Book Title: Dharm Sarvasvadhikar tatha Kasturi Prakaran Author(s): Shravak Bhimsinh Manek Publisher: Shravak Bhimsinh ManekPage 68
________________ ६४ तप्ते येन विना च दुस्तरतपः स्तोमे च काइर्योदयः ॥ कार्यस्तत्फल मिनिः शुनतरे जावेऽत्र जव्यैर्लयः ॥ २७ ॥ अर्थ- जे जावविना घणा धननुं दान देवार्थी पण ते दुःखे सहन थाय एवो (फोकट ) खरचज बे, तथा जे जावविना इति धने निर्मल एवं शील पालवाथी पण ( केवल ) जोगोनोज काय बे, तथा जे जावविना करा तपनो समूह करवायी पण ( केवल ) कृशतानोज उदय बे, माटे एवी रीतना अत्यंत शुभ जावमां, ते ते कार्योना फलनी इछावाला जव्य लोकोए आसक्तपणुं करवुं ॥ २७ ॥ श्रीहनिं ददतामुपैति दधतां शीलं च जोगक्ष्यः । संक्लेशः सृजतां तपश्च पठतां कंठे जवेत् कुंवता ॥ पूज्यानां नमतां च मानमथनं दुःखं वृतं विज्रतां । मत्वैवं न कथं करोषि सुकरे जावे मनस्विन् मनः ॥ २८ ॥ अर्थ- दान देवाथी लक्ष्मीनी हानि थाय बे शील पालवाथी जोगोनो दय थाय बे, तप करवाथी क्लेश थाय बे, जणवाथी कंठशोष थाय बे, पूज्योने नमवाथी माननी हानि थाय बे, तथा वृत धारण करवायी दुःख याय बे, एवं मानीने पण हे मनस्वी ! (बुद्धिवान् !) तुं उत्तम जावमां मनने केम जोमतो नथी ? ॥ २८ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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