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के पास आज्ञा लेने जाएँगे तो शायद वे तैयार न हों कि हम दीक्षा लें। अतः अच्छा तो यह होगा कि हम दीक्षित होकर ही अपने माता-पिता को सूचना भिजवा दें।
उन राजकुमारों के साथ उनका सेवक भी आया था। उस सेवक ने ता-उम्र उनकी सेवा की थी, हर प्रकार से उनका ध्यान रखा था अतः उन्होंने सोचा कि इसने हमेशा हमारी सेवा ही की है इसलिये अपने वस्त्रआभूषण आदि सभी इसको ही दे देते हैं। राजकुमारों ने ऐसा ही किया। सेवक तो बहुत प्रसन्न हुआ क्योंकि जिसे जीवन में कभी सोने की अंगूठी भी न मिली थी, उसे अचानक इतने सारे आभूषण और वस्त्र मिल गए थे। उसने सब सामान तुरंत-फुरंत इकट्ठे किये और दौड़ पड़ा अपने गृह नगर की ओर यह सोच कर कि कहीं राजकुमारों का मन न बदल जाए। राजकुमारों ने सेवक से कहा, 'तुम जाकर हमारे पिताजी महाराज को सूचना देना कि आपके सातों पुत्र राजकुमार संन्यासी हो गए हैं और उन्होंने आपसे क्षमा चाही है कि बिना आपकी अनुमति लिए उन्होंने संन्यास ले लिया है। सेवक ने चलते-चलते उनकी यह बात सुनी और वह तेजी से निकल गया। गहनों में नहीं बहना
आभूषणों की पोटली लेकर भागते हुए दो-तीन मील पहुँचा होगा कि एक पेड़ के नीचे विश्राम हेतु बैठ गया। बैठते ही उसे विचार आया कि अगर मैं राजा को सातों राजकुमारों के संन्यास लेने की खबर सुनाऊँगा तो राजा शायद विश्वास न करे और मेरे पास वस्त्र-आभूषणों को देखकर सोचने लगे कि कहीं मैंने ही तो उन राजकुमारों की हत्या नहीं कर दी है और माल लेकर आ गया हूँ। वह बार-बार गहनों को देखता और खुश होता लेकिन तभी उसके मन से एक आवाज और उठी, 'हे सेवक! तू बार-बार उन गहनों को देखकर प्रसन्न हो रहा है जिनका राजकुमारों ने त्याग कर दिया है। जरूर ही उन लोगों को इससे भी बड़ी कोई चीज मिली है जिसके लिये उन्होंने इन गहनों का त्याग कर दिया है। अरे, अब मैं घर जाकर क्या करूँगा? मैं भी उस रास्ते पर जाऊँगा जिस पर सातों राजकुमार गए हैं।' वह वापस बुद्ध के पास आ गया।
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