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आप विवेकपूर्वक, सलीके से भाषा का उच्चारण कर रहे हैं, वाणी का प्रयोग कर रहे हैं तो यह भी धर्म है । वाणी में सूई भले ही रखें पर उसमें धागा डालकर रखो ताकि सुई केवल छेद ही न करे, वह आपसे दूसरे को जोड़कर भी रखे। कब, कहाँ बोलना, कितना बोलना इसका भी आपको विवेक हो ।
महाभारत का युद्ध न तो दुःशासन, न दुर्योधन, न भीष्म, न धृतराष्ट्र और न ही युधिष्ठिर के कारण लड़ा गया बल्कि भाषा समिति का उपयोग न करने के कारण महाभारत का युद्ध हुआ । द्रौपदी ने दुर्योधन से कहा था कि अंधे के बच्चे अंधे ही होते हैं तो इतनी सी बात ने दुर्योधन के मन को बिगाड़ दिया और उसका परिणाम द्रौपदी के चीरहरण में बदल गया। अपनी भाषा पर अंकुश रखें। ज्यादा बोलने से न बोलना ही अच्छा होता है। ज्यादा बोलने वाला कभी फँस भी सकता है, लेकिन कम बोलने वाला कई उलझनों से बचा रहता है । ज्यादा बोलने वाले को 'सॉरी' भी कहना पड़ता है लेकिन कम बोलने वाले को ऐसी स्थिति में ही नहीं आना पड़ता। जब जरूरत हो तब अपनी वाणी का उपयोग करें अन्यथा मौन रहना सर्वाधिक लाभकारी है।
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किसी से बात करें तो मजाक उड़ाते हुए नहीं करें बल्कि सलीके के साथ, सभ्यता, विवेक और शिष्टता के साथ | हमारी भाषा शिष्ट, इष्ट और मिष्ट हो । भाषा पवित्र और निर्मल हो । व्यंग्यात्मकता से दूर रहने वाली हमारी भाषा सरल और सहज हो ।
कटाक्ष नहीं, मिठास हो
अक्सर ऐसा होता है कि हम अनायास किसी अवसर पर बिना सोचे-समझे कुछ बोल देते हैं, जिस पर बाद में हमें आत्म-ग्लानि होती है और पछताने के सिवा कुछ नहीं रह जाता।
हमारी यह कोशिश रहनी चाहिये कि हमारे संवाद ऐसे हों जो दूसरों को चोट न पहुँचाएं। कटाक्ष की बजाय संयम की भाषा का प्रयोग करें। अगर विपरीत वातावरण में थोड़ा-सा मौन रहने का अभ्यास रखें, तो आपके हित में होगा। मौन रहना दुष्कर तो है, पर यह एक तरह की दैवीय अनुभूति देता है ।
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