________________ देवेन्द्रस्तव 68. ये वाणव्यंतर देव मेरे द्वारा संक्षेप से कहे गये हैं। अब एक-एक करके ( इनके ) सोलह इन्द्रों और उनकी ऋद्धि को कहूंगा। 69.70. 1 काल, 2 महाकाल, 3 सुरूप, 4 प्रतिरूप, 5 पूर्णभद्र, 6 माणिभद्र, 7 भीम, 8 महाभीम, 9 किन्नर, 10 किंपुरुष, 11 सत्पुरुष, 12 महापुरुष, 13 अतिकाय, 14 महाकाय, 15 गीतरति और 16 गीतयश (-ये वाणव्यंतर इन्द्र कहे गये हैं)। .. [वाणव्यंतरों के आठ अन्तर भेद ] [ अनपणि, पणपर्षि, ऋषिवावित, भूतवादित ..कन्दित, महाकन्दित, कूष्माण्ड, और पतंगदेव ] [वाणव्यंतरों के आठ अन्तर भेदों के सोलह इन्द्र ] .71-72. सन्निहित 1, सामान 21, धाता 3, विधाता 4 / 2, ऋषि 5, ऋषिपाल 63, ईश्वर 7, महेश्वर 8 / 4, सुवत्स 9, विशाल 105, हास 11, हासरति 1226, श्वेत 13, महाश्वेत 1417, पतंग 15, पतंगपति 16 // 8 ( ये आठ वाणव्यंतर देवों के भेद है और ) अनुक्रम से (प्रत्येक के ) (दो-दो इन्द्र) जानने चाहिए। [व्यंतर और वाणव्यंतरों के भवन स्थान और स्थिति] . 73. व्यंतर देव अवं, अधो और तिर्यक् लोक में उत्पन्न होते हैं और निवास करते हैं। पुनः इनके भवन रत्नप्रभा पृथ्वी के ऊपरी खण्ड में ( हैं)। 74. एक-एक युगल में नियम से अंसख्यात श्रेष्ठ भवन हैं। ये संख्यात (योजन) विस्तार वाले हैं / (उनके) विविध भेद को ( कहता हूं)।