Book Title: Dharm Sarvasvadhikar tatha Kasturi Prakaran
Author(s): Shravak Bhimsinh Manek
Publisher: Shravak Bhimsinh Manek

Previous | Next

Page 73
________________ ६ संग त यत्र यत्र यदसौ तत्तद्विनाशास्पदं । प्रेत्य प्राणतो जवत्यनिमतप्राप्तिप्रहीणाः क्षणात् ॥ ३७ ॥ अर्थ- हे आत्मा ! सर्व गुणोरूपी पर्वतने ( नेदवामां ) वज्ञ सरखा एवा जातिमद, ऐश्वर्यमद, बलमद, ज्ञानमद, कुलमद, तपमद, रूपमद, तथा धनादिकना प्राप्तिमदने तुं सर्वथा प्रकारे श्राचर नहीं? केमके, उपर कहेली जे जे बाबतोमां ते मदनो (अहंकारनो) संग थाय बे, ते ते बाबतो प्राणीउने परजवमां अनिष्ट मले बे. अने एवी रीते पोताने मनोहर लागती एवी प्रातिथी ते कण वारमां रहित थ‍ जाय बे ॥ ३७ ॥ औचित्यचारुचरितांबुजशीतपादं । सत्कर्मकौशलकुचेलकठोरपादम् ॥ संसेव्य सेवनवनद्रुमसामयोनिं । मानं विमुंच सुकृतांबुधिकुंज योनिम् ॥ ३८ ॥ अर्थ - श्रौचित्यतारूप जे मनोहर आचरण, ते रूपी ( सूर्यविकासि ) कमलनो ( नाश करवामां ) चंद्रसरखा, तथा उत्तम कार्यनी कुशलतारूपी ( चंद्र विकासि ) कमलने ( नाश करबामां) सूर्य सरखा, अने याचरवालायक कार्यरूपी वनवृने ( नाश करवामां ) हाथी सरखा, तथा पुण्यरूपी समुद्रने ( शोषवामां ) अगस्ति ऋषि सरखा एवा मानने, हे प्राणी ! तुं तजीदे? १ " प्रेत्यामुत्रनवांतरे ” इत्यमरः For Personal and Private Use Only Jain Educationa International www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144