________________ देवेन्दस्तव 284. वहाँ (वे) सिद्ध निश्चय हो वेदनारहित, ममतारहित, आसक्तिरहित और शरोररहित घनीभूत आत्मप्रदेशों से निर्मित आकार वाले (होते हैं)। 285. सिद्ध कहाँ प्रतिहत (होते हैं अर्थात् रुकते हैं) ? सिद्ध कहाँ प्रतिष्ठित (हैं) ? कहाँ वे शरीर को त्यागते (हैं) ? तथा कहाँ जाकर सिद्ध होते हैं ? 286. सिद्ध आलोक में प्रतिहत (होते हैं), लोक के अग्रभाग में प्रतिष्ठित (हैं), (तिर्यक्लोक से) शरीर को त्यागकर वहाँ (लोक के अग्रभाग में) जाकर सिद्ध होते हैं। 287. शरीर को छोडते समय अंतिम समय में जो संस्थान (होता है), आत्म प्रदेशों से घनीभूत (होकर) वही संस्थान उस (सिद्ध अवस्था) का होता है। 288. अन्तिम भव में शरीर का जो दोघं या ह्रस्व प्रमाण होता है उसका एक तिहाई भाग कम सिद्धों की अवगाहना होती है। 289. सिद्धों की उत्कृष्ट अवगाहना तीन सौ तैतीस धनुष से कुछ अधिक होती है, ( इस प्रकार ) जानना चाहिए / 290. चार रत्नि और एक रत्नि का तीसरा भाग कम, ऐसी सिद्धों की मध्यवर्ती अवगाहना कही गयी है, ( इस प्रकार ) जानना चाहिए। 291. (सिद्धों को ) एक रत्नि और आठ अंगुल ( से कुछ ) अधिक अवगाहना होती है, यह सिद्धों की जघन्य अवगाहना कही गयी है।