Book Title: Dan Kalpadrum
Author(s): Jinkirtisuri
Publisher: Devchand Lalbhai Pustakoddhar Fund
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- स्थितो भिक्षूचिते देशे, महर्षिर्धर्षितारतिः । धर्मलाभं जगत्कल्पद्रुमाभं वितरन् गिरा ॥ १४६ ॥ आययौ साथ युवती, हयिद्धर्म्यस्पृहावती । निर्मायधीर्बहिर्भैक्षं, करे निर्माय यावता ॥ १४७ ॥ मुनिरेतदलात्वैव, तावता स गतोऽन्यतः । हतश्रध्धाथ सा श्राद्धा, स्वमभाग्यं निनिन्द च ॥ १४८ ॥ तदैव दैवयोगेन, तत्रागाद्गुणरागवान् । वेषमात्रधरः साधुभैक्षं कक्ष्यकरोच्च तत् ॥ १४९ ॥ अथो मिथोविशेषं सा, तयोर्दृष्ट्वाब्रवीदृजुः । पृच्छामिच्छामि निर्मातुं, न ऋषे यदि रुष्यसि ॥ १५० ॥ | वाणीमभाणीत्कल्याणीमेष वेषधरो मुनिः । पृच्छ स्वच्छमते ! रोषदोषशोषकरोऽस्मि यत् ॥ १५१ ॥ साभ्यधात्त्वत्समः साधुर्भिक्षां नैतां ममाग्रहीत् । त्वमग्रहीश्च वैषम्ये, युवयोः किं हि कारणम् ? ॥१५२॥ स प्राह शृणु कल्याणि !, प्राणिरक्षापरायणाः । मुनयस्ते महात्मानः, सनवब्रह्मगुप्तयः ॥ १५३ ॥ रुक्षं भैक्षं च तेऽश्नन्ति, तुच्छमुञ्छसमागतम् । यात्रामात्रार्थमेतस्य, धर्मगात्रस्य निर्ममाः ॥ १५४ ॥ नीचद्वारेऽन्धकारेण गहने सदने तव । अचक्षुर्विषये भिक्षां, न गृह्णन्ति कृपालवः ॥ १५५ ॥ त्वया कुतो गृहीतेति, गृहस्थे ! यदि पृच्छसि ? । वेषमात्रोपजीवित्वाद् भद्रेऽहं श्रमणब्रुवः ॥ १५६ ॥
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