Book Title: Chinta Krodh aur Tanav Mukti ke Saral Upay
Author(s): Lalitprabhsagar
Publisher: Pustak Mahal

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Page 135
________________ रूप-रंग से नहीं, अंग-अंग से बोले साधुता साधुता का अर्थ केवल संन्यास में ही नहीं है। साधुता केवल वेश में नहीं अटकती हैं, साधुता स्थान से भी नहीं जुड़ती है, साधुता जीवन के अंग-अंग से बोले। जहाँ-जहाँ लोभ की वृत्ति जगे, काम-वासना की वृत्ति जगे, अहंकार का निमित्त मिले और क्रोध के विकारों का निमित्त मिले, वहाँ-वहाँ व्यक्ति अपने मन पर संयम रखता है तो गृहस्थ होकर भी साधु है। पति-पत्नी साथ जी रहे हैं तो भी उनके मन में संयम के प्रति श्रद्धा हो । फिसलने का मौका मिले तब भी तुम अडिग खड़े हो तो तुम साधु बनने के लायक हो। दांत टूटने के बाद अगर चने न खाने का नियम ले लिया तो कोई खास बात नहीं हुई। हाँ, दांत रहते हुए यदि किसी चीज के त्याग का नियम ले लिया तो वह त्याग कहलाता है। जब सामने निमित्त उपलब्ध हों, व्यवस्थाएँ मौजूद हों, इसके बावजूद यदि कोई अपना जीवन संयम और विवेकपूर्वक जीने का प्रयास करता है तो वह साधु है। पुराने जमाने में तो लोग गृहस्थ में भी पवित्रता और संयम को बरकरार रखते थे और आज तो शायद साधु भी उतनी निर्मलता से नहीं जी पाते होंगे। आपने विजय और विजया के जीवनप्रसंग के बारे शायद सुना हो। एक कन्या किसी संत गुरु के पास खड़ी है और उनके वचनों से प्रभावित होकर नियम लेती है कि वह शुक्ल पक्ष की एकम से पूर्णिमा तक आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन करेगी। वहीं, कहीं दूसरी जगह एक युवक अन्य संत गुरु के सान्निध्य में संकल्प लेता है कि वह कृष्ण पक्ष की एकम से अमावस्या तक आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन करेगा। विधाता का विधान, प्रकृति का संयोग कि दोनों का परस्पर विवाह हो गया। इधर पत्नी का व्रत कि वह शुक्ल पक्ष में शीलव्रत का पालन करेगी उधर पति का नियम कि वह कृष्ण पक्ष में नियम का पालन करेगा। जब दोनों को नियमों का पता चला तब पत्नी ने पति से कहा कि वह दूसरा विवाह कर ले । पति ने भी पत्नी को सलाह दी कि वह दूसरी शादी कर ले। लेकिन आज हम उन्हें नमन करते हैं क्योंकि दोनों साथ-साथ रहे पर, दोनों ने मिलकर आजीवन अपने नियम की रक्षा की और वे शील-शिरोमणि हो गए। 134 For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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