Book Title: Dharm Sarvasvadhikar tatha Kasturi Prakaran Author(s): Shravak Bhimsinh Manek Publisher: Shravak Bhimsinh ManekPage 51
________________ ४७ अर्थ-वली हे वत्स ! जेश्रोने जप, तप, पवित्रता, क्षमा, निष्परिग्रहपएं, दया, तथा इंजियोनुं दमवापणुं होय बे, तेश्रो श्रायुष्यनो दय होते ते मोदमां जाय . ॥ १६ ॥ ज्ञानशुधाः क्रियाशुधाः शीलशुधाश्च ये विजाः॥ षट्कर्मनिरताश्चैव, विजाः पदमनावकाः ॥ १७ ॥ अर्थ-जे ब्राह्मणो ज्ञानथी, क्रियाथी तथा शीलथी शुरु थएला , तथा जेओ खटकर्ममां रक्त , ते ब्रह्मणो पोताना पदनीप्रनावना करनारा बे.॥१७॥ तपः शीलसमायुक्तं, ब्रह्मचर्यदृढव्रतम् ॥ निर्लोनं निर्मलं चैव, अतिथिं जानीतेदृशम् ॥ १७ ॥ अर्थ-तप, शील अने समतावाला, तथा ब्रह्मचर्य रूपी दृढ व्रतवाला, निर्लोनी, अने ममता विनाना, एवा माणसने अतिथि जाणवो. ॥ १ ॥ स्नानोपनोगरहितं, पूजालंकारवर्जितम् ॥ उग्रतपः शमायुक्त-मतिथिं जानीतेदृशम् ॥ १० ॥ अर्थ-स्नान अने उपजोग विनाना, पूजा श्रने श्राजूषणे करीने रहित, उग्र तपवाला, तथा समतावाला, एवा मोणसने पण अतिथि जाणवो. ॥१॥ हिरण्ये रत्नपुंजे च, धनधान्ये तथैव च ॥ अतिथिं तं विजानीया-धस्य लोलो न विद्यते ॥ १० ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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