________________ देवेन्द्रस्तव 292. (अन्तिम) भव (शरीर) के तीन भाग (में) से (एक भाग) कम अवगाहना वाले सिद्ध होते है। जरा और मरण से विमुक्त सिद्धों का संस्थान अनित्थस्थ ( होता है ) / 293. जिस स्थान पर एक सिद्ध ( निवास करता है ), उसी स्थान पर क्षीण संसार प्रविमुक्त अनन्त ( सिद्ध निवास करते हैं)। वे सभी लोकान्त स्पर्श करते हुए एक दूसरों का अवगाहन ( करके रहते हैं)। 294. अशरीरी, सघन आत्म प्रदेश वाले, अनाकार दर्शन और साकार ज्ञान में अप्रमत्त, ये सिद्धों के लक्षण ( हैं)। 295. सिद्ध आत्मा अपने आत्म प्रदेशों से अनन्त सिद्धों को स्पर्श करती है / देश-प्रदेशों से सिद्ध भी असंख्यात गुना ( हैं ) / [ सिद्धों के उपयोग] 296.. केवल ज्ञान में उपयोग वाले सिद्ध सभी पदार्थों के सभी गुणों और पर्यायों को जानते हैं और (वे) अनन्त केवल दृष्टि के द्वारा (सभी को) सर्वतः देखते हैं। 297. ज्ञान और दर्शन इन दोनों उपयोगों में ( से ) सभी केवलि के एक समय में एक ही उपयोग (होता है), दो उपयोग युगपद् नहीं होते है / [सिद्धों के सुख और उपमा ] 298. देवगण समूह के समस्त काल के, समस्त सुखों को, अनन्त गुणित किया जाय और पुनः अनन्त वर्गो से वगित ( अर्थात् अनन्त गुणों को अनन्तानन्त गुणों से गुणित ) किया जाय तो भी ( वे सुख ) मुक्ति सुख को प्राप्त नहीं होते हैं ( अर्थात् उसके बराबर नहीं होते हैं ) / 299. मुक्ति को प्राप्त सिद्धों के जो अव्याबाध सुख ( प्राप्त है ), वह - सुख न तो मनुष्यों, न ही समस्त देवताओं को ( प्राप्त होते हैं ) / 300. सिद्ध की समस्त सुखराशि को, समस्त काल से गुणित करके ( उसे ) अनन्त वर्गमूलों से ( भाग देने पर ) जो राशि प्राप्त होगी ( वह) समस्त आकाश में नहीं समाएगी।