Book Title: Dharm Sarvasvadhikar tatha Kasturi Prakaran
Author(s): Shravak Bhimsinh Manek
Publisher: Shravak Bhimsinh Manek

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Page 53
________________ ეს यो ददाति मधुश्रा, मोहितो धर्म लिप्सया || स याति नरकं घोरं, खादकैः सह लंपटैः ॥ १९५ ॥ * अर्थः- जे माणस मोहित थयो थको, धर्मनी इहाथी श्राद्धमां मधनुं दान च्यापे बे, ते लंपट एवा खानारा सहित जयंकर नरकमां जाय बे. ॥ १०५ ॥ मेदमूत्रपुरीषाद्यै, रसाद्यैर्विधृतं मधु ॥ बर्दिला मुखश्रावै, रजदयं ब्राह्मणैर्मधु ॥ १०६ ॥ अर्थः- चरबी, मूत्र, तथा विष्टा यदिकनां रसथी मेलवेलुं तथा माखोनां मुखथी करेलुं एवं मध ब्राह्मणोए जक्षण करवुं नहीं. ॥ १०६ ॥ नीलिकां वापयेद्यस्तु मूलकं जयेत्तु यः ॥ न तस्य नरकोत्तारो, यावच्चंद्रदिवाकरौ ॥ १७ ॥ अर्थ - जे माणस गली वावे बे तथा कंदमूलनुं जक्षण करे बे, ते माणस चंद्रसूर्यनी स्थिति सुधि पण नरकथी निकली शकतो नयी. ॥ १०७ ॥ " वरं मुक्तं पुत्रमांस, नतु मूलकनक्षम् ॥ जक्षणान्नरकं गच्छेद्, वर्जनात्स्वर्गमाप्नुयात् ॥ १५८ ॥ अर्थ- हे युधिष्टर !! पुत्रनुं मांस खावुं सारुं, पण कंदमूलनुं जक्षण करवुं नहीं; केमके, कंदमूलनां जकथी नरकमां जवाय, अने तेनां त्यागथी स्वर्गमां जवाय बे ॥ १५८ ॥ · ४ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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