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याद करता है और सबसे अधिक चिंता और तनाव से ग्रस्त होता है। जीवन की शेष आयु चिंता और तनाव में बीतती है क्योंकि हमारी अपेक्षाएँ अपनी संतानों से बढ़ जाती हैं और जब अपेक्षा उपेक्षा में बदल जाती है तो तनाव उत्पन्न होता है। अच्छा होगा यदि हम औरों से अपेक्षा न पालें। जो, जितना, जैसा मिल जाए, हो जाए उसी में प्रसन्न रहने की कोशिश करें। जीवन में जो मिला है, जैसा मिला है उसे प्रभु का प्रसाद.मानकर जो स्वीकार कर लेता है वह कभी तनावग्रस्त नहीं होता।
मनुष्य दूसरी चिंता करता है भविष्य की।' वह न जाने किनकिन कल्पनाओं में खोया रहता है। जो कुछ है नहीं, उसके ही सपने बुनता है । वह अपनी कल्पनाओं के जाल में मकड़ी की तरह उलझा रहता है। न अतीत में जाओ और न भविष्य की रूपरेखा बनाओ अपितु वर्तमान में जीओ। जैसा हो रहा है, उसको वैसा ही स्वीकार कर लो। जिसने कल दिया था उसने कल की व्यवस्था भी दी थी और जो कल देगा वह उस कल की व्यवस्था भी अपने आप देगा। तुम क्यों व्यर्थ में चिंता करते हो. तुम्हारी चिंता से कुछ होता भी नहीं है। तुम व्यर्थ के विकल्पों में क्यों जीते हो? क्यों स्वयं को अशांत और पीड़ित कर रहे हो? तुम्हारे किये कुछ होता नहीं है क्योंकि जो प्रकृति की व्यवस्थाएँ हैं वे अपने आप में पूर्ण हैं। माँ की कोख से बच्चे का जन्म बाद में होता है किन्तु उसके दूध की व्यवस्था प्रकृति की ओर से पहले ही हो जाती है।
__ तनाव के और भी कई कारण होते हैं। सभी कारणों में हमारी नकारात्मक सोच जुड़ी है। वह हमारी बुद्धि को विपरीत बना देती है। अत्यधिक काम का बोझ, गलाकाट स्पर्धा, क्षमता से अधिक कार्य भी तनाव के कारण बन सकते हैं। हीन-भावना भी तनाव का कारण बनती है। सुंदरता, कद-काठी, अंग-भंग, बीमारियाँ या शारीरिक क्षमताओं को लेकर हीन-भावना उत्पन्न हुआ करती है।
चिंता, भय, अतिलोभ, उत्तेजना, विचारों का असामंजस्य- ये सब तनाव के मूल आधार हैं। तनाव का पहला प्रभाव पड़ता है हमारे मनोमस्तिष्क पर। उससे हमारा आज्ञाचक्र शिथिल होता है। आज्ञाचक्र को हम शिव का तीसरा नेत्र कहते हैं या दर्शनकेन्द्र भी कहते हैं। जैसे ही
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