________________ ( xxvi ) उपलब्ध होती हैं, उनमें स्थानांग आदि ऐसे हैं जिनमें भिन्न-२ कालों की . विषय-वस्तु का संकलन होता रहा है। संभावना यही है कि 'देवेन्द्रस्तव' से, जो किसी समय एक बहुप्रचलित स्वाध्यायग्रन्थ रहा होगा, इन परवर्ती आगम ग्रन्थों का निर्माण करते समय इसकी गाथाएँ यथाप्रसंग अवतरित कर ली गयी होगी। साथ ही यह कम हो विश्वसनीय लगता है कि अनेक ग्रन्थों से गाथाओं का संकलन करके यह ग्रन्थ बनाया गया होगा। 'देवेन्द्रस्तव' का एक व्यक्तिकृत और एक काल की रचना होना यही सिद्ध करता है कि गाथाएँ इसी से अन्य आगम ग्रन्थों में गयी हैं। इस भूमिका के अन्त में जो हमने तुलनात्मक विवरण दिया है विद्वानों से अपेक्षा है कि वे इसका अध्ययन कर इस सत्य को समझने का प्रयास करेंगे। ग्रन्थकर्ता का काल, ग्रन्थ की विषय-वस्तु तथा इस ग्रन्थ की गाथाओं का अन्य ग्रन्थों में पाया जाना यही सिद्ध करता है कि 'देवेन्द्रस्तव' का रचना काल ईस्वीपूर्व प्रथम शताब्दी के लगभग ही रहा होगा। - इस कालनिर्णय के प्रसंग में विषय-वस्तु सम्बन्धी विवरण में एक ही आपत्ति प्रस्तुत की जा सकती है, वह यह कि 'देवेन्द्रस्तव' में सिद्धों के स्वरूप सम्बन्धी जो गाथाएँ हैं उनमें एक गाथा में केवलो को दर्शन और ज्ञान क्रमपूर्वक ही होता है, युगपद् नहीं, यह मान्यता सिद्ध की गयी है। केवली के दर्शन और ज्ञान के क्रमपूर्वक और युगपद् होने के प्रश्न को लेकर जैन परम्परा में महत्त्वपूर्ण विवाद रहा है / जहाँ आगमिक परम्परा दर्शन और ज्ञान को क्रमपूर्वक हो मानती है, दिगम्बर परम्परा उन्हें युगपद् मानती है। इस विवाद को समन्वित करने का प्रयत्न आचार्य सिद्धसेन ने सर्वप्रथम अपने ग्रन्थ "सन्मतितर्क" में किया था। 'देवेन्द्रस्तव' के कर्ता ने बलपूर्वक यह बात कही है कि केवली को दर्शन और ज्ञान क्रमपूर्वक ही होता है। इससे ऐसा लगता है कि उसके सामने अन्य मान्यता भी प्रस्तुत रही होगी। परन्तु अगर उसके सामने अन्य मान्यता रही होती, तो वह पहले उनका उल्लेख करता और फिर अपने मत की पुष्टि करता, लेकिन उसने ऐसा नहीं किया / पुनः यह क्रम-वादकी मान्यता आगमिक एवं प्राचीन है। हो सकता है कि उस काल तक विवाद प्रारम्भ हो गया होगा और 'देवेन्द्रस्तव' के कर्ता ने उसी प्रसंग में बलपूर्वक अपने मत को प्रकट किया होगा।