न करवामां बगीचा सरखा गांममामां जेम विद्वानोनी सजा दुर्लन बे, तेम क्लेशना यावेशरूप एवा या संसारमां (प्राणीने) शुद्ध बुद्धि पण दुर्लन बे. ॥ १० ॥ हवे या प्रकरणं द्वारकाव्य कहे बे. दानाद्यं सुकृतं कषायविजयं पूजां च पित्रोर्गुरोदेवानां विनयं नयं पिशुनतात्यागं सतां संगतिम् ॥ बुद्धिं व्यसनहतीदियमाऽहिंसादिधर्मान् गुणान् ॥ वैराग्यं च विदग्धतां च कुरु चेनोक्तुं विमुक्तिं मनः ॥ ११ ॥ अर्थ- हे प्राणी! जो मोदसुख जोगववानुं तारुं मन होय तो दानादिक पुण्यनां कार्य, कषायोनो जय, भातपिता, गुरु ने देवनी पूजा, विनय, न्याय, चुगली नो त्याग, उत्तम माणसोनी सोबत, हृदयनी शुद्धता, (साते) व्यसनोनो त्याग, इंडिने दमवापणुं, दयादिक धर्म, गुणो, वैराग्य तथा चतुराईने तुं धारण कर ? ॥११॥ तेोमांथी प्रथम हवे दानप्रक्रम कड़े बे. ख्यातिं पुष्यति कौमुदी मित्र शशी सूते च पूतात्मतामुद्योतं तिमानिवावति सुखं तोयं तमित्वानिव ॥ चातुर्य च चिनोति यौवनवयः सौभाग्यशोनामिवक्षेत्रे बीजमिवानघे विनिहितं पात्रे धनं धीधनैः ॥ १२ ॥ For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org Jain Educationa InternationalPage Navigation
1 ... 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144