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पाते हैं और न ही उन्हें सही अर्थ में समझ पाते हैं। ऐसी स्थिति पिता-पुत्र, भाई-भाई, सास-बहू, पति-पत्नी इन सब में मानसिक दूरियाँ बढ़ती हैं
और इनके पारस्परिक सम्बन्ध वैसे ही हो जाते हैं जैसे सूखे तालाब की मिट्टी में पड़ी दरारें। परिवार का हर व्यक्ति अगर अपने आपको ज्यादा बुद्धिमान मानेगा और स्वयं को बड़ा समझकर अपने अहंकार की पुष्टि करने का प्रयास करेगा तो आप यह मानकर चलें कि वह घर, घर नहीं अपितु सूखा मरुस्थल होगा जिसमें हर सदस्य एक-दूजे के प्रति शक, आक्रोश और विपरीत भावना से भरा होगा। वे साथ रहेंगे पर दूर-दूर। एक घर में रहेंगे पर एक दूजे से कटकर तनावग्रस्त होंगे। किसी को पति के कारण तनाव, किसी को सास के कारण, किसी को बहू के कारण तनाव होगा तो कहीं देवराणी-जेठाणी में अनबन के कारण तनाव होगा। आप अपने द्वारा परिवार को तनाव दे रहे हैं या परिवार के द्वारा आप तनाव में हैं, दोनों ही स्थितियों में हमारा घर नरक बन सकता है। न अतीत, न भविष्य; केवल वर्तमान
तनाव का एक और कारण है, 'अतीत की स्मृति और भविष्य की कल्पना।' उसने मेरे साथ ऐसा किया, अब मैं उसके साथ वैसा करूँगा। अगर उस समय मैंने वैसा नहीं किया होता तो अभी ऐसा नहीं होता। यदि उस समय ऐसा कर देता तो ठीक रहता। पता नहीं, इस तरह की कितनी यादें व्यक्ति अपने मन में संजोए रखता है। जो बीत गया उसे वापस लौटाया नहीं जा सकता तो उसे याद करने का क्या औचित्य है? और जो होने वाला है, वह होकर ही रहेगा तो उसके बारे में व्यर्थ का तनाव या चिंता पालने का क्या औचित्य?
जो बीत चुका है उस पर विलाप करने से क्या लाभ और जो अभी उपस्थित नहीं है उसकी कल्पना के जाल क्यों बुनना? माह बीत जाता है कलेन्डर से पन्ना फाड़ देते हैं, वर्ष बीत जाता है तो कलेन्डर को ही हटा देते हैं लेकिन व्यक्ति अपने भीतर पलने वाली उत्तेजना को, अनर्गल विचारों को, दूसरों के प्रति होने वाले वैमनस्य को हटा नहीं पाता।
साठ वर्ष की उम्र के बाद व्यक्ति अपने अतीत को बहुत अधिक
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