________________ देवेन्द्रस्तव 84. उसी प्रकार ( उस सम भूभाग से ) आठ सौ अस्सी (योजन के) ऊपरी तल पर चन्द्रमा होता है / इस प्रकार ज्योतिष्क देवों का (ऊंचाई की अपेक्षा से ) विस्तार क्षेत्र एक सौ दस ( योजन ) होता है। 85. एक योजन के इकसठ भाग करके उस ( इकसठ भाग में से) छप्पन भाग (जितना) चन्द्रपरिमंडल ( होता है ) और सूर्य का ( आयामविष्कम्भ ) अड़तालीस ( भाग जितना होता है ) / 86. जिसमें ज्योतिषी देव श्रेष्ठ तरुणियों के गीत और वाद्यों की आवाज के कारण नित्य सुख-युक्त व प्रमुदित (रहते हुए) व्यतीत हुए काल को भी नहीं जानते हैं। 87. ( एक योजन के इकसठ भाग में से ) छप्पन भाग विस्तार वाला चन्द्रमण्डल होता है, और ( इकसठ भाग में से ) अट्ठाईस भाग ( जितनी ) उसकी मोटाई जाननी चाहिए। 88. ( एक योजन के इकसठ भाग में से ) अड़तालीस भाग विस्तार वाला सूर्य मण्डल होता है और (इकसठ भाग में से) चौबीस भाग (जितनी) उसकी मोटाई जाननी चाहिए। 89. ग्रह आधे योजन ( आयाम-विष्कम्भ वाले हैं ) उसके आधे नक्षत्र ( समूह ) होते हैं, नक्षत्र से आधे तारा ( समूह होते हैं) और ( उनका जो विस्तार है उससे ) आधी ( उनकी ) मोटाई ( होती है ) / .90: एक योजन का आधा दो कोस ( होता है ), उसमें पांच सो धनुष होते हैं / ( यह ) ग्रह-नक्षत्र-समूह और तारा-विमानों का विस्तार (है)। 91. जिसका जो आयाम-विष्कम्भ ( विस्तार ) है, उसका आधा ही बाहल्य होता है और उससे तीन गुना अधिक परिधि होती है (इस प्रकार) जानना चाहिए।