________________ ( xxiii .) वस्तुतः इसके पीछे एक रहस्य प्रतीत होता है। यद्यपि भगवती, सूर्यप्रज्ञप्ति आदि में देवों से सम्बन्धित विवरण महावीर के श्रीमुख से ही कहलवाये गये / गौतम के पूछने पर महावीर ने यह कहा, ऐसा कह करके आर्य सुधर्मा, आर्य जम्बू को कहते हैं / तो फिर आखिर ऐसा क्यों हुआ कि 'देवेन्द्रस्तव' में यह विवरण एक श्रावक प्रस्तुत करता है ? हमारे विचार से चंकि 'देवेन्द्रस्तव' एक स्तुतिपरक ग्रन्थ था अतः महावीर अपने श्रीमुख से अपनी स्तुति कैसे करते ? पूनः किसी काल-विशेष तक आध्यात्मिक साधना प्रधान श्रमण इस प्रकार देवों को स्तुति नहीं करते होंगे, अतः आचार्य ऋषिपालित ने यह सोचा होगा कि इसे महावीर या गणधर के मुख से प्रस्तुत नहीं करवा करके श्रावक के मुख से ही प्रस्तुत करवाया जाये। पुनः जब ग्रन्थ के प्रारम्भ में ही देवेन्द्रों को तीर्थंकर की स्तुति करने वाला कह दिया गया तो फिर स्वयं तीर्थंकर अपने मुंह से अपनी स्तुति करने वाले का विवरण कैसे प्रस्तुत करते ? साथ ही 'देवेन्द्रस्तव' की इस शैली से ऐसा फलित होता है कि किसी समय तक खगोल-भूगोल सम्बन्धी मान्यताओं को लौकिक मान्यता मान कर ही जैन परम्परा में स्थान दिया जाता रहा होगा। अतः इसका विवरण तीर्थकर या आचार्य द्वारा न करवा करके श्रावक के द्वारा प्रस्तुत किया गया / यदि हम 'देवेन्द्रस्तव' की शैली के आधार पर इस तथ्य को स्वीकार कर लें कि ये लौकिक मान्यताएं थीं तो सूर्य-प्रज्ञप्ति आदि खगोल और ज्योतिष विषयक आगमों के कुछ पाठों को लेकर आधुनिक विज्ञान से जो विसंगति देखी जाती है अथवा जिनके कारण जैन परम्परा की अहिंसा भावना खंडित होती प्रतीत होती है, उन सबकी लौकिक मान्यता के रूप में संगतिपूर्ण व्याख्या की जा सकती है। ___ हमारी दृष्टि में अध्यात्म प्रधान और नैतिक आदर्शों के प्रवक्ता तीर्थंकर महावीर का उन सब लौकिक मान्यताओं से बहुत अधिक सम्बन्ध नहीं रहा होगा, यह तो परवर्ती आचार्यों का ही प्रयत्न होगा कि उन्होंने जैन आगम साहित्य को खगोल-भूगोल आदि विभिन्न लौकिक विषयों से समृद्ध करने के प्रयत्न में लौकिक मान्यताओं को भी जैन आगमों में समाविष्ट कर लिया, अन्यथा इन सब बातों का अध्यात्म एवं चरण-गुण प्रधान जैनधर्म से सीधा-सीधा कोई सम्बन्ध नहीं रहा था। 'देवेन्द्रस्तव' की