________________ 57 देवेन्द्रस्तव 230. हे चन्द्रमुखी ! जघन्य आयु को धारण करने वाले देवों का उच्छ्वास सात स्तोकों (काल का माप विशेष) के पूर्ण होने पर (होता है)। __231. देवताओं में जितनी सागरोपम की जिसकी स्थिति ( हैं ), उतने ही पक्षों में (वे) उच्छ्वास ( लेते है ) और उतने ही हजार वर्षो में ( उनको ) आहार (ग्रहण करने) की इच्छा ( होती है ) / 232. यह ( देवों के ) आहार और उच्छ्वास मेरे द्वारा ( संक्षेप में ) वर्णित किया गया / हे सुंदरी! अब शीघ्र इनके सूक्ष्म अन्तर को क्रमशः कहूंगा। 1 [वैमानिक देवों का अवधिज्ञान विषय ] 233. हे सुन्दरी ! इन देवों का जो विषय जितनी अवधि का होता है, उसका मैं आनुपूर्वी पूर्वक यथाक्रम से वर्णन करूंगा। 234-236. सौधर्म व ईशान देव (नोचे को ओर) पहले ( नरक तक को), सनत्कुमार और माहेन्द्र दूसरे (नरक तक को), ब्रह्म व लान्तक देव तीसरी ( नरकतक को ), शुक्र व सहस्त्रार चौथो ( नरकतक को) तथा आणत व प्राणत कल्प के देव पाँचवी ( नरक ) पृथ्वो तक को देखते हैं। और उसी प्रकार आरण व अच्युत ( देव भो ) (पांचवीं पृथ्वो तक को), नीचे व मध्यवर्ती ग्रैवेयक ( देव ) छठी (नरकतक को), उध्वं स्थित (अवेयक देव) सातवीं (नरकतक को) और (पाँच) अनुत्तर देव अवधिज्ञान से सम्पूर्ण लोक नाड़ी को देखते हैं। . 237. अर्द्धसागरोपम से कम ( आयु वाले ) देवों के ( अवधिज्ञान का विषय तिर्यक दिशा में ) संख्यात योजन ( होता है ), उससे अधिक पच्चीस ( सागरोपम की आयु वाले देवों के अवधिज्ञान का विषय भी) कम से कम संख्यात् योजन ( होता है ) / 238. उसके ऊपर की आयु वाले देव तिर्यक् दिशा में असंख्यात द्वीप और समुद्र ( तक जानते हैं ) / (अपने से) ऊपर सब अपने कल्प के स्तूपों ( की उँचाई तक जानते हैं ) /