________________ देवेन्द्रस्तव [कल्प वैमानिक देवों के बारह इन्द्र] 162. मेरे द्वारा ( यह ) भवनपति, वाणव्यंतर और ज्योतिषिक (देवों) की स्थिति कही गयो है / (अब) महान ऋद्धि वाले बारह कल्पपति इन्द्रों (के विवरण) को कहूँगा। 163. (तब वह इस प्रकार) कहने लगा-पहला सौधर्मपति, दूसरा ईशानपति इन्द्र, उसके बाद ( तीसरा ) सनत्कुमार और चतुर्थ माहेन्द्र ( इन्द्र ) है। 164. यहां पाचवाँ ब्रह्म, छठा लान्तक, सातवाँ महाशुक्र और आठवाँ सहस्रार देवेन्द्र होता है। 165. नवा आणत, दसवाँ प्राणत, ग्यारहवां आरण और बारहवाँ अच्युत इन्द्र ( होता है)। ... 166. . इस प्रकार ये बारह कल्पपति इन्द्र कल्पों के स्वामी कहे गये हैं। इनके अतिरिक्त देवों को आज्ञा देने वाला दुसरा कोई नहीं (है)। . [अनुत्तर विमान एवं प्रैवेयकों में इन्द्रों का अभाव; सम्यदर्शन से ध्युत एवं अन्यलिङ्गी को गैवेयक पर्यन्त उत्पत्ति का निरूपण] 167. ( कल्पवासी देवों के कार ) जो देवगण है, वे स्वशासित . भावनाओं से उत्पन्न होते हैं, क्योंकि ग्रेवेयक में अन्य रूप (दास भाव या स्वामी भाव ) से उत्पत्ति संभव नहीं ( हैं ) / .. .168. जो सम्यकदर्शन से गिरे हुए ( होकर भी जो ) श्रमण-लिङ्ग धारण करते हैं, उनकी भी उत्पति उत्कृष्ट ( रूप में ) ग्रैवेयक तक ही ( होती है ) / [वैमानिक इन्द्रों को विमान संख्या] 169. यहां सोधर्मकल्पपति शक महानुभाव के बत्तीस लाख विमानों का कथन किया गया (है)।